Class 11th NCERT Text Book
भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास (Indian Economic Development)
Chapter 1
स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था
(Indian Economy on the Eve of Independence)
- ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:
- भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के मुख्य उद्देश्य:
- ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का मुख्य उद्देश्य इंग्लैंड में तेजी से विकसित हो रहे औद्योगिक आधार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को केवल कच्चा माल प्रदायक तक ही सीमित रखना था।
- भारतीय संसाधनों का केवल शोषण मात्र ही औपनिवेशिक शासन का उद्देश्य था।
- भारतीय अर्थव्यवस्था का लयबद्ध तरीके से शोषण किया गया।
- ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का उद्देश्य अपने मूल देश के आर्थिक हितों का संरक्षण और संवर्धन ही था।
- औपनिवेशिक काल में भारतीय अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख क्षेत्रक: कृषि, उद्योग एवं विदेशी व्यापार, सभी बुरी तरह प्रभावित हुए|
- भारतीय अर्थव्यवस्था का औपनिवेशिक शोषण:
- कृषि क्षेत्र का औपनिवेशिक शोषण भू-राजस्व की ज़मींदार प्रथा द्वारा किया गया। अंग्रेजों द्वारा बनाई गई राजस्व व्यवस्था (Revenue Settlement) के कारण जमींदार किसानों की दुर्दशा की अनदेखी कर उनसे अधिक से अधिक लगान वसूला करते थे। बावज़ूद इसके अधिकांश जमींदारों तथा सभी औपनिवेशिक शासकों ने कृषि क्षेत्रक की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया|
- औद्योगिक क्षेत्र का औपनिवेशिक शोषण वि-औद्योगिकीकरण के द्वारा किया गया। इस कारण शिल्पकला का पतन भारत में होता रहा, जिससे भारी स्तर पर बेरोज़गारी फैलती रही। लोग शहरों से वापस गावों की तरफ जाने लगे और इस प्रकार वि-औद्योगिकीकरण के कारण शहरीकरण भी विपरीत दिशा में चल पड़ा|
- विदेशी व्यापार का औपनिवेशिक शोषण: औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों के परिणामस्वरूप भारत कच्चे उत्पाद जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील और पटसन आदि का निर्यातक बन कर रह गया। जिसके कारण भारत के स्थानीय बाजार में इन उत्पादों की उपलब्धता कम हो गई थी। साथ ही भारत इंग्लैंड में विनिर्मित सामान का आयातक बन कर रह गया|
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का कृषि क्षेत्रक:
औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था का मुख्य साधन कृषि ही था। देश की लगभग 85% आबादी, जो गाँवों में रहती थी, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही आश्रित थी।
- एक बड़ी जनसंख्या का व्यवसाय होने के बाद भी कृषि क्षेत्रक में गतिहीन विकास की प्रक्रिया ही चलती रही। इसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:
- कृषि क्षेत्र की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासन द्वारा लागू की गई भू-व्यवस्था प्रणालियों को माना जा सकता है। इस व्यवस्था में कृषि कार्यों से होने वाले समस्त लाभ को जमींदार ही हड़प जाते थे।
- औपनिवेशिक शासकों ने कृषि क्षेत्रक की दशा को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया।
- भू-राजस्व व्यवस्था की पीड़ादायक शर्तें जिसमें निर्धारित समय पर यदि जमींदारों द्वारा भू-राजस्व जमा नहीं कराया जाता था तो जमींदारों के अधिकार छीन लिए जाते थे।
- निम्न-स्तर की प्रौद्योगिकी के साथ-साथ सिंचाई सुविधाओं का भी अभाव था।
- कृषि के व्यवसायीकरण के कारण नकदी-फ़सलों की उच्च उत्पादकता थी, परंतु यह लाभ भारतीय किसानों को नहीं मिल पा रहा था क्योंकि उन्हें खाद्यान्न की जगह नकदी फ़सलों का ही उत्पादन करना पड़ रहा था जिनका प्रयोग इंग्लैंड में लगे कारख़ानों में किया जाता था।
- भारतीय किसानों के पास कृषि क्षेत्र में निवेश के लिए न ही संसाधन थे, न तकनीक थी और न ही कोई प्रेरणा।
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में उद्योग क्षेत्रक:
कृषि की भाँति औद्योगिक क्षेत्रक औपनिवेशिक शासन में कोई मजबूत आधार का विकास नहीं कर पाया।
- आधुनिक औद्योगिक आधार का न होना।
- भारत में वि-औद्योगिककरण: वि-औद्योगीकरण (Deindustrialization) का अर्थ है- किसी देश या क्षेत्र में औद्योगिक क्रियाकलापों का क्रमशः कम होना तथा उससे सम्बन्धित सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन। यह औद्योगीकरण की उलटी प्रक्रिया है। वि-औद्योगीकरण में विशेषतः भारी उद्योगों या निर्माण उद्योगों (Manufacturing Industry) में कमी आती है।
- वि-औद्योगिककरण के पीछे विदेशी शासकों की दोहरी नीति थी:
- भारत को इंग्लैंड में विकसित आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना|
- अपने उत्पादों के लिए भारत को ही बाजार के रूप में विकसित करना। इस कारण भारतीय शिल्पकलााओं का पतन होता रहा जिससे भारी स्तर पर बेरोज़गारी फैलती रही।
स्थानीय उत्पाद से वंचित भारतीय बाजारों में माँग का प्रसार हो रहा था और इस माँग को इंग्लैंड से सस्ते निर्मित उत्पादों के लाभ-पूर्ण आयात द्वारा पूरा किया गया।
औपनिवेशिक काल में उद्योगों की एक और विशेषता थी: पूँजीगत उद्योगों का अभाव होना। पूँजीगत उद्योग वे उद्योग होते हैं जो तात्कालिक उपभोग में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के लिए मशीनों और कलपुर्जों का निर्माण करते हैं। ब्रिटिश शासन द्वारा वि-औद्योगिककरण के कारण पूँजीगत उद्योगों का भारत में अभाव बना रहा।
- 19वीं शताब्दी के बाद भारत में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लगी थी, किंतु उनकी उन्नति बहुत धीमी ही रही।
- सूती कपड़ा मिलें प्राय: भारतीय उद्यमियों द्वारा ही लगाई गई थीं और ये देश के पश्चिमी क्षेत्रों में ही अवस्थित थीं।
- पटसन (जूट) उद्योग केवल बंगाल प्रांत तक ही सीमित रहा।
- 20वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में लोहा और इस्पात उद्योग का विकास प्रारंभ हुआ। टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी (TISCO) की स्थापना 1907 में की गई।
- नव औद्योगिक क्षेत्रक की संवृद्धि दर की गति बहुत धीमी थी और सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान बहुत कम रहा।
- सार्वजनिक क्षेत्रक का नए उत्पादन क्षेत्रों में बहुत कम योगदान रहा।
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारत का विदेशी व्यापार:
औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपनाई गई वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों का भारत के विदेशी व्यापार की संरचना, स्वरूप और आकार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
- वस्तु उत्पादन, व्यापार और सीमा शुल्क की प्रतिबंधकारी नीतियों के परिणामस्वरूप भारत कच्चे उत्पाद जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील और पर्सन आदि का निर्यातक बन कर रह गया।
- भारत सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्रों जैसी अंतिम उपभोक्ता वस्तुओं और इंग्लैंड के कारख़ानों में बनी हल्की मशीनों आदि का आयातक भी बन गया।
- इंग्लैंड ने भारत के आयात-निर्यात व्यापार पर अपना एकाधिकार जमा लिया। भारत का आधे से अधिक विदेशी व्यापार तो केवल इंग्लैंड तक सीमित रहा। शेष कुछ व्यापार चीन, श्रीलंका और ईरान से था।
- वर्ष 1869 में स्वेज नहर के खुल जाने से परिवहन लागते बहुत कम हो गई और भारतीय बाजार तक पहुँचना और सुगम हो गया। इसके कारण भारत के व्यापार पर अंग्रेजी नियंत्रण और भी सख्त हो गया।
- ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय निर्यात अधिशेष का आकार बढ़ रहा था परंतु इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुँच रहा था:
- देश के आंतरिक बाजारों में अनाज, कपड़ा और मिट्टी का तेल जैसी अनेक आवश्यक वस्तुएँ मुश्किल से उपलब्ध हो पा रही थीं।
- इस निर्यात अधिशेष का प्रयोग अंग्रेजों के भारत पर शासन करने के लिए गढ़ी गई व्यवस्था का खर्च उठाने में ही हो जाता था।
- अंग्रेजी सरकार के युद्धों पर व्यय तथा अदृश्य मदों के आयात पर व्यय के द्वारा भारत की संपदा का दोहन हुआ।
- ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की जनसांख्यिकीय स्थिति:
जनसांख्यिकी, मानव जनसंख्या का सांख्यिकीय अध्ययन है। किसी भी स्थान की जनसंख्या लिंग, स्थान और उम्र के सापेक्ष निरंतर रूप से बदलती रहती है। इन सबका वहाँ की अर्थव्यवस्था पर भी काफी प्रभाव पड़ता है और इन परिवर्तनों को जिस विज्ञान के अंतर्गत पढ़ा जाता है, उसे ही “जनसांख्यिकी” कहते हैं।
- भारत में पहली जनगणना 1872 में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड मेयो के समय कराई गई थी। लेकिन, पहली व्यवस्थित जनगणना 1881 में हुई थी। उसके बाद से जनगणना हर 10 वर्ष बाद कराई जाने लगी।
- साक्षरता दर देश के एक निश्चित नमूने में लोगों का वह प्रतिशत है जो पढ़ने और लिखने की क्षमता रखते हैं। 1947 में साक्षरता दर लगभग 16 % थी और महिला साक्षरता दर केवल 7% आँकी गई थी।
- ब्रिटिश भारत में जन-स्वास्थ्य सेवाएँ तो अधिकांश लोगों को उपलब्ध नहीं थी और जहाँ पर ये सुविधाएँ उपलब्ध भी थीं, वहाँ निश्चित रूप से अपर्याप्त थीं।
- प्रति 1000 लोगों में मौतों की वार्षिक संख्या को सकल मृत्यु-दर कहते हैं । ब्रिटिश भारत में सकल मृत्यु दर बहुत ऊँची थी।
- प्रति 1000 जन्में बच्चों में से 1 वर्ष से भी कम उम्र के बच्चों की मौतों की वार्षिक संख्या को शिशु मृत्यु दर कहते हैं। औपनिवेशिक शासन काल के अंत होते-होते देश की आज़ादी के समय यह दर 218 प्रति हजार थी। जबकि 2018 में ये दर केवल 30 प्रति हजार रह गई थी।
- जीवन प्रत्याशा एक व्यक्ति के औसत जीवनकाल का अनुमान है। जीवन प्रत्याशा दर आज के 68 वर्ष की तुलना में औपनिवेशिक शासन काल में केवल 32 वर्ष थी।
- औपनिवेशिक शासन काल में गरीबी, भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्याएँ बहुत अधिक व्यापक थीं।
व्यवसायिक संरचना अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में कामकाजी आबादी के वितरण को संदर्भित करती है।
- औपनिवेशिक काल के दौरान विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रकों में लगे कार्यशील श्रमिकों के आनुपातिक विभाजन में कोई परिवर्तन नहीं आया।
- स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था की व्यवसायिक संरचना:-