Class 12th व्यवसाय अध्ययन

(Business Studies)

Chapter 12

उपभोक्ता संरक्षण (Consumer Protection)

  • उपभोक्ता संरक्षण (Consumer Protection): यह उत्पादकों और विक्रेताओं की अनुचित प्रथाओं के खिलाफ उपभोक्ता की सुरक्षा के लिए उठाए गए कदमों को संदर्भित करता है।

  • उपभोक्ता सरंक्षण का महत्व (Importance of Consumer Protection):

  1. उपभोक्ताओं का दृष्टिकोण (From the Consumer's Point of View):

  1. उपभोक्ता की अज्ञानता (Consumer's Ignorance)- उपभोक्ताओं में व्यापक रूप से अपने अधिकारों की अज्ञानता एवं उनको प्राप्त सहायता को ध्यान में रखते हुए उनको इन सबके संबंध में शिक्षा देना आवश्यक हो जाता है जिससे कि उनमें जागरूकता पैदा हो।

  1. असंगठित उपभोक्ता (Unorganised Consumers)- उपभोक्ताओं को उपभोक्ता संगठन के रूप में संगठित हो जाना चाहिए जो उनके हितों का ध्यान रखेंगे। यद्यपि भारत में इस दिशा में कार्यरत उपभोक्ता संगठन है लेकिन जब तक यह संगठन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने एवं उनके प्रवर्तन के लिए पर्याप्त सक्षम न हो जाएँ उन्हें संरक्षण की आवश्यकता है।

  1. उपभोक्ताओं का चौतरफा शोषण (Widespread Exploitation of Consumers): उपभोक्ताओं का दोषपूर्ण एवं असुरक्षित वस्तुओं में मिलावट, झूठा एवं गुमराह करने वाला विज्ञापन, जमाखोरी, कालाबाजारी जैसे झूठे शोषण करने वाले एवं अनुचित व्यापार व्यवहार के द्वारा शोषण किया जा सकता है। उपभोक्ताओं का विक्रेताओं की इन गलत तरीकों के विरुद्ध संरक्षण की आवश्यकता है।

  1. व्यवसाय की दृष्टि से (From the Business Point of View):

  1. व्यवसाय का दीर्घ अवधिक हित (Long Term Interest of Business)- आज का जागरूक व्यवसायी यह भली-भांति समझता है कि उपभोक्ता की संतुष्टि दीर्घ अवधि में उन्हीं के हित में है। ग्राहक यदि संतुष्ट है तो वह न केवल बार-बार माल खरीदेगा बल्कि संभावित ग्राहकों के लिए भी प्रतिपोषक का कार्य करेगा जिससे व्यवसाय के ग्राहकों की संख्या में वृद्धि होगी। इसीलिए व्यावसायिक फर्मों को ग्राहक की संतुष्टि के द्वारा लम्बी अवधि में अधिकतम लाभ प्राप्त करने का लक्ष्य सामने रखना चाहिए।

  1. व्यवसाय समाज के संसाधनों का उपयोग करता है (Business Uses Society's Resources)- व्यावसायिक संगठन उन संसाधनों का उपयोग करते हैं जिनपर समाज का अधिकार है। इसीलिए ऐसे उत्पादों की आपूर्ति एवं उन सेवाओं को प्रदान करने दायित्व है जो जनता के हित में है तथा जिससे जनता के विश्वास को ठेस न पहुँचे।

  1. सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibility)- व्यवसाय का विभिन्न हितार्थी समूहों के प्रति सामाजिक दायित्व है। व्यावसायिक संगठन ग्राहकों को माल की बिक्री कर एवं सेवाएँ प्रदान कर धन कमाता है। इस प्रकार से उपभोक्ता व्यवसाय में हित रखने वाले बहुत से समूहों में से एक महत्त्वपूर्ण समूह है और दूसरे हित रखने वाले समूहों के समान इनके हितों का भी ध्यान रखना आवश्यक है।

  1. नैतिक औचित्य (Moral Justification)- उपभोक्ता के हितों का ध्यान रखना तथा उनके किसी भी प्रकार का शोषण न करना व्यवसाय का नैतिक कर्तव्य है। इसीलिए व्यवसाय को दोषपूर्ण एवं असुरक्षित उत्पाद, मिलावट, झूठे एवं गुमराह करने वाले विज्ञापन, जमाखोरी, कालाबाजारी आदि जैसे झूठे शोषण करने वाले एवं अनुचित व्यापार क्रियाओं से बचना चाहिए।

  1. सरकारी हस्तक्षेप (Government Intervention)- यदि कोई व्यवसाय शोषण करने वाला व्यापार कर रहा है तो वह सरकारी हस्तक्षेप एवं कार्यवाही को आमंत्रण दे रहा है। इससे कंपनी की छवि को हानि पहुँचती है और छवि पर धब्बा लगता है। इसीलिए उचित यही रहेगा कि व्यावसायिक संगठन स्वेच्छापूर्वक ग्राहकों की आवश्यकताओं एवं हितों का भली-भाँति ध्यान रखने वाला कार्य करें।

  • उपभोक्ताओं को कानूनी संरक्षण (Legal Protection to Consumers):

  1. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 (Consumer Protection Act,1986)- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 उपभोक्ता के हितों की सुरक्षा करता है एवं उनका प्रवर्तन करता है। यह अधिनियम उपभोक्ताओं को दोषपूर्ण वस्तुओं. घटिया स्तर की सेवाओं, अनुचित व्यापार क्रियाओं तथा अन्य प्रकार के शोषण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। इस अधिनियम के अंर्तगत त्रिस्तरीय तंत्र (Three-tier Machinery) की स्थापना का प्रवधान है जिसमें जिला फोरम, राज्य कमीशन एवं राष्ट्रीय कमीशन सम्मिलित हैं। इसमें प्रत्येक जिला, राज्य एवं सर्वोच्च स्तर पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों के गठन का प्रावधान है।

  1. प्रसंविदा अधिनियम, 1982 (The Contract Act, 1982)- यह अधिनियम शर्ते निर्धारित करता है जिनके अनुसार किसी अनुबंध के पक्षों में जो वादे किए हैं उनको पूरा करने के लिए वे बाध्य होंगे। यह अधिनियम अनुबंध को तोड़ने पर इससे जुड़े पक्षों को उपलब्ध प्रतिकार का निर्धारण करता है।

  1. वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930 (The Sales of Goods Act, 1930)- यह अधिनियम क्रेताओं को उस स्थिति में कुछ संरक्षण प्रदान करता है जब उन्होंने जो वस्तुएँ खरीदी हैं वह घोषित अथवा गर्भित शर्त अथवा आश्वासन के अनुरूप न हों।

  1. आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (The Essential Commodities Act, 1955)- यह अधिनियम आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन, आपूर्ति एवं वितरण पर नियंत्रण, इनके मूल्यों की वृद्धि की प्रवृति को रोकने तथा इनके समान वितरण को सुनिश्चित करता है। इस कानून में अनुचित लाभ कमाने वाले जमाखोर एवं कालाबाजारियों की समाज विरोधी कार्यवाहियों के विरुद्ध कार्यवाही करने का भी प्रावधान है।

  1. कृषि उत्पाद (श्रेणीकरण एवं चिह्नांकन) अधिनियम, 1937 (The Agricultural Produce (Grading and Marketing) Act, 1937)- यह अधिनियम कृषि उत्पादों एवं पशुओं के लिए उत्पादों की श्रेणियों के मानक निर्धारित करता है। यह मानकों के उपयोग को शासित करने के लिए शर्ते तय करता है तथा कृषि उत्पादों के श्रेणीकरण, चिह्नांकन एवं पैकिंग के लिए प्रक्रिया भी तय करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत जो गुणवत्ता का चिह्न निर्धारित किया है उसे 'एगमार्क' कहते हैं जो कि कृषि विपणन का एक संक्षिप्त नाम है।

  1. खाद्य मिलावट अवरोध अधिनियम, 1954 (The Prevention of Food Adulteration Act, 1955)- यह अधिनियम खाद्य पदार्थों में मिलावट पर अंकुश लगाता है एवं जनसाधारण के स्वास्थ्य के हित में शुद्धता सुनिश्चित करता है।

  1. माप तौल मानक अधिनियम, 1976 (The Standard of Weights and Measures Act, 1976)- इस अधिनियम की धाराएँ उन वस्तुओं पर लागू नहीं होती हैं जिनका वजन, माप, संख्यानुसार विक्रय अथवा वितरण किया जाता है। यह उपभोक्ताओं को कम तौलने अथवा मापने के अनुचित आचरण के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है।

  1. ट्रेड मार्क अधिनियम, 1999 (The Trade Mark Act, 1999)- इस अधिनियम ने व्यापार एवं वाणिज्य चिह्न अधिनियम 1958 को समाप्त कर उसका स्थान ले लिया है। यह अधिनियम उत्पादों पर धोखा धड़ी वाले चिह्नों के उपयोग पर रोक लगाता है।

  1. प्रतियोगिता अधिनियम, 2002 (The Competition Act, 2002)- यह अधिनियम एकाधिकार एवं प्रतिरोध व्यापार व्यवहार अधिनियम, 1969 को भंग कर उसका स्थानापन्न करता है। यह अधिनियम व्यावसायिक इकाइयों द्वारा बाजार में प्रतियोगिता में अड़चनें डालने वाले कार्य करने पर उपभोक्ताओं को संरक्षण प्रदान करता है।

  1. भारतीय मानक ब्यूरो अधिनियम, 1986 (The Bureau of Indian Standard Act, 1986)- भारतीय मानक ब्यूरो की स्थापना इस अधिनियम के अंतर्गत की गई है। ब्यूरो की दो मुख्य क्रियाएँ हैं: वस्तुओं के लिए गुणवत्ता मानक निश्चित करना एवं बी.आई.एस. प्रमाणीकरण योजना के माध्यम से उनका प्रमाणीकरण करना। निर्माता अपने उत्पादों पर आई.एस.आई. (ISI) चिह्न तभी प्रयोग कर सकते हैं जब यह सुनिश्चित कर लिया जाए कि वस्तुएँ निर्धारित गुणवत्ता के मानकों के अनुरूप है। ब्यूरो ने एक शिकायत प्रकोष्ठ की भी स्थापना की है जहाँ उपभोक्ता उन वस्तुओं की गुणवत्ता की शिकायत कर सकते हैं जिन पर आई.एस.आई (ISI) चिह्न अंकित है।

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 (Consumer Protection Act, 1986):

  1. यह अधिनियम उपभोक्ता के हितों को उनकी शिकायतों के शीघ्र एवं बिना किसी व्यय के निवारण कर संरक्षण एवं प्रवर्तन की व्यवस्था करता है।

  1. अधिनियम का क्षेत्र बहुत व्यापक है। ये व्यावसायिक इकाइयाँ बड़ी हों अथवा छोटी, निजी क्षेत्र में हों अथवा सार्वजनिक क्षेत्र में अथवा सहकारी क्षेत्र में, उत्पादक हों अथवा व्यापारी तथा वस्तुओं की आपूर्ति करती हों अथवा सेवाएँ प्रदान करती हों यह सभी पर लागू होता है।

  1. यह अधिनियम उपभोक्ताओं को शक्ति प्रदान करने एवं उनके हितों की रक्षार्थ कुछ अधिकार प्रदान करता है।

  • (Main Provisions of Consumer Protection Act)

  1. उपभोक्ता की परिभाषा (Meaning of Consumer): उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अनुसार उपभोक्ता को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है:- 
  1. वह व्यक्ति जो प्रतिफल के बदले कोई माल खरीदता है जिसका भुगतान कर दिया हो अथवा भुगतान का वचन दिया हो अथवा उसका आंशिक भुगतान कर दिया हो तथा आशिक भुगतान का वचन दिया हो अथवा उसका भुगतान अस्थगित या निलंबित भुगतान विधि के अनुसार करने का वचन दिया हो।

  1. वह व्यक्ति जो प्रतिफल के बदले किन्हीं सेवाओं को भाड़े पर प्राप्त करता है या उपयोग करता है तथा जिसका भुगतान कर दिया हो अथवा करने का वचन दिया हो अथवा उसका आंशिक भुगतान कर दिया हो तथा आंशिक भुगतान का वचन दिया हो अथवा उसका भुगतान स्थगित या विलंबित विधि के अनुसार करने का वचन दिया हो। इसमें ऐसी सेवाओं से लाभान्वित होने वाला व्यक्ति भी सम्मिलित है, जिसने पहले वाले व्यक्ति की अनुमति से सेवाओं का उपयोग किया है लेकिन इसमें वह व्यक्ति सम्मिलित नहीं है जो इन सेवाओं को किसी व्यापार के उद्देश्य से प्राप्त करता है।

  1. शिकायत कौन कर सकता है? (Who can file complaint?)- किसी भी उपयुक्त उपभोक्ता फोरम के समक्ष शिकायत निम्न के द्वारा की जा सकती है:-
  1. कोई भी उपभोक्ता स्वयं शिकायत दर्ज करवा सकता है. इसके लिए उसे पेशेवर वकील की सेवाओं की आवश्यकता नहीं है।
  2. कोई पंजीकृत उपभोक्ता;
  3. केंद्रीय सरकार अथवा कोई भी राज्य सरकार;
  4. उन अनेक समान हित रखने वाले उपभोक्ताओं की ओर से कोई एक अथवा एक से अधिक उपभोक्ता एवं
  5. किसी मृतक उपभोक्ता के कानूनी उत्तराधिकारी अथवा प्रतिनिधि

  • उपभोक्ताओं के अधिकार (Consumers' Rights):

  1. सुरक्षा का अधिकार (Right to Safety)- उपभोक्ता को उन वस्तु एवं सेवाओं के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार है जो उसके जीवन एवं स्वास्थ्य के लिए खतरा हैं। उदाहरण के लिए जो बिजली उपकरण अवस्तरीय उत्पादों से बनाए जाते हैं अथवा जो सुरक्षा के मानकों के अनुरूप नहीं हैं, गंभीर रूप से चोट पहुँचा सकते हैं। इसलिए उपभोक्ताओं को शिक्षित किया जाता है कि वह आई.एस.आई. (ISI) मार्क बिजली उपकरणों का ही प्रयोग करें क्योंकि इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि यह उत्पाद गुणवत्ता के मापदंडों को पूरा कर रहा है।

  1. सूचना का अधिकार (Right to be Informed)- उपभोक्ता को उस वस्तु के संबंध में पूरी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है जिसका वह क्रय करना चाहता है जिसमें उसके घटक, निर्माण तिथि मूल्य, मात्रा, उपयोग के लिए दिशानिर्देश आदि सम्मिलित हैं। इसी कारण भारत में कानून निर्माताओं को सभी सूचनाएँ उत्पाद के पैकेज एवं लेबल पर देनी होती हैं।

  1. चयन का अधिकार (Right to Choose)- उपभोक्ता को प्रतियोगी मूल्य पर उपलब्ध विभिन्न उत्पादों में से चयन का अधिकार है । इसका अर्थ है कि विपणनकर्ताओं को अलग-अलग गुणवत्ता, ब्रांड मूल्य एवं आकार की वस्तुओं को बाजार में बिक्री हेतु लाना चाहिए तथा उपभोक्ता को इनमें से अपनी पसंद की वस्तु के चयन का अधिकार होना चाहिए।

  1. शिकायत का अधिकार (Right to Complaint)- उपभोक्ता यदि वस्तु एवं सेवा से संतुष्ट नहीं है तो उसे शिकायत दर्ज कराने तथा उसकी सुनवाई का अधिकार है। इसी के कारण कई समझदार व्यावसायिक इकाइयों ने अपने स्वयं के शिकायत एवं उपभोक्ता सेवा कक्ष की स्थापना कर ली है। कई उपभोक्ता संगठन भी इस दिशा में कार्य कर रहे हैं तथा उपभोक्ताओं को उनकी शिकायतें दूर करने में सहायता कर रहे हैं।

  1. क्षतिपूर्ति का अधिकार (Right to seek Redressal)- यदि वस्तु अथवा सेवा अपेक्षा के अनुरूप नहीं निकलती तो उपभोक्ता के पास उससे मुक्ति पाने का अधिकार है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में उपभोक्ता को कई प्रकार से क्षतिपूर्ति का प्रावधान है जैसे वस्तु को बदल देना, उत्पाद के दोषों को दूर करना, हानि अथवा क्षति पहुँचने पर उसकी पूर्ति करना आदि।

  1. उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार (Right to Consumer Education)- उपभोक्ता को पूरी सूचना प्राप्त करने का अधिकार है। उसे इसका ज्ञान होना चाहिए कि यदि वस्तु अथवा सेवा आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है तो उसकी किस प्रकार से क्षतिपूर्ति की जाएगी तथा उसके क्या अधिकार होंगे? कई उपभोक्ता संगठन एवं कुछ समझदार व्यवसाय इस संबंध में उपभोक्ताओं को शिक्षित करने में सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं।

  • उपभोक्ता के दायित्व (Consumers' Responsibilities):

  1. बाजार में उपलब्ध विभिन्न वस्तु एवं सेवाओं के संबंध में जानकारी रखना जिससे कि बुद्धिमत्तापूर्ण चुनाव किया जा सके।
  2. केवल मानक वस्तुओं को ही खरीदें क्योंकि यह गुणवत्ता का विश्वास दिलाता है। इसीलिए बिजली के सामान पर (ISI) चिह्न, उत्पादों पर (FPO) तथा आभूषणों पर (Hallmark) हॉलमार्क देखें।
  3. वस्तु एवं सेवाओं से जुड़ी जोखिमों के संबंध में जाने, निर्माता के दिशा निर्देशों का पालन करें तथा उत्पादों का ध्यान से उपयोग करें।
  4. मूल्य, शुद्ध वजन, उत्पादन एवं उपयोग करने योग्य अंतिम तिथि की सूचना के लिए लेबल को ध्यान से पढ़ें।
  5. यह सुनिश्चित करने के लिए कि आपके साथ सही व्यवहार हो अपनी दृढ़ता का परिचय दें।
  6. लेन-देन में ईमानदारी बरतें। केवल कानून सम्मत वस्तु एवं सेवाओं को ही खरीदें तथा कालाबाजारी, जमाखोरी जैसे अनुचित आचरणों को निरुत्साहित करें।
  7. वस्तु एवं सेवाओं के खरीदने पर नकद प्राप्ति रसीद माँगे।
  8. यदि क्रय की गई वस्तुओं अथवा सेवाओं की गुणवत्ता में कमी है तो उचित उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज कराएँ।
  9. उपभोक्ता परिषद् का गठन करें जो उपभोक्ता शिक्षण उनके हितों को सुरक्षित रखने में सक्रिय रूप से भाग लेंगे।
  10. पर्यावरण का ध्यान रखें। कूड़ा कचरा फैलाने एवं प्रदूषण फैलाने से बचें।

  • उपभोक्ता संरक्षण के तरीके एवं साधन (Ways and Means of Consumer Protection):

  1. व्यवसाय द्वारा स्वयं नियमन (Self Regulation by Business)- विकसित व्यावसायिक इकाइयाँ यह समझती हैं कि उपभोक्ताओं को भली-भाँति सेवा प्रदान करना उनके अपने दीर्घकालीन हित में है। सामाजिक उत्तरदायित्व को मापने वाली इकाइयाँ अपने ग्राहकों से लेन-देन करते समय नैतिक मानक एवं व्यवहार का पालन करती हैं। कई फर्मों ने अपने ग्राहक की शिकायत एवं समस्याओं के समाधान के लिए अपनी स्वयं की उपभोक्ता सेवा एवं शिकायत कक्षों की स्थापना की है।

  1. व्यावसायिक संगठन (Business Associations)- व्यापार, वाणिज्य एवं व्यवसाय संगठनों जैसे भारतीय वाणिज्य एवं औद्योगिक महासंघ (FICCI) एवं भारतीय उद्योगों का संगठन (CII) ने अपनी आचार संहिता बनायी हुई है जिनमें अपने सदस्यों के लिए दिशानिर्देश होते हैं कि वह अपने ग्राहकों से कैसे व्यवहार करें।

  1. उपभोक्ता जागरूकता (Consumer Awareness)- एक उपभोक्ता जो अपने अधिकार एवं उपलब्ध राहत के संबंध में भली-भाँति जानता है वह इस स्थिति में होगा कि किसी भी प्रकार के अनुचित आचरण अथवा आवांच्छनीय रूप से शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज उठा सके। इसके साथ-साथ यदि वह अपने दायित्वों को समझता है तो इससे वह अपने हितों की रक्षा कर सकेगा। इस संदर्भ में भारत सरकार द्वारा "जागो ग्राहक जागो" नामक जागरूकता मुहिम चलायी गयी है। जिसका उद्देश्य उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों एवं दायित्वों के प्रति सजग करना है।

  1. उपभोक्ता संगठन (Consumer Organisations)- उपभोक्ता संगठन उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के संबंध में शिक्षित करने तथा उन्हें संरक्षण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह संगठन व्यावसायिक इकाइयों को अनुचित आचरण एवं उपभोक्ताओं के शोषण से दूर रहने के लिए बाध्य कर सकते हैं।

  1. सरकार (Government)- सरकार विभिन्न कानून बना कर उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा कर सकती हैं। भारत के कानूनी ढाँचे में ऐसे कई कानून हैं जो उपभोक्ताओं को संरक्षण प्रदान करते हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कानून उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 है। इस कानून में उपभोक्ताओं की शिकायतों को दूर करने के लिए तीन स्तरीय तंत्र का प्रावधान है जो इस प्रकार हैं-जिला स्तर, राज्य स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर। इन त्रिस्तरीय तंत्र के अंतर्गत शिकायत निवारण पद्धति का नीचे वर्णन किया गया है।

  • उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत शिकायत निवारण एजेंसियाँ (Redressal Agencies under the Consumer Protection Act):

  1. जिला फोरम (District Forum)- भारत में जिला फोरम है. जिला फोरम में एक प्रधान तथा दो दूसरे सदस्य होते हैं जिनमें से एक महिला होनी चाहिए। इन सभी की नियुक्ति संबंधित राज्य सरकार करती है। शिकायत किसी भी उपयुक्त जिला फोरम के पास की जा सकती है यदि वस्तु एवं सेवाओं का मूल्य क्षतिपूर्ति के दावे को राशि सहित 20 लाख रुपए से अधिक नहीं है। शिकायत प्राप्ति के पश्चात् जिला फोरम शिकायत को उस पक्ष को भेजेगा जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है। यदि आवश्यक हुआ तो वस्तु अथवा उसके नमूने को परीक्षण हेतु प्रयोगशाला को भेजा जायेगा। जिला फोरम प्रयोगशाला से प्राप्त जाँच रिपोर्ट को ध्यान में रखकर तथा संबंध विरोधी पक्षकार का तर्क सुनकर आदेश पारित करेगा। यदि पीड़ित पक्षकार जिला फोरम के आदेश से संतुष्ट नहीं है तो वह आदेश पारित होने के पश्चात् तीस दिन के भीतर राज्य कमीशन के समक्ष अपील कर सकता है।

  1. राज्य कमीशन (State Commission)- भारत में 36 राज्य कमीशन हैं प्रत्येक राज्य स्तरीय आयोग में एक प्रधान तथा कम-से-कम दो सदस्य जिनमें एक महिला होनी चाहिए। इनकी नियुक्ति संबंद्ध राज्य सरकार करती है। उपयुक्त राज्य कमीशन को शिकायत की जा सकती है यदि वस्तु एवं सेवाओं का मूल्य क्षतिपूर्ति के दावे की राशि सहित 20 लाख रुपए से अधिक क हो लेकिन 1 करोड़ से अधिक न हो। जिला फोरम के आदेश के विरुद्ध अपील भी राज्य कमीशन के समक्ष की जा सकती है। शिकायत प्राप्ति के पश्चात् राज्य स्तरीय आयोग शिकायत को उस पक्षकार को भेजेगी जिसके विरुद्ध शिकायत की गई है। यदि आवश्यक हुआ तो वस्तु अथवा उसका नमूना प्रयोगशाला में परीक्षण हेतु भेजा जाएगा। राज्य कमीशन प्रयोगशाला की जाँच रिपोर्ट का अध्ययन कर तथा विरोधी पक्षकार का तर्क सुनकर आदेश पारित करेगा। यदि पीड़ित पक्ष राज्य कमीशन के आदेश से संतुष्ट नहीं है तो वह आदेश के पश्चात् 30 दिन के भीतर राष्ट्रीय कमीशन के समक्ष अपील कर सकता है।

  1. राष्ट्रीय कमीशन (National Commission)- राष्ट्रीय कमीशन के अधिकार क्षेत्र में पूरा देश आता है। राष्ट्रीय कमीशन का एक प्रधान होता है तथा कम से कम चार दूसरे सदस्य होते हैं जिनमें से एक महिला होनी चाहिए। इनकी नियुक्ति केंद्रीय सरकार करती है। राष्ट्रीय कमीशन में शिकायत भी की जा सकती है जबकि वस्तु एवं सेवाओं का मूल्य क्षतिपूर्ति के दावे की राशि सहित 1 करोड़ रुपए से अधिक हो। राष्ट्रीय कमीशन के समक्ष राज्य कमीशन के आदेश के विरुद्ध भी अपील की जा सकती है। राष्ट्रीय कमीशन शिकायत का विरोधी पक्षकार को भेजेगा। यदि आवश्यक हुआ तोवस्तु अथवा उसके नमूने को प्रयोगशाला में परीक्षण हेतु भेजा जाएगा। प्रयोगशाला की जाँच रिपोर्ट का अध्ययन तथा विरोधी पक्षकार का तर्क सुनकर पारित करेगा।

राष्ट्रीय कमीशन द्वारा पारित आदेश उसके मूल अधिकार क्षेत्र में आता है तथा इसकी अपील उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है। इसका अर्थ हुआ कि केवल तब ही अपील भारत के उच्चतम न्यायालय में की जा सकती है जबकि वस्तु एवं सेवाओं का मूल्य क्षतिपूर्ति के दावे की राशि को मिलाकर । करोड़ रुपए से अधिक हो तथा पीड़ित पक्षकार राष्ट्रीय कमीशन के आदेश से संतुष्ट नहीं हो। जिस मामले पर फैसला जिला फोरम ने लिया है उसकी अपील राज्य स्तरीय आयोग के समक्ष की जा सकती है उसके पश्चात् राज्य आयोग के आदेश को राष्ट्रीय आयोग के समक्ष चुनौती दी जा सकती है लेकिन उसके पश्चात् कोई विकल्प नहीं है।

  • उपलब्ध राहत (Available Remedies): उपभोक्ता अदालत यदि शिकायत की यथार्थता से संतुष्ट है तो यह विरोधी पक्ष को निम्न में से एक अथवा एक से अधिक निर्देश दे सकती है।

  1. वस्तु के दोष अथवा सेवा में कमी को दूर करना।
  2. दोषपूर्ण वस्तुओं के स्थान पर दोषमुक्त नयी वस्तु देना।
  3. वस्तु अथवा सेवाओं के लिए किए गए भुगतान की वापसी करना।
  4. विरोधी पक्ष की लापरवाही के कारण उपभोक्ता को होने वाली हानि अथवा चोट के लिए क्षतिपूर्ति के रूप में उचित राशि का भुगतान करना।
  5. उचित परिस्थितियों में दंडस्वरूप क्षति का भुगतान करना।
  6. अनुचित या प्रतिबंधित व्यापारिक क्रियाओं को रोकना तथा उनकी पुनरावृत्ति न होने देना।
  7. खतरनाक वस्तुओं की बिक्री न करना।
  8. विक्रय के लिए रखी गई हानिकारक वस्तुओं को वापस लेना।
  9. खतरनाक वस्तुओं का उत्पादन नहीं करना तथा हानिकारक सेवाएँ प्रदान करने से बचना।
  10. कोई राशि (जो कि दोषपूर्ण वस्तु अथवा अपर्याप्त सेवाओं के मूल्य के 5 प्रतिशत से कम न हो) का भुगतान करना जो कि उपभोक्ता कल्याण कोष अथवा अन्य किसी संगठन/व्यक्ति के पास जमा की जाए जिसका प्रयोग निर्धारित रूप में हो।
  11. गुमराह करने वाले विज्ञापन के प्रभाव को समाप्त करने के लिए संशोधित विज्ञापन जारी करना।
  12. उचित पक्ष को पर्याप्त लागत का भुगतान करना। प्रदर्श में कुछ ऐसे मामले से संबंधित फैसले दिए हैं जिनमें उपभोक्ता अदालत में दोषपूर्ण वस्तु एवं अपर्याप्त सेवाओं के विरुद्ध शिकायत की गई थी।

  • उपभोक्ता संगठनों एवं गैर सरकारी संगठनों की भूमिका (Role of Consumer Organisations and Non Governmental Organisations) कुछ महत्त्वपूर्ण उपभोक्ता संगठन एवं गैर-सरकारी संघटन (NGOS) उपभोक्ताओं के हितों को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं अथवा उनका प्रवर्तन कर रहे हैं वे निम्नलिखित हैं:-

  1. उपभोक्ता समंवय परिषद्, दिल्ली।
  2. कॉमन कॉज, दिल्ली।
  3. उपभोक्ता शिक्षण हितार्थ स्वयंसेवी संगठन (VOICE), दिल्ली।
  4. उपभोक्ता शिक्षण एवं अनुसंधान केंद्र (CERC). अहमदाबाद।
  5. उपभोक्ता संरक्षण परिषद (CPC), अहमदाबाद।
  6. कंज्यूमर गाइडेंस सोसाइटी ऑफ इंडिया, (CGSI) मुंबई।
  7. मुंबई ग्राहक पंचायत, मुंबई।
  8. कर्नाटक उपभोक्ता सेवा समिति, बैंगलोर।
  9. उपभोक्ता संगठन, कोलकाता।
  10. कंज्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट सोसाइटी, (CUTS) जयपुर

उपभोक्ता संगठन एवं गैर सरकारी संगठन उपभोक्ताओं के हितों की रक्षार्थ निम्नलिखित कार्य करते हैं:-

  1. प्रशिक्षण कार्यक्रम, सेमिनार एवं कार्यशालाओं का आयोजन कर जनसाधारण को उपभोक्ताओं के अधिकारों के संबंध में शिक्षित करना।
  2. उपभोक्ता की समस्याओं, कानूनी रिपोर्ट देना, राहत तथा हित में कार्यों के संबंध में ज्ञान प्रदान करने के लिए पाक्षिक एवं अन्य प्रकाशनों का प्रकाशन करना।
  3. प्रतियोगी ब्रांड के गुणों की तुलनात्मक जाँच के लिए प्रमाणित प्रयोगशालाओं में उपभोक्ता उत्पादों की जाँच कराना तथा उपभोक्ताओं के लाभ के लिए इनके परिणामों को प्रकाशित करना।
  4. बेईमान, शोषणकर्ता एवं अनुचित व्यापारिक क्रिया करने वाले विक्रेताओं का प्रतिवाद करना एवं उनके विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए उपभोक्ताओं को प्रोत्साहित करना।
  5. सहायता प्रदान कर, कानूनी सलाह देकर कानूनी निदान के लिए उपभोक्ता को कानूनी सहायता प्रदान करना।
  6. उपभोक्ताओं की ओर से उपयुक्त उपभोक्ता अदालत में शिकायत दर्ज कराना।
  7. उपभोक्ता अदालतों में किसी व्यक्ति के हित में नहीं बल्कि जनसाधारण के हित में मुकदमा करने में पहल करना।