Class 11th NCERT TEXT BOOK

भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास (Indian Economic Development)

Chapter 4

निर्धनता (Poverty)

                           

  • निर्धनता परिचय: 

निर्धनता एक ऐसी अवस्था है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर  

पाता।

  • जन-जन की न्यूनतम मूलभूत आवश्यकताओं की संपूर्ति और निर्धनता निवारण स्वतंत्र भारत का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है।
  • पंचवर्षीय योजनाओं में विकास के जिस स्वरूप को अपनाया गया है, उसका उद्देश्य समाज के निर्धनतम और सबसे पिछड़े सदस्यों को ऊपर उठाना रहा है।
  • आज विश्व के निर्धनों की कुल संख्या के पाँचवें हिस्से से अधिक निर्धन केवल भारत में रहते हैं। यहाँ 26 करोड़ लोग ऐसे बसे हैं, जो अपनी मूलभूत ज़रूरतों को भी ढंग से पूरा नहीं कर पाते हैं।
  • निर्धनता के अलग-अलग स्थान पर तथा अलग-अलग समय पर अलग स्वरूप हैं। निर्धनता जैसी दशा से हर कोई व्यक्ति बचना चाहता है।
  • इसलिए यह जानना जरूरी है की निर्धनता को कम करने के लिए कौन सी नीतियाँ अपनानी चाहिए और कौन सी नहीं जिससे अधिक से अधिक लोगों को पेट भर भोजन नसीब हो सके, सिर छुपाने को बेहतर जगह मिल सके, चिकित्सा व शिक्षा की सुविधाएँ प्राप्त हो सके, हिंसा से उनका बचाव हो सके तथा समाज में उनकी बात रखने का हक मिल सके।

  • निर्धनता क्या है ?

            निर्धनता एक ऐसी अवस्था है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर

            पाता।

  • निर्धनता के सूचकांक:
  1. निर्धन लोगों के पास परिसंपत्तियाँ बहुत कम होती हैं और यह कच्चे घरों में रहते हैं। इनमें भी जो बहुत ज्यादा निर्धन है उनके पास ऐसे घर भी नहीं होते।
  2. निर्धनतम परिवारों में भूख और भुखमरी की समस्या सदैव बनी रहती है।
  3. निर्धन परिवारों में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न होता है।
  4. इनके पास निश्चित रोज़गार के साधनों की भी कमी होती है।
  5. समाज के निर्धन वर्गों में कुपोषण बहुत गंभीर स्तर तक पहुँचा हुआ होता है। अस्वस्थता, अपंगता और गंभीर बीमारियाँ आदि उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर बनाए रखती है।
  6. अधिकांश निर्धन परिवारों को बिजली उपलब्ध नहीं होती है।
  7. अधिकांश निर्धन परिवारों को स्वच्छ सुरक्षित पानी भी सुलभ नहीं हो पाता है।

  • निर्धनता का वर्गीकरण:
  • ग्रामीण निर्धनता:
  1. ग्रामीण निर्धन प्राय: भूमिहीन कृषक होते हैं या फिर वह बहुत ही छोटी जोतों के स्वामी किसान होते हैं।
  2. कई ग्रामीण निर्धन भूमिहीन मज़दूर भी होते हैं जो विभिन्न प्रकार के गैर- कृषि कार्य करते हैं।

  • शहरी निर्धनता:
  1. शहरों में अधिकांश निर्धन वही हैं जो गाँव से वैकल्पिक रोज़गार और निर्वाह की तलाश में शहर चले आए हैं।
  2. यह लोग तरह-तरह के अनियमित काम करते हैं।
  3. यह शहरों में स्वनियोजित कार्य भी करते हैं और जगह-जगह गलियों में घूम कर थोड़ा- बहुत सामान बेचते हैं।
  4. निर्धनता के कई प्रकार है और निर्धनता को कई तरीकों से वर्गीकृत किया गया है।

  • सापेक्ष निर्धनता: जब एक व्यक्ति अपनी निर्धनता का माप किसी अन्य के मुकाबले तुलना कर करता है तो ऐसी निर्धनता को सापेक्ष निर्धनता कहते हैं। जैसे मैं मोहन से निर्धन हूँ। बांग्लादेश भारत से अधिक निर्धन देश है।

  • निरपेक्ष निर्धनता: जब कोई व्यक्ति वास्तव में निर्धन होता है, वह वास्तव में तय निर्धन रेखा से नीचे है तो ऐसी निर्धनता को निरपेक्ष निर्धनता कहते हैं।

  • एक अन्य निर्धनता का वर्गीकरण निम्न प्रकार है:
  • चिरकालिक निर्धनता: ऐसे व्यक्ति जो बहुत समय से निर्धन है चिरकालिक निर्धन कहलाता है। सदा निर्धन और सामान्यत निर्धन को मिलाकर चिरकालिक निर्धन वर्ग बनता है।

  • अल्पकालिक निर्धनता: वे लोग जो कभी धनी की श्रेणी में होते हैं परंतु कभी-कभी उनका भाग्य साथ नहीं देता और वह कभी कभी निर्धन की श्रेणी में आ जाते हैं तो ऐसी निर्धनता को अल्पकालिक निर्धनता कहते हैं।

  • गैर निर्धन: वे लोग जो कभी निर्धन नहीं होते गैर निर्धन कहलाते हैं।


  • गरीबी रेखा का निर्धारण:
  • न्यूनतम कैलोरी उपभोग के मौद्रिक मान (प्रति व्यक्ति व्यय) का निर्धारण करना निर्धनता मापन की एक विधि है। ग्रामीण व्यक्ति को 2400 कैलोरी तथा शहरी व्यक्ति को 2100 कैलोरी का न्यूनतम उपभोग मिलना चाहिए। गरीबी रेखा की वर्तमान परिभाषा के अनुसार इससे कम स्तर का जीवन जीने वालों को गरीब माना गया है|

 

  • किसी परिवार द्वारा वस्तुओं (खाद्य एवं गैर-खाद्य) तथा सेवाओं पर किये जाने वाले औसत खर्च एवं मासिक प्रतिव्यक्ति उपभोग व्यय (Monthly Per Capita Expenditure-MPCE) का अनुमान लगाया जाता है।
  • वर्ष 2011-12 में निर्धनता-रेखा को ग्रामीण क्षेत्रों में रूपए 816 प्रतिव्यक्ति प्रति माह उपभोग के रूप में तथा शहरी क्षेत्रों में रूपए 1000 प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के रूप में परिभाषित किया गया था।
  • 2015-16 में निर्धनता-रेखा को ग्रामीण क्षेत्रों में रूपए 960 प्रतिव्यक्ति प्रति माह उपभोग के रूप में तथा शहरी क्षेत्रों में रूपए 1410 प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के रूप में अभिव्यक्त किया गया।

  • मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय की कमियाँ:-
  1. इसके अंतर्गत सभी निर्धनों को एक वर्ग में मान लिया जाता है और कम निर्धन और अधिक निर्धन में फर्क नहीं किया जाता है।
  2. इसके अंतर्गत यह बताना मुश्किल हो जाता है कि सबसे अधिक सहायता की आवश्यकता किस निर्धन व्यक्ति को है।
  3. यह विधि सामाजिक कारणों जैसे बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पेयजल और स्वच्छता आदि पर ध्यान नहीं देती है।
  4. निर्धनता रेखा के आँकलन की कार्य-विधि भी कुछ इस तरह की रखी जाती है कि निर्धनों की संख्या में निरंतर कमी दिखाई जा सके।

  • निर्धन- कहाँ और कितने:
  • जब निर्धनों की संख्या का अनुमान निर्धनता रेखा से नीचे के जनानुपात द्वारा किया जाता है तो उसे हम 'व्यक्ति गणना' अनुपात विधि कहते हैं।
  • नीचे दिए गए चित्र में 1973-2000 की अवधि में भारत में निर्धनों की संख्या तथा जनसंख्या में उनका अनुपात दर्शाया गया है।
  • वर्ष 1973-74 में 32 करोड़ से अधिक व्यक्ति निर्धनता की रेखा से नीचे थे। वर्ष 2011-12 में यह संख्या कम होकर 27 करोड़ हो गई।
  • 1973-74 में कुल जनसंख्या की 55% जनसंख्या निर्धनता रेखा से नीचे थी। यह अनुपात 1999-2000 में गिरकर 26% रह गया है।
  • 1973-74 में 80% से अधिक निर्धन ग्रामीण क्षेत्रों में बसे थे जो 1999-2000 में 75% हो गए।
  • 1973-2012 के दौरान आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने गरीबी के स्तर को कम करने में काफ़ी सराहना पूर्ण काम किया।
  • ओडिशा, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में अभी भी राष्ट्रीय औसत से अधिक लोग गरीब हैं। इन राज्यों को ग़रीबी उन्मूलन पर बहुत काम करने की आवश्यकता है।
  • 1973-74 से 2011-12 तक जहाँ शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धन लोगों की संख्याओं में अंतर कम नहीं हुआ, वहीं अनुपात में अंतर 1993-94 तक पूर्ववत् बना रहा और 2011-12 आते-आते तो और बढ़ गया।
  • 1973-2012 के दौरान ग्रामीण क्षेत्रो में गरीबों का अनुपात 56% से 26% पर आ गया।
  • 1991 में शुरू किए जाने वाले आर्थिक सुधारों का कृषि को कोई फ़ायदा नहीं मिला, बल्कि कृषि पर पहले मिलने वाली रियायतें भी कम होती गईं।
  • शहरों में 1993-2005 के दौरान गरीबों के अनुपात में 14 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गई।
  • गरीबी के मामले में देश के छोटे राज्यों की स्थिति बड़े राज्यों की तुलना में औसतन अच्छी रही है।

  • गरीबी के कारण:
  • निम्न पूँजी निर्माण: पूँजी आर्थिक विकास के महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। पूँजी का संचय किसी राष्ट्र की उत्पादन क्षमता के सूचकांक के रूप में किया जा सकता है। दुर्भाग्य से, पूँजीगत स्टॉक और पूँजी निर्माण निरंतर वृद्धि के लिए उनकी आवश्यकता की तुलना में अपने निष्क्रिय स्थिति में जारी है। कम पूँजी निर्माण से तात्पर्य है कम उत्पादन क्षमता और गरीबी।

  • आधारिक संरचनाओं का अभाव: ऊर्जा, परिवहन और संचार (शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास सेवाओं के साथ-साथ आर्थिक बुनियादी ढांचे के महत्वपूर्ण घटक) सामाजिक बुनियादी ढांचे के प्रमुख घटक बहुत खराब स्थिति में हैं। ये विकास और विकास के किसी भी कार्यक्रम की नींव के रूप में काम करते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, यह फ़ाउंडेशन 58 साल की योजना के बावजूद अभी भी अपने प्रारंभिक अवस्था में है। विकास का धीमापन और गरीबी की दृढ़ता स्पष्ट परिणाम हैं।

  • विकास की दर का निम्न स्तर: भारत में पंच-वर्षीय योजनाओं के दौरान अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर काफी कम रही है। नियोजन की अवधि के दौरान, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर लगभग 4% रही है। लेकिन जनसंख्या की लगभग 2% विकास दर के कारण प्रति व्यक्ति आय में 2.4% की वृद्धि हुई। प्रति व्यक्ति आय की कम वृद्धि दर गरीबी को बनाए रखने का कारण है।

 

  • जनसंख्या का  दबाव: भारत में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। यह वृद्धि मुख्य रूप से मृत्यु दर में गिरावट और पिछले कई दशकों से अधिक स्थिर जन्म दर के कारण है। 1941-1951 में जनसंख्या की वृद्धि दर 1% थी, और 1991-2001 में बढ़कर 2.1% हो गई। 1991 में भारत की जनसंख्या 84.63 करोड़ थी और 2006-7 में बढ़कर 112.2 करोड़ हो गई। जनसंख्या का भारी दबाव निर्भरता के बोझ को बढ़ाता है, जो समय के साथ अधिक गरीबी का कारण बनता है।

  • सामाजिक/ कल्याण व्यवस्था का अभाव: हमारे देश की सामाजिक संरचना पुरानी परंपराओं और जाति व्यवस्था, संयुक्त परिवार प्रणाली, वंशानुक्रम और उत्तराधिकारी के क़ानूनों आदि से भरी हुई है। ये सभी अर्थव्यवस्था में गतिशील परिवर्तन को बाधित करते हैं। विकास दर के बाधित होने का परिणाम गरीबी है।

  • निर्धनता निवारण हेतु नीतियाँ और कार्यक्रम:
  • सरकार ने निर्धनता निवारण के लिए सबसे पहले त्रिआयामी नीति अपनाई । यह नीति ‘संवृद्धि’ पर आधारित है। माना जाता है कि इस नीति के अंतर्गत आर्थिक संवृद्धि अर्थात् सकल घरेलू उत्पाद और प्रतिव्यक्ति आय में तीव्र वृद्धि के फ़ायदे समाज के सभी वर्गों तक पहुँचाए जाएँगे| समाज के निर्धनतम वर्गों को भी थोड़ी देर से ही सही, पर बेहतर और स्थायी प्रगति का लाभ मिलेगा।

  • सरकार द्वारा निर्धनता पर त्रिआयामी नीति निर्धनता को दूर करने में सफल नहीं रही थी ।
  • इस नीति के बावजूद निर्धनों की संख्या जो 1973-74 में 321 मिलियन थी, वह 1999-2000 में घटकर केवल 260 मिलियन रह गई।
  • 1990 के दशक में निर्धनता ग्रामीण क्षेत्रों में कम हुई तथा शहरी क्षेत्रों में बड़ी जिसका सीधा अर्थ है कि निर्धनता उन्मूलन नहीं हुआ बल्कि निर्धनता ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में स्थानांतरित हुई है।

ऐसा निम्नलिखित कारणों से हुआ:

  1. देश की राजनीतिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार।
  2. कार्यक्रमों के प्रभावी क्रियान्वयन में पर्यवेक्षण का अभाव।
  3. लाभार्थी समूह में उनके लाभ के लिए कार्य कर लाभ कार्यक्रमों के प्रति जागरूकता का अभाव।
  4. शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के लिए कोई कार्यक्रम न शुरू किया जाना।

  • ग़रीबी उन्मूलन की दूसरी नीति को तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-66) से आरंभ किया गया था और तब से सामान्यतः इस नीति के अंतर्गत चलने वाले कार्यक्रमों को क्षमता और महत्व की दृष्टि से धीरे-धीरे बढ़ाया जाता रहा है। इस योजना का उद्देश्य सीधे-सीधे निर्धनों के लिए आय और रोज़गार को बढ़ाना था । इसी क्रम में 1970 के दशक में चलाया गया 'काम के बदले अनाज' कार्यक्रम एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम रहा।

  • काम के बदले अनाज कार्यक्रम 1970 के दशक में चलाया गया था जिसका उद्देश्य निर्धनों के जीवन स्तर को बढ़ाना है। इस गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम का उद्देश्य वृद्धिशील संपत्ति के निर्माण के जरिए निर्धनों के आय तथा रोज़गार में वृद्धि करना है।

  • दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) में अनेक रोज़गार सृजन कार्यक्रम चलाए गए जो विकास की दृष्टि पर आधारित थे। स्वरोजगार तथा मजदूरी पर आधारित रोजगार कार्यक्रमों को निर्धनता निवारण का मुख्य माध्यम माना जा रहा था। इन कार्यक्रमों के उदाहरण निम्नलिखित है:-

  1. ग्रामीण रोज़गार सृजन कार्यक्रम (REGP): इस कार्यक्रम का उद्देश्य गाँवों और छोटे कस्बों में स्वरोजगार के अवसरों का सृजन करना है। इसे खादी विकास और ग्रामोद्योग आयोग के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है। इसके अंतर्गत छोटे उद्योग लगाने के लिए बैंक ऋणों के माध्यम से वित्तीय सहयोग उपलब्ध कराया जाता है।
  2. प्रधानमंत्री रोजगार योजना (PMRY): इसके अंतर्गत ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में निम्न आय वर्ग परिवारों के शिक्षित बेरोज़गार किसी भी प्रकार के उद्योग को शुरू करने के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त कर सकते हैं।
  3. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (SJSRY) ग्रामीण गरीबों को स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए एक समन्वित कार्यक्रम के रूप में पहली अप्रैल, 1999 को शुरू की गई। योजना का उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों की मदद करके सामाजिक एकजुटता, प्रशिक्षण, क्षमता निर्माण और आमदनी देने वाली परिसंपत्तियों की व्यवस्था के जरिए उन्हें स्वयं-सहायता समूहों के रूप में संगठित करना है। यह कार्य बैंक ऋण और सरकारी सब्सिडी के जरिए किया जाता है।
  4. राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005: इसमें प्रत्येक ग्रामीण परिवार के एक इच्छुक व्यस्क को वर्ष में 100 दिनों तक के लिए अकुशल शारीरिक श्रम कार्य उपलब्ध कराने की गारंटी दी जाती है ।इस अधिनियम के अंतर्गत जो भी निर्धन निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी पर काम करने को तैयार हो, वे जहाँ यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है, वहाँ रिपोर्ट कर सकता है।

  • निर्धनता निवारण की दिशा में तीसरा आयाम लोगों को न्यूनतम आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराना था। यह विधि पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई थी। इस विधि के अंतर्गत निर्धनों के उपभोग, रोज़गार अवसरों का सृजन तथा स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार की संपूर्ति की जाएगी।

इसके लिए निम्नलिखित कार्यक्रम चलाए गए:

  1. सार्वजनिक वितरण व्यवस्था
  2. एकीकृत बाल विकास योजना
  3. मध्यावकाश भोजन योजना
  4. प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना
  5. प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना
  6. वाल्मिकी अंबेडकर आवास योजना

  • केंद्र सरकार बुजुर्गों निर्धनों और असहाय महिलाओं के सहायता के लिए सामाजिक सहायता कार्यक्रम चला रही है। इसके अंतर्गत निराश्रित वृद्धाजनों को निर्वाह के लिए पेंशन दी जाती है। अति निर्धन महिलाएँ और अकेली विद्वाएँ भी इस पेंशन योजना के अंतर्गत आती है।

  • निर्धनता, भूख, कुपोषण, निरक्षरता और बुनियादी सुविधाओं के अभाव को दूर करने की अनेक नीतियों को चलाने के बाद भी देश के कुछ भागों में यह अभी भी पाए जाते हैं।

इन कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक लागू करने में निम्नलिखित बातें बाधा डालते हैं:

  1. भूमि और अन्य संपत्तियों के वितरण की विषमताओं के कारण प्रत्यक्ष निर्धनता निवारण कार्यक्रमों का लाभ प्राय: गैर- निर्धन वर्ग के लोग ही उठा पाए।
  2. आवश्यकता की तुलना में इन कार्यक्रमों के लिए आवश्यक संसाधन अपर्याप्त रहे हैं।
  3. यह कार्यक्रम सरकार और बैंक अधिकारियों के सहारे चलाए जाते हैं। इन अधिकारियों में उपयुक्त चेतना के अभाव, अपर्याप्त प्रशिक्षण और भ्रष्टाचार के साथ-साथ स्थानीय सशक्त वर्गों के अनेक प्रकार के दबावों के कारण प्रायः संसाधनों का दुरुपयोग और बर्बादी होती आ रही है।

  • निर्धनता का वास्तविक अंत तो तभी होगा जब:
  1. निर्धन भी अपनी सक्रिय भागीदारी के माध्यम से आर्थिक समृद्धि में योगदान देना आरंभ करेंगे।
  2. रोज़गार के अवसरों की रचना होगी जिससे आय के स्तर में सुधार होगा, कौशल का विकास होगा तथा स्वास्थ्य और साक्षरता के स्तर ऊँचा उठेंगे
  3. निर्धनता ग्रस्त क्षेत्रों की सही पहचान करके वहाँ स्कूल, सड़कें, विद्युत, संचार, सूचना, प्रौद्योगिकी, सेवाएँ तथा प्रशिक्षण संस्थानों जैसे आधारिक संरचनाएँ उपलब्ध कराई जाएंगी।