Class 11 (NCERT) Text Book
व्यवसाय अध्ययन (Business Studies)
Chapter- 2 व्यावसायिक सगंठन के स्वरूप (Forms of Business Organisation)
यदि कोई व्यक्ति एक व्यवसाय प्रारंभ करने की योजना बना रहा है, तो उसे संगठन के स्वरूप के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेना होगा। व्यवसाय संगठन के विभिन्न स्वरूप निम्न हैं-
- एकल स्वामित्व
- संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय
- साझेदारी
- सहकारी समिति
- संयुक्त पूंजी कंपनी।
- एकल स्वामित्व (Sole Proprietorship) :-
व्यवसाय के प्रारंभिक वर्षों में एकल स्वामित्व उस व्यवसाय को कहते हैं। जिसका स्वामित्व, प्रबंधन एवं नियंत्रण एक ही व्यक्ति के हाथ में होता है तथा वही संपूर्ण लाभ पाने का अधिकारी तथा हानि के लिए उत्तरदायी होता है।
- निर्माण एवं समापन (Formation or closure)- एकल स्वामित्व के नियमन के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, व्यवसाय को बंद भी सरलता से किया जा सकता है। इस प्रकार व्यवसाय की स्थापना एवं उसका समापन दोनों ही सरल हैं।
- दायित्व (Liability)- एकल स्वामी का दायित्व असीमित होता है। इसका अर्थ हुआ कि यदि व्यवसाय की संपत्तियाँ सभी ऋणों के भुगतान के लिए पर्याप्त नहीं हैं तो स्वामी इन ऋणों के भुगतान के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होगा।
- लाभ प्राप्त कर्ता तथा जोखिम वहन कर्ता (Sole Risk bearer and Profit recipient)- व्यवसाय सफल रहता है तो सभी लाभ भी एकल स्वामी को प्राप्त होंगे। वह सभी व्यावसायिक लाभों का अधिकारी होता है, जो उसके जोखिम उठाने का सीधा प्रतिफल है।
- नियंत्रण (Control)- व्यवसाय के संचालन एवं उसके संबंध में निर्णय लेने का पूरा अधिकार एकल स्वामी के पास होता है, वह बिना दूसरों के हस्तक्षेप के अपनी योजनाओं को कार्यान्वित कर सकता है।
- स्वतंत्र अस्तित्व नहीं (No Separate Entity)- कानून की दृष्टि में एकल व्यापारी एवं उसके व्यवसाय में कोई अंतर नहीं है क्योंकि इसमें व्यवसाय का इसके स्वामी से अलग कोई अस्तित्व नहीं है।
- व्यावसायिक निरंतरता का अभाव (Lack of Business Continuity)- एकल स्वामी की मृत्यु पर, पागल हो जाने पर, जेल में बंद होने पर, बीमारी अथवा दिवालिया होने पर सीधा एवं हानिकारक प्रभाव व्यवसाय पर पड़ेगा और हो सकता है कि व्यवसाय बंद भी करना पड़े।
- शीघ्र निर्णय (Quick Decision Making)- एकल स्वामी को व्यवसाय से संबंधित निर्णय लेने की बहुत अधिक स्वतंत्रता होती है, क्योंकि उसे किसी दूसरे से सलाह की आवश्यकता नहीं है।
- सूचना की गोपनीयता (Confidentiality of Information)- एकल स्वामी अकेले ही निर्णय लेने का अधिकार रखता है। वह किसी कानून के अंतर्गत अपने लेखा-जोखे को प्रकाशित करने के लिए बाध्य भी नहीं है।
- प्रत्यक्ष प्रोत्साहन (Direct incentive)- एकल स्वामी संपूर्ण लाभ का ग्रहणकर्ता होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अपने प्रयत्नों के लाभ को प्राप्त करता है। इसलिए उसे लाभ में किसी के साथ हिस्सा बाँटने की आवश्यकता नहीं है। इससे उसे कठिन परिश्रम करने के लिए अधिकतम प्रोत्साहन मिलता है।
- उपलब्धि का अहसास (Sense of Accomplishment)- अपने स्वयं के लिए काम करने से व्यक्तिगत संतोष प्राप्त होता है। इस बात का अहसास होता हैं। कि वह स्वयं ही अपने व्यवसाय की सफलता के लिए उत्तरदायी है।
- स्थापित करने एवं बंद करने में सुगमता (Ease of Formation and Closure)- व्यवसाय में प्रवेश के लिए न्यूनतम वैधानिक औपचारिकताओं की आवश्यकता होती है। इसका स्वरूप ऐसा है कि इसके कम से कम नियमन हैं इसलिए इसको स्थापित करना एवं इसे बंद करना सुगम है।
- सीमित संसाधन (Limited Resources)- एक एकल स्वामी के संसाधन उसके व्यक्तिगत बचत एवं दूसरों से ऋण लेने तक ही सीमित होते हैं।
- व्यावसायिक इकाई का सीमित जीवनकाल (Limited Life of Business concern)- कानून की दृष्टि में स्वामी एवं स्वामित्व दोनों ही एक माने जाते हैं। स्वामी की मृत्यु, दिवालिया होना अथवा बीमारी से व्यवसाय प्रभावित होता है तथा इनसे वह बंद भी हो सकता है।
- असीमित दायित्व (Unlimited Liability)- यदि व्यापार में असफलता रहती है तो लेनदार अपनी लेनदारी को न केवल व्यवसाय की परिसंपत्तियों बल्कि स्वामी की निजी संपत्तियों से भी वसूल कर सकते हैं। एक भी गलत निर्णय या फिर प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण स्वामी पर भारी वित्तीय भार पड़ सकता है।
- सीमित प्रबंध योग्यता (Limited Managerial Ability)- स्वामी पर प्रबंध संबंधित कई उत्तरदायित्व रहते हैं, जैसे- क्रय, विक्रय, वित्त आदि। शायद ही कोई व्यक्ति हो जो इन सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ हो।
- संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय (Joint Hindu Family business):-
इसका अभिप्राय उस व्यवसाय से है जिसका स्वामित्व एवं संचालन एक संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य करते हैं। इसका प्रशासन हिन्दू कानून के द्वारा होता है। परिवार विशेष में जन्म लेने पर वह व्यक्ति व्यवसाय का सदस्य बन जाता है।
- निर्माण (Formation)- संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय के लिए परिवार में कम से कम दो सदस्य एवं वह पैतृक संपत्ति जो उन्हें विरासत में मिली हो इनका होना आवश्यक है। व्यवसाय के लिए किसी अनुबंध की आवश्यकता नहीं है।
- दायित्व (Liability)- कर्ता को छोड़कर अन्य सभी सदस्यों का दायित्व व्यवसाय की सह-समांशी संपत्ति में उनके अंश तक सीमित होता है।
- निरंतरता (Continuity)- कर्ता की मृत्यु होने पर व्यवसाय चलता रहता है क्योंकि सबसे बड़ी आयु का अगला सदस्य कर्ता का स्थान ले लेता है, जिससे व्यवसाय में स्थिरता आती है।
- नाबालिग सदस्य (Minor Member)- व्यवसाय में व्यक्ति का प्रवेश संयुक्त हिन्दू परिवार में जन्म लेने के कारण होता है इसीलिए नाबालिग भी व्यवसाय के सदस्य हो सकते हैं।
- नियंत्रण (Control)- परिवार के व्यवसाय पर कर्ता का नियंत्रण होता है। वही सभी निर्णय लेता हैं। वही व्यवसाय के प्रबंध के लिए अधिकृत होता है। उसके निर्णयों से दूसरे सभी सदस्य बाध्य होते हैं।
- प्रभावशाली नियंत्रण (Effective Control)- कर्ता के पास निर्णय लेने के पूरे अधिकार होते हैं। इससे सदस्यों में पारस्परिक मतभेद नहीं होता क्योंकि उनमें से कोई भी उसके निर्णय लेने के अधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
- स्थायित्व (Continue Business Existence)- कर्ता की मृत्यु से व्यवसाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। क्योंकि सबसे अगला सबसे अधिक आयु का व्यक्ति उसका स्थान ले लेता है।
- सदस्यों का सीमित दायित्व (Limited Liability of Member)- कर्ता को छोड़कर अन्य सभी सह-समाशियों का दायित्व व्यवसाय में उनके अंश तक सीमित होता है इसीलिए उनके जोखिम स्पष्ट एवं निश्चित होते हैं।
- निष्ठा एवं सहयोग में वृद्धि (Increase Loyalty and Cooperation)- व्यवसाय का विकास परिवार की उपलब्धि होती है, इसीलिए उसके लिए यह गर्व की बात होती है। इससे सभी सदस्यों का श्रेष्ठ सहयोग प्राप्त होता है।
- सीमित ससांधन (Limited Resources)- यह व्यवसाय मूल रूप से पैतृक संपत्ति पर आश्रित रहता है इसलिए इसके सामने सौमित पूंजी की समस्या रहती है। इससे व्यवसाय के विस्तार की संभावना कम हो जाती है।
- कर्ता का असीमित दायित्व (Unlimited Liability of Karta)- कर्ता पर न केवल निर्णय लेने एवं प्रबंध करने के उत्तरदायित्व का बोझ होता है बल्कि उस पर सीमित दायित्व का भी भार होता है। व्यवसाय के ऋणों को चुकाने के लिए उसकी निजी संपत्ति का भी उपयोग किया जा सकता है।
- कर्ता का प्रभुत्व (Dominance of karta)- कर्ता अकेला ही व्यवसाय का प्रबंधन करता है जो कभी-कभी अन्य सदस्यों को स्वीकार्य नहीं होता। इससे उनमें टकराव हो जाता है।
- समिति प्रबंधन कौशल (Limited Managerial Skills)- यह आवश्यक तो नहीं कि कर्ता सभी क्षेत्रों का विशेषज्ञ हो इसलिए व्यवसाय को उसके मूर्खतापूर्ण निर्णयों के परिणाम भुगतने होते हैं।
साझेदारी कानूनी समझौते के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आती है जिसमें साझेदारों के मध्य संबंधों, लाभ एवं हानि को बाँटने एवं व्यवसाय के संचालन के तरीकों को निश्चित किया जाता है।
- स्थापना (Formation)- व्यावसायिक संगठन का साझेदारी स्वरूप भारतीय साझेदारी अधिनियम-1932 द्वारा शासित है। साझेदारी कानूनी समझौते के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आती है।
- देयता (Liability)- फर्म के साझेदारों का दायित्व असीमित होता है। यदि व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ अपर्याप्त हैं तो ऋणों को उसकी व्यक्तिगत संपत्तियों से चुकाया जाएगा।
- निरंतरता (continuity)- साझेदारी में व्यवसाय की निरंतरता की कमी रहती है क्योंकि किसी भी साझेदार की मृत्यु, अवकाश ग्रहण करने, दिवालिया होने या फिर पागल हो जाने से यह समाप्त हो सकती है।
- जोखिम वहन करना (Risk Bearing)- व्यवसाय को एक टीम के रूप में चलाने से उत्पन्न जोखिम को साझेदार वहन करते हैं। इसके प्रतिफल के रूप में उन्हें लाभ प्राप्त होता है जिसे वे आपस में एक तय अनुपात में बाँट लेते हैं।
- निर्णय लेना एवं नियंत्रण (Decision Making and Control)- साझेदार आपस में मिलकर दिन-प्रतिदिन के कार्य के संबंध में निर्णय लेने एवं नियंत्रण करने के उत्तरदायित्व को निभाते हैं। निर्णय उनकी आपसी राय से लिए जाते हैं।
- सदस्यता (Number of Partners)- किसी साझेदारी को प्रारंभ करने हेतु न्यूनतम दो सदस्यों की आवश्यकता होती है। कंपनी अधिनियम-2013 की धारा 464 के अनुसार किसी साझेदारी फर्म में साझेदारों की अधिकतम संख्या 100 तक हो सकती है।
- एजेंसी संबंध (Mutual Agency)- प्रत्येक साझेदार एजेंट भी है एवं स्वामी भी। वह दूसरे साझेदारों का प्रतिनिधित्व करता हैं। इसलिए वह उनका एजेंट होता है तथा उसके कार्यों से अन्य साझेदार आबद्ध हो जाते हैं। प्रत्येक साझेदार स्वामी भी होता है तथा दूसरे साझेदारों के कार्यों से आबद्ध हो जाता है।
- स्थापना एवं समापन सरल (Ease of formation and Closure) - एक साझेदारी फर्म को संभावित साझेदारों के बीच समझौते के द्वारा सरलता से बनाया जा सकता है। फर्म का पंजीकरण अनिवार्य नहीं होता एवं इसे बंद करना भी सरल होता है।
- संतुलित निर्णय (Balanced Decision Making)- साझेदार अपनी-अपनी विशिष्टता के अनुसार अलग-अलग कार्यों को देख सकते हैं एक व्यक्ति विभिन्न कार्यों को करने के लिए बाध्य नहीं होता तथा इससे निर्णय लेने में गलतियाँ भी कम होती हैं।
- जोखिम को बाँटना (Sharing of Risk)- साझेदारी फर्म को चलाने में निहित जोखिम को सभी साझेदार बाँट सकते हैं। इससे अकेले साझेदार पर पड़ने वाला बोझ, तनाव एवं दबाव कम हो जाता है।
- गोपनीयता (Secrecy)- एक साझेदारी फर्म के लिए अपने खातों को प्रकाशित करना एवं ब्यौरा देना कानूनी रूप से आवश्यक नहीं है इसलिए यह अपने व्यावसायिक कार्यों के संबंध में सूचना को गुप्त रख सकते हैं।
- सीमित दायित्व (Unlimited Liability)- यदि फर्म की देनदारी को चुकाने के लिए व्यवसाय की संपत्तियाँ पर्याप्त नहीं हैं तो साझेदारों को इसका भुगतान अपने निजी स्रोतों से करना होगा।
- सीमित साधन (Limited Resources)- साझेदारों की संख्या सीमित होती है इसलिए बड़े पैमाने के व्यावसायिक कार्यों के लिए उनके द्वारा लगाई गई पूँजी अपर्याप्त रहती है।
- परस्पर विरोध की संभावना (Possibilty of Conflicts)- साझेदारी का संचालन व्यक्तियों का एक समूह करता है जिनमें निर्णय लेने के अधिकार को बाँटा जाता है। इससे साझेदारों के बीच विवाद पैदा हो सकता है। इसी प्रकार से एक साझेदार के निर्णय से दूसरे साझेदार आबद्ध हो जाते हैं।
- निरंतरता की कमी (Lack of continuity)- किसी भी एक साझेदार की मृत्यु, अवकाश ग्रहण करने, दिवालिया होने अथवा पागल होने से साझेदारी समाप्त हो जाती है। इसे सभी की सहमति से कभी भी समाप्त किया जा सकता है इसलिए इसमें स्थायित्व एवं निरंतरता नहीं होती।
- जनसाधारण के विश्वास की कमी (Lack of Public Confidence)- साझेदारी फर्म के लिए इसकी वित्तीय सूचनाओं एवं अन्य संबंधित जानकारी का प्रकाशन अथवा उजागर करना कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं है इसलिए जनसाधारण के लिए फर्म की वित्तीय स्थिति को जानना कठिन हो जाता है।
- साझेदारों के प्रकार (Types of Partner):-
- सक्रिय साझेदार (Active Partner)- एक सक्रिय साझेदार वह है जो पूँजी लगाता है। फर्म के लेनदारों के प्रति उसका दायित्व असीमित होता है। यह साझेदार अन्य साझेदारों की ओर से व्यवसाय संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं।
- सुप्त अथवा निष्क्रिय साझेदार (Sleeping Partner)- जो साझेदार व्यवस्था के दिन प्रतिदिन के कार्यों में भाग नहीं लेते हैं, उन्हें सुप्त साझेदार कहते हैं। एक निष्क्रिय साझेदार फर्म में पूँजी लगाता है, लाभ-हानि को बाँटता है तथा उसका असीमित (Unlimited) दायित्व होता है।
- गुप्त साझेदार (Secret Partner)- यह वह साझेदार होता है जिसके फर्म से संबंध को साधारण जनता नहीं जानती। इस विशिष्टता को छोड़कर बाकी मामलों में वह अन्य साझेदारों के समान होता है।
- नाममात्र का साझेदार (Nominal Partner)- यह वह साझेदार होता है, जिसके नाम का प्रयोग फर्म करती है लेकिन वह इसमें कोई पूँजी नहीं लगाते हैं और ना ही इसके प्रबंध में भाग लेते हैं। लेकिन उनके उत्तरदायित्व असीमित (Unlimited) होते हैं।
- विबंधन साझेदार (Partner by estoppel)- यह वह साझेदार होता हैं। जो अपनी पहल, आचरण अथवा व्यवहार से दूसरों को यह आभास कराता है कि वह किसी फर्म का साझेदार है। ऐसे साझेदारी फर्म के ऋणों के भुगतान के लिए उत्तरदायी होते हैं।भले ही वे इसमें पूँजी नहीं लगाते हैं और न ही इसके प्रबंध में भाग लेते हैं।
- प्रतिनिधि साझेदार (Partner by Holding Out)- यह वह व्यक्ति होता है जो जानबूझकर फर्म में अपने नाम को प्रयोग करने देता है अथवा अपने आपको इसका प्रतिनिधि मानने देता है। ऐसा व्यक्ति किसी भी उस ऋण के लिए उत्तरदायी होगा जो उसके ऐसे प्रतिनिधित्व के कारण दिए गए हैं।
- साझेदारी के प्रकार (Types of Partnership):-
साझेदारी को दो घटकों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है-अवधि (Duration) एवं देयता (Liability)।
- अवधि के आधार पर वर्गीकरण :-
- ऐच्छिक साझेदारी (Partnership at Will)- इस प्रकार की साझेदारी की रचना साझेदारों की इच्छा से होती है। यह उस समय तक चलती है जब तक कि अलग होने का नोटिस नहीं दिया जाता। किसी भी साझेदार द्वारा नोटिस देने पर यह समाप्त हो जाती है।
- विशिष्ट साझेदारी (Particular Partnership)- साझेदारी की रचना एक निश्चित अवधि के लिए की जाती है, तो इसे विशिष्ट साझेदारी कहते हैं। जिस उद्देश्य के लिए इसकी रचना की गई है उसके पूरा होने पर अथवा अवधि की समाप्ति पर यह समाप्त हो जाती है।
- देयता के आधार पर वर्गीकरण :-
- सामान्य साझेदारी (General Partnership)- सामान्य साझेदारी में साझेदारों का दायित्व असीमित एवं संयुक्त होता है। साझेदारों को प्रबंध में भाग लेने का अधिकार होता है तथा उनके कृत्यों से अन्य साझेदार तथा फर्म आबद्ध हो जाते हैं। ऐसे फर्म का पंजीयन ऐच्छिक होता है।
- सीमित साझेदारी (Limited Partnership)- सीमित साझेदारी में कम से कम एक साझेदार का दायित्व असीमित होता है तथा शेष साझेदारों का सीमित। ऐसी साझेदारी सीमित दायित्व वाले साझेदारों की मृत्यु, पागलपन अथवा दिवालिया होने से समाप्त नहीं होती है।

- साझेदारी संलेख (Partnership Deed) :-
साझेदारी उन लोगों का ऐच्छिक संगठन है, जो समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एकजुट होते हैं। साझेदारी बनाने के लिए सभी शर्ते एवं साझेदारों से संबंधित सभी पहलुओं के संबंध में स्पष्ट समझौता आवश्यक है। यह समझौता मौखिक अथवा लिखित हो सकता है। साझेदारी संलेख में सामान्यतः निम्न पहलू शामिल होते हैं-
- फर्म का नाम
- व्यवसाय की प्रकृति एवं स्थान जहाँ वह स्थित है।
- व्यवसाय की अवधि
- प्रत्येक साझेदार द्वारा किया गया निवेश
- लाभ-हानि का बँटवारा
- साझेदारों के कर्तव्य एवं दायित्व
- साझेदारों का वेतन एवं आहरण
- साझेदार के प्रवेश, अवकाश ग्रहण एवं हटाए जाने से संबंधित शर्ते
- पूँजी एवं आहरण पर ब्याज
- फर्म के समापन की प्रक्रिया
- खातों को तैयार करना एवं उसका अंकेक्षण
- विवादों के समाधान की पद्धति।
- पंजीकरण (Registration) :-
- साझेदारी फर्म के पंजीकरण का अर्थ है फर्म के पंजीयन अधिकारी के पास रहने वाले फर्मों के रजिस्टर में फर्म का नाम तथा संबंधित विवरण की प्रविष्टि करना। यह फर्म की उपस्थिति का पक्का प्रमाण होता है।
- फर्म को पंजीकृत कराना ऐच्छिक होता है। फर्म का पंजीयन न कराने के निम्नलिखित परिणाम हो सकते हैं-
- एक अपंजीकृत फर्म का साझेदार अपने फर्म अथवा अन्य साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं कर सकता है।
- फर्म अन्य पक्षों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती हैं।
- फर्म साझेदारों के विरुद्ध मुकदमा नहीं चला सकती हैं।
- भारतीय साझेदारी अधिनियम 1932 के अनुसार किसी फर्म की साझेदार फर्म उस राज्य के रजिस्ट्रार के पास पंजीकरण करा सकती है, जिस राज्य में वह स्थित है। एक फर्म के पंजीयन की प्रक्रिया निम्नलिखित है-
- फर्मों के रजिस्ट्रार के पास निर्धारित प्रपत्र (फॉर्म) के रूप में आवेदन करना। इस आवेदन में निम्न विवरण दिया जाता है-
- फर्म का नाम
- वह स्थान जहाँ फर्म स्थित है तथा वह स्थान जहाँ फर्म अपना व्यवसाय कर रही है।
- प्रत्येक साझेदार के फर्म में प्रवेश की तिथि
- साझेदारों के नाम एवं पते
- साझेदारी की अवधि।
- इस आवेदन पर सभी साझेदारों के हस्ताक्षर होते हैं। फर्मों के रजिस्ट्रार के पास आवश्यक फीस जमा कराना।
- स्वीकृति के पश्चात रजिस्ट्रार फर्मों के रजिस्टर में प्रविष्टि कर देगा तथा तत्पश्चात पंजीयन प्रमाण पत्र जारी कर देगा।
- सहकारी संगठन (Cooperative Society) :-
- सहकारी समिति उन लोगों का स्वैच्छिक संगठन है, जो सदस्यों के कल्याण के लिए एकजुट हुए हैं।
- एक सहकारी समिति का सहकारी समिति अधिनियम 1912 के अंतर्गत पंजीकरण अनिवार्य है।
- इसकी प्रक्रिया सरल है एवं समिति का गठन करने के लिए कम से कम दस बालिग सदस्यों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। समिति की पूँजी को अंशों का निर्गमन कर इसके सदस्यों से जुटाया जाता है।
- स्वैच्छिक सदस्यता (Voluntary Membership)- सहकारी समिति की सदस्यता ऐच्छिक होती है। कोई भी व्यक्ति किसी सहकारी समिति में स्वेच्छा से सम्मिलित हो सकता है अथवा उसे छोड़ सकता है।
- वैधानिक स्थिति (Legal Status)- सहकारी समिति का पंजीकरण अनिवार्य है. इस समिति को अपने सदस्यों से अलग पृथक अस्तित्व प्राप्त हो जाता है। इसके पृथक वैधानिक अस्तित्व के कारण सदस्यों को इसमें प्रवेश अथवा इसको छोड़ कर जाने का इस पर प्रभाव नहीं पड़ता।
- सीमित दायित्व (Limited Liability)- एक सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा लगायी पूँजी की राशि तक सीमित रहता है। किसी भी सदस्य के लिए राशि अधिकतम जोखिम की सीमा है।
- नियंत्रण (Control)- किसी भी सहकारी समिति में निर्णय लेने की शक्ति उसकी निर्वाचित प्रबंध कमेटी के हाथों में होती है। सदस्यों के पास वोट का अधिकार होता है, जिससे उन्हें प्रबंध समिति के सदस्यों को चुनने का अवसर मिलता है।
- सेवा भावना (Service Motive)- सहकारी समिति के उद्देश्य पारस्परिक सहायता एवं कल्याण के मूल्यों पर अधिक जोर देते हैं। इसलिए इसके कार्यों में सेवाभाव प्रधान रहता है।
- वोट की समानता (Equality in Voting Status)- सहकारी समिति एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत से शासित होती है। सदस्यों द्वारा लगायी गयी पूँजी की राशि से प्रभावित हुए बिना प्रत्येक सदस्य को वोट का समान अधिकार प्राप्त है।
- स्थायित्व (Stable Existence)- सदस्यों की मृत्यु दिवालिया होना अथवा पागलपन सहकारी समिति की निरंतरता को प्रभावित नहीं करता है। समिति इसीलिए सदस्यता में आए परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना कार्य करती रहती है।
- मितव्ययी प्रचालन (Economy in Operation)- सदस्य समिति को साधारणतया अवैतनिक सेवाएं देते हैं। क्योंकि ध्यान मध्यस्थ की समाप्ति पर ही केंद्रित होता है, इससे लागत में कमी आती है।
- सीमित दायित्व (Limited Liability)- सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा लगायी गयी पूँजी तक सीमित होता है।
- सरकारी सहायता (Support from Government)- सहकारी समिति लोकतंत्र एवं धर्मनिर्पेक्षता का उदाहरण है। इसलिए इनको कम टैक्स, अनुदान, नीची ब्याज की दर से ऋण के रूप में सरकार से सहायता मिलती है।
- सरल स्थापना (Ease of Formation)- सहकारी समिति कम से कम दस सदस्यों से प्रारंभ की जा सकती है। इसके पंजीकरण की प्रक्रिया सरल है तथा इसमें कानूनी औपचारिकताएँ कम हैं।
- सीमित संसाधन (Limited Liability)- सहकारी समिति के संसाधन सदस्यों की पूँजी से बनते हैं, जिनके साधन सीमित होते हैं। निवेश पर लाभांश की नीची दर के कारण भी अधिक सदस्य नहीं बन पाते।
- अक्षम प्रबंधन (Inefficiency in Management)- सहकारी समितियां ऊँचा वेतन नहीं दे पाती, इसलिए उसको कुशल प्रबंधक नहीं मिल पाते। जो सदस्य स्वेच्छा से अवैतनिक सेवाएँ देते हैं वे साधारणतया पेशेवर योग्यता प्राप्त नहीं होते हैं।
- सरकारी नियंत्रण (Government Control)- सहकारी समिति को सरकार सुविधाएँ देती है, लेकिन बदले में उसे खातों के अंकेक्षण, खाते जमा करना आदि से संबंधित कई नियमों का पालन करना होता है। इससे समिति के प्रचालन की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- विचारों की भिन्नता (Difference of Opinion)- परस्पर विरोधी विचारों के कारण आंतरिक कलह उत्पन्न हो सकती है, जिससे निर्णय लेने में कठिनाई उत्पन्न होती है।
- गोपनीयता की कमी (Lack of Secrecy)- समिति अधिनियम की धारा (7) के अनुसार प्रत्येक सहकारी समिति पर प्रकट करने का दायित्व है, इसीलिए समिति प्रचालन के संबंध में गोपनीयता बनाए रखना कठिन होता है।
- सहकारी समितियों के प्रकार (Types of Cooperative Societies) :-
- उपभोक्ता सहकारी समितियां (Consumer's Cooperative Societies)- उपभोक्ता सहकारी समितियों का गठन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे उपभोक्ता होते हैं, जो बढ़िया गुणवत्ता वाली वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त करना चाहते हैं।
- उत्पादक सहकारी समितियां (Producer's Cooperative Societies) - इन समितियों की स्थापना छोटे उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए की जाती है। इसके सदस्य वे उत्पादक होते हैं, जो उपभोक्ताओं की मांग को पूरा करने के लिए वस्तुओं के उत्पादन हेतु आगत जुटाते हैं।
- विपणन सहकारी समितियां (Marketing Cooperative Societies)- विपणन समितियों का गठन छोटे उत्पादकों को उनके उत्पादों को बेचने में सहायता के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे उत्पादक होते हैं, जो अपने उत्पादों के उचित मूल्य वसूलना चाहते हैं।
- किसान सहकारी समितियां (Farmer's Cooperative Societies)- इन समितियों का गठन किसानों को उचित मूल्य पर आगत उपलब्ध कराकर उनके हितों की रक्षा के लिए किया जाता है। इसके सदस्य वे किसान होते हैं, जो मिलकर कृषि कार्यों को करना चाहते हैं। समिति का उद्देश्य बड़े पैमाने पर कृषि का लाभ उठाना एवं उत्पादकता को बढ़ाना है।
- सहकारी ऋण समितियाँ (Credit Cooperative Societies)- सहकारी ऋण समितियों की स्थापना सदस्यों को आसान शर्तों पर सरलता से कर्ज उपलब्ध कराने के लिए की जाती है। इसके सदस्य वे व्यक्ति होते हैं, जो ऋणों के रूप में वित्तीय सहायता चाहते हैं ऐसी समितियों का लक्ष्य सदस्यों को साहूकारों के शोषण से संरक्षण प्रदान करना है।
- सहकारी आवास समितियाँ (Cooperative Housing Societies)- सहकारी आवास समितियों की स्थापना सीमित आय के लोगों को उचित लागत पर मकान बनाने में सहायता के लिए की जाती है। इसके सदस्य वे व्यक्ति होते हैं जो उचित मूल्य पर रहने का स्थान प्राप्त करने के इच्छुक हैं। इसका उद्देश्य सदस्यों की आवासीय समस्याओं का समाधान करना है।
- संयुक्त पूंजी कंपनी (Joint Stock Company):-
सयुंक्त पूंजी कंपनी से आशय उन कंपनियों से है जिनका समामेलन कम्पनी अधिनियम 2013 में या इससे पूर्व किसी कंपनी अधिनियम के अन्तर्गत हुआ है। अंशधारी कंपनी के स्वामी होते हैं।
- कृत्रिम व्यक्ति (Artificial Person)- कंपनी की रचना कानून द्वारा होती है तथा इसका अपने सदस्यों से अलग स्वतंत्र अस्तित्व होता है।
- पृथक वैधानिक अस्तित्व (Separate Legal Entity)- समामेलन के दिन से ही कंपनी को एक अलग पहचान मिल जाती है, जो इसके सदस्यों से पृथक होती है। इसकी परिसंपत्तियाँ एवं इसकी देयताएं इसके स्वामियों की परिसंपत्तियों में देयताओं से पृथक होती हैं।
- स्थापना (Formation)- कंपनी की स्थापना अधिक समय लेने वाली, खर्चीली एवं जटिल प्रक्रिया है। इसके कार्य प्रारंभ से पहले कई प्रलेख तैयार करना तथा कई कानूनी आवश्यकताओं का पालन करना होता है।
- शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession)- कंपनी की रचना कानून द्वारा होती है तथा कानून ही इसका अंत कर सकता है। इसके अस्तित्व का अंत केवल तभी होगा जबकि इसको बंद करने की प्रक्रिया जिसे समापन कहते है, पूरी हो जाएगी।
- नियंत्रण (Control)- कंपनी के मामलों का प्रबंध एवं नियंत्रण निदेशक मण्डल करता है, जो कंपनी के व्यवसाय को चलाने के लिए उच्च प्रबंध अधिकारियों की नियक्ति करता है।
- दायित्व (liability)- हानि होने स्थिति में सदस्यों का दायित्व कंपनी में उनके द्वारा लगाई पूँजी तक सीमित होता है।
- सार्वमुद्रा (Common Seal)- कंपनी कृत्रिम व्यक्ति होने के कारण अपने नाम के हस्ताक्षर नहीं कर सकती। इसलिए प्रत्येक कंपनी को एक सार्वमुद्रा का प्रयोग आवश्यक है जो कि अधिकारिक रूप से कंपनी के लिए हस्ताक्षर करती है।
- सीमित दायित्व (Limited Liability)- अंशधारक अपने अंशों की अदत्त राशि की सीमा तक उत्तरदायी होते हैं तथा ऋणों के निपटान के लिए कंपनी की परिसंपत्तियों का ही उपयोग किया जा सकता है।
- हितों का हस्तांतरण (Transfer of Interest)- स्वामित्व के हस्तांतरण में सरलता कंपनी में निवेश का अतिरिक्त लाभ है, क्योंकि एक सार्वजनिक कंपनी के अंशों को बाजार में बेचा जा सकता है।
- स्थायी अस्तित्व (Perpetual Existence)- कंपनी का अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है तथा इस पर उनकी मृत्यु, अवकाश ग्रहण, त्याग-पत्र, दिवालिया होना एवं पागलपन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
- विस्तार की संभावना (Scope of expansion)- संगठन के एकल स्वामित्व और साझेदारी में तुलना करने पर एक कंपनी के पास वित्त के अधिक स्रोत हैं। एक कंपनी जनता से धन की व्यवस्था के साथ-साथ बैंक और वित्तीय संस्थाओं से ऋण भी ले सकती है।
- पेशेवर प्रबंध (Professional Management)- कंपनी, विशेषज्ञों एवं पेशेवर लोगों को ऊंचा वेतन देने में सक्षम होती है इसलिए वह विभिन्न क्षेत्रों में निपुण लोगों को नियुक्त कर सकती है।
- अवैयक्तिक कार्य वातावरण (Impersonal Work Environment)- स्वामित्व एवं प्रबंध में पृथकता से एक ऐसा वातावरण बन जाता है जिसमें कंपनी के अधिकारीगण न तो प्रयत्न करते हैं और न ही व्यक्तिगत रूप से रुचि लेते हैं।
- अनेकानेक नियम (Numerous Regulation)- कंपनी के कार्य संचालन के संबंध में कई कानूनी प्रावधान एवं बाध्यताएँ हैं। इससे कपंनी की प्रचालन संबंधी स्वतन्त्रता कम हो जाती हैं।
- निर्णय में देरी (Delay in Decision Making)- कंपनी का प्रबंध लोकतांत्रिक ढंग से निदेशक मंडल के माध्यम से होता है। विभिन्न प्रस्ताव के संप्रेषण एवं अनुमोदन की प्रक्रिया के कारण न केवल निर्णय लेने में बल्कि उन्हें क्रियान्वित करने में देरी होती है।
- गोपनीयता की कमी (Lack of Secrecy)- कंपनी अधिनियम के अनुसार एक सार्वजनिक कंपनी को समय-समय पर कंपनी रजिस्ट्रार के कार्यालय में अनेकों सूचनाएँ देनी होती है। जिससे सूचनाओं मे गोपनीयता की कमी बनी रहती हैं।
- हितों का टकराव (conflict)- कंपनी के विभिन्न अंशधारकों के हितों में टकराव हो सकता है। इसमे परस्पर विरोधी हितों को संतुष्ट करना कंपनी के प्रबंधन में अकसर समस्याओं को जन्म देता है।
- कंपनियों के प्रकार (Types of Company) :-
कंपनी दो प्रकार की हो सकती है निजी कंपनी एवं सार्वजनिक कंपनी।

- निजी कंपनी (Private Company) :-
भारतीय कपंनी अधिनियम के अनुसार एक निजी कपंनी वह हैं-
- जो अपने सदस्यों पर अंशों के हस्तान्तरण पर रोक लगाती है
- जिसमें वर्तमान एवं भूतपूर्व कर्मचारियों को छोड़कर न्यूनतम 2 एवं अधिकतम 200 सदस्य होते हैं।
- जो अंश पूंजी लगाने के लिए जनता को आमंत्रित नहीं करती हैं।
- सार्वजनिक कंपनी (Public Company) :-
एक सार्वजनिक कंपनी वह कंपनी है जो निजी कंपनी नहीं है। भारतीय कंपनी अधिनियम के
अनुसार एक सार्वजनिक कंपनी वह है-
- जिसमें कम से कम 7 सदस्य हों तथा अधिकतम संख्या की कोई सीमा नहीं है।
- जिसमें अंशों के हस्तांतरण पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
- जो अपनी अंश पूंजी के अभिदान के लिए जनता को आमंत्रित कर सकती है तथा जन साधारण इसकी सार्वजनिक जमा में रुपया जमा करा सकते हैं।
- व्यावसायिक संगठन के स्वरूप का चयन (Choice of Form of Business) :-
व्यावसायिक संगठनों के विभिन्न स्वरूपों के कुछ लाभ एवं कुछ हानियाँ हैं। उचित स्वरूप का चयन कई महत्त्वपूर्ण घटकों पर निर्भर करता है।

- प्रारंभिक लागत (Primary Cost)- एकल स्वामित्व सबसे कम खर्चीला सिद्ध होता है। साझेदारी में भी सीमित पैमाने पर उद्योग के कारण कम कानूनी औपचारिकताओं एवं कम लागत का लाभ मिलता है। सहकारी समितियों एवं कंपनियों का पंजीयन अनिवार्य है। कंपनी के निर्माण की कानूनी प्रक्रिया लम्बी एवं खर्चीली होती है।
- दायित्व (Liability)- एकल स्वामित्व एवं साझेदारी में स्वामी का दायित्व असीमित होता है। संयुक्त हिन्दू परिवार व्यवसाय में केवल कर्ता का ही दायित्व असीमित होता है। सहकारी समितियों एवं कंपनियों में दायित्व सीमित होता है।
- निरंतरता (Continuity)- एकल स्वामित्व एवं साझेदारी फर्मों में इनके स्वामियों की मृत्यु, दिवालिया होने या पागल हो जाने जैसी घटनाओं से उनकी निरंतरता प्रभावित होती है। संयुक्त हिन्दू व्यवसायों, सहकारी समितियों एवं कंपनियों की निरंतरता पर ऊपर वर्णित घटनाओं का प्रभाव नहीं पड़ता है।
- नियंत्रण (Control)- व्यवसाय प्रचालन पर सीधे नियंत्रण एवं निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार चाहिए तो एकल स्वामित्व को पसंद किया जाएगा। लेकिन यदि स्वामियों को नियंत्रण एवं निर्णय लेने में भागीदारी से परहेज नहीं है तो साझेदारी अथवा कंपनी को अपनाया जा सकता है।
- व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business)- जहाँ ग्राहकों से सीधे संपर्क की आवश्यकता है जैसे कि परचून की दुकान वहाँ एकल स्वामित्व अधिक उपयुक्त रहेगा। जहाँ ग्राहक से सीधे व्यक्तिगत संपर्क की आवश्यकता नहीं है, वहाँ कंपनी स्वरूप को अपनाया जा सकता है। इसी प्रकार से जहाँ पेशेवर सेवाओं की आवश्यकता होती है वहाँ साझेदारी अधिक उपयुक्त रहती है।
- पूँजी की आवश्यकता (Capital Consideration)- बड़ी मात्रा में पूँजी जुटाने के लिए कंपनी अधिक श्रेष्ठ स्थिति में होती है। साझेदारी फर्म को भी सभी साझेदारों से इकट्ठा संसाधनों का लाभ मिल जाता है। लेकिन एक एकल स्वामी के साधन सीमित होते हैं।