Class 12th व्यवसाय अध्ययन

(Business Studies)

Chapter 7

निर्देशन (Directing)

  • निर्देशन का अर्थ (Meaning of Directing):-

निर्देशन का अर्थ निर्देश देने तथा व्यक्तियों के कार्य में मार्गदर्शन करने से है। संगठन के प्रबंधन के संदर्भ में, निर्देशन व्यक्तियों को आदेश देने, मार्गदर्शन, परामर्श, अभिप्रेरित तथा कुशल नेतृत्व प्रदान करने की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति है।

  • निर्देशन की विशेषता (Features of Directing):-

  1. निर्देशन क्रिया को प्रारंभ करती है (Directing Initiates Action): निर्देशन एक मुख्य प्रबंधकीय कार्य है। एक प्रबंधक को इसका निष्पादन अन्य क्रियाएँ जैसे-नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण तथा नियंत्रण इत्यादि के साथ ही संगठन में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए करना पड़ता है। जहाँ अन्य कार्य, क्रिया के प्रारंभ होने से पूर्व की तैयारी से संबंधित हैं, वहाँ निर्देश संगठन में क्रिया को प्रारंभ करता है।

  1. निर्देशन प्रबंधन के प्रत्येक स्तर पर निष्पादित होता है (Directing Takes Place at Every Level of Management): प्रत्येक प्रबंधक, उच्च अधिकारी से लेकर पर्यवेक्षक तक निर्देशन क्रिया का निष्पादन करते हैं। जहाँ भी अधिकारी-अधीनस्थ संबंध हैं, वहाँ निर्देशन की प्रक्रिया स्वतः होती है।

  1. निर्देशन एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है (Directing is a Continuous Process): निर्देश एक सतत् क्रिया है। संगठन के पूरे कार्यकाल में चलने वाली प्रक्रिया है। क्योंकि बिना निर्देशन के संगठनिक क्रियाएँ आगे नहीं चल सकती।

  1. निर्देशन ऊपर से नीचे की तरफ प्रवाहित होता है (Directing Flows From Top to Bottom): निर्देशन पहले उच्च स्तर पर प्रारंभ होता है तथा फिर वह संगठनिक अनुक्रम के द्वारा नीचे की दिशा में प्रवाहित होता है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक प्रबंधक अपने निकटतम अधीनस्थ को निर्देशित कर सकता है तथा अपने ऊपर के अधिकारी से आदेश लेता हैं।

  • निर्देशन का महत्त्व (Importance of Directing):-

  • संगठन में व्यक्तियों के कार्य को प्रारंभ करने में निर्देशन सहायता करता है। जो संस्था के वांछित उद्देश्य की पूर्ति हेतु किए जाते हैं।

  • निर्देशन संगठन में कर्मचारियों के व्यक्तिगत प्रयासों को इस प्रकार समाकलित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति के कार्य का योगदान संस्था के निष्पादन में तथा सफलता में होता है।

  • निर्देशन कर्मचारियों का मार्गदर्शन करता है जिससे वह अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं का पूर्ण: प्रयोग कर सकें। इसके लिए निर्देशन उन्हें प्रोत्साहित करता है तथा प्रभावपूर्ण नेतृत्व भी प्रदान करता है।

  • निर्देशन संगठन में आवश्यक परिवर्तनों को प्रारंभ करने में मदद करता है।

  • सामान्य लोगों की यह प्रवृत्ति होती है कि वे संस्था में नए परिवर्तनों का विरोध करते हैं। अभिप्रेरणा के द्वारा प्रभावी निर्देशन, संप्रेषण तथा नेतृत्व सहायता करता है। ऐसे प्रतिरोधों को कम करने में तथा नए परिवर्तनों को संस्था में प्रारंभ करने में आवश्यक सहयोग के विकास में भी सहायक है।

  • प्रभावी निर्देशन संस्था में स्थिरता तथा संतुलन बनाए रखने में भी सहायता प्रदान करता है क्योंकि यह आपसी सहयोग तथा प्रतिबद्धता को लोगों के बीच बढ़ाता है तथा विभिन्न समूहों, क्रियाओं तथा विभागों के मध्य संतुलन बनाए रखने में भी सहायक है।

  • निर्देशन के सिद्धांत (Principles of Directing):-

  1. अधिकतम व्यक्तिगत योगदान (Maximum Individual Contribution): यह सिद्धांत इस पर बल देता है कि निर्देशन की तकनीकें सभी व्यक्तियों को संस्था में सहायता दें कि वे अपनी संभावित क्षमताओं का अधिकतम योगदान संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति में दे सकें। यह संस्था के कुशल निष्पादन के लिए कर्मचारियों की अप्रयुक्त ऊर्जा को उभार कर प्रयोग में लाता हैं।

  1. संगठन के उद्देश्यों में ताल-मेल (Harmony of Objectives): प्रायः हम पाते हैं कि कर्मचारियों के व्यक्तिगत उद्देश्यों तथा संगठन के उद्देश्यों में आपस में द्वंद होता है। संस्था कर्मचारियों से यह अपेक्षा करती है कि वे अपनी उत्पादकता बढ़ाएँ ताकि वांछित लाभ हो सके। परंतु अच्छा निर्देशन इन दोनों में तालमेल बिठाता है तथा कर्मचारी को यह विश्वास दिलाता है कि कार्यकुशलता तथा पारिश्रमिक दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

  1. आदेश की एकता (Unity of Command): यह सिद्धांत इस पर बल देता है कि कर्मचारी को केवल एक ही उच्च अधिकारी से आदेश मिलने चाहिए। यदि आदेश एक से अधिक अधिकारियों से मिलते हैं, तो यह भ्राति पैदा करते हैं तथा संस्था में द्वंद्व तथा अव्यवस्था फैलाते हैं। 'आदेश की एकता' सिद्धांत के पालन से प्रभावी निर्देशन निश्चित होता है।

  1. निर्देश तकनीकों की उपयुक्तता/ औचित्य (Appropriateness of Direction Technique): इस सिद्धांत के अनुसार, निर्देशन उपयुक्त अभिप्रेरणा तथा नेतृत्व की तकनीकों का प्रयोग करते समय कर्मचारियों की आवश्यकताओं, योग्यताओं, उनके दृष्टिकोण तथा अन्य वस्तु स्थितियों का ध्यान रखना चाहिए।

  1. प्रबंधकीय संप्रेषण (Managerial Communication): संस्था के सभी स्तरों पर प्रभावी प्रबंधकीय संप्रेषण निर्देशन को भी प्रभावपूर्ण बनाता है। अधीनस्थों की संपूर्ण पारस्परिक समझ को बनाने के लिए निर्देशक को स्पष्ट अनुदेश/ निर्देश जारी करने चाहिए। उपयुक्त प्रतिपुष्टि के द्वारा, प्रबंधकों को यह निश्चित करना चाहिए कि अधीनस्थ उसके निर्देश को स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं।

  1. अनौपचारिक संगठन का प्रयोग (Use of Informal Organisation): एक प्रबंधक को यह समझना चाहिए कि प्रत्येक औपचारिक संगठन के अंतर्गत ही अनौपचारिक समूह तथा संगठन पाए जाते हैं। उसे उन्हें पहचान कर उन संगठनों का समुचित प्रयोग एक प्रभावी निर्देशन के लिए करना चाहिए।

  1. नेतृत्व (Leadership): कर्मचारियों का निर्देशन करते समय, प्रबंधक को एक अच्छे नेतृत्व का प्रदर्शन करना चाहिए क्योंकि यह अधीनस्थों को बिना उनके बीच किसी असंतोष की भावना के सकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।

  1. अनुसरण करना (Follow Through): केवल आदेश देना ही पर्याप्त नहीं है। प्रबंधक को निरंतर पुनरीक्षण के द्वारा अनुसरण करना चाहिए कि उनके आदेशों का यथावत् पालन हुआ है कि नहीं अथवा उन्हें किन्हीं कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। यदि आवश्यक हो, तो उपयुक्त संशोधन/परिवर्तन इस दिशा में किए जाने चाहिए।

  • निर्देशन के तत्व (Elements of Directing):-

निर्देशन की प्रक्रिया में मार्गदर्शन, परामर्श, निर्देश, अभिप्रेरणा तथा संस्था में कर्मचारियों का नेतृत्व वह सभी संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सम्मिलित हैं। इन्हें विस्तृत रूप से चार वर्गों में बाँटा जा सकता है जिन्हें निर्देशन के तत्व कहते हैं। ये तत्व हैं-

  1. पर्यवेक्षण
  2. अभिप्रेरणा
  3. नेतृत्व
  4. संप्रेषण

  • पर्यवेक्षण (Supervision):-

'पर्यवेक्षण' शब्द को दो प्रकार से समझा जा सकता है। प्रथमतः इसे निर्देशन के एक तत्व के रूप में समझा जा सकता है, दूसरा संस्था के क्रम श्रृंखला में पर्यवेक्षकों द्वारा किए गए एक कार्य निष्पादन के रूप में।

  • पर्यवेक्षण के महत्त्व (Importance of Supervision):-

  • पर्यवेक्षक प्रतिदिन कर्मचारियों के संपर्क में रहता है तथा उनसे मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखता है। एक अच्छा पर्यवेक्षक श्रमिकों के लिए मार्गदर्शक, मित्र तथा एक दार्शनिक के रूप में कार्य करता है।

  • पर्यवेक्षक प्रबंधक तथा श्रमिकों के मध्य एक कड़ी के रूप में कार्य करता है। वह एक तरफ श्रमिकों के प्रबंधक के विचारों को बताता है तथा दूसरी तरफ श्रमिकों की समस्याओं के प्रबंधक के सामने रखता है। पर्यवेक्षक द्वारा निभाई गई यह भूमिका प्रबंध तथा कर्मचारियों/ श्रमिकों के बीच किसी भी गलतफहमी को नहीं आने देता तथा उनके मध्य किसी प्रकार के द्वंद से भी बचाव करती है।

  • पर्यवेक्षक अपने अधीनस्थ श्रमिकों में जो उसके नियंत्रण में हैं उनसे सामूहिक एकता को बनाए रखने में एक मुख्य भूमिका निभाता है। वह आंतरिक मतभेदों को निपटाता है तथा श्रमिकों में तालमेल बिठाकर रखता है।

  • पर्यवेक्षक निर्धारित लक्ष्यों के अनुसार कार्य का निष्पादन सुनिश्चित करता है। वह कार्य पूरा करने का उत्तरदायित्व लेता है तथा अपने श्रमिकों को प्रभावपूर्ण तरीके से अभिप्रेरित करता है।

  • पर्यवेक्षक कार्यस्थल/पद कार्य पर ही कर्मचारियों तथा श्रमिकों को प्रशिक्षित करता है। एक कुशल तथा ज्ञानवान पर्यवेक्षक ही कार्य कुशल श्रमिकों का दल तैयार कर सकता है।

  • पर्यवेक्षक नेतृत्व संगठन के श्रमिकों को प्रभावित करने में एक मुख्य भूमिका निभाता है। एक पर्यवेक्षक जिसमें अच्छे नेतृत्व के गुण हैं वह अपने श्रमिकों के मध्य उच्च मनोवृत्ति का विकास कर सकता है।

  • एक अच्छा पर्यवेक्षक कार्य निष्पादन का विश्लेषण करता है तथा अपनी सलाह अथवा प्रतिपुष्टि (फीडबैक) श्रमिकों को देता है। वह कार्यकुशलता के विकास के लिए उन्हें सुझाव तथा तरीके भी बताता है।

  • अभिप्रेरणा (Motivation):-

अभिप्रेरण एक जटिल बल है जो कार्य प्रारंभ करने तथा संगठन में व्यक्तियों को कार्यरत रखने का कार्य करती हैं। अभिप्रेरणा वह है जो व्यक्तियों को कार्य प्रारंभ करने के लिए तैयार करती है तथा निरंतर कार्य करने के लिए भी प्रेरित करती है जो कार्य पहले ही प्रारंभ हो चुका है। अभिप्रेरणा के विषय में चर्चा करते समय, यह आवश्यक है कि हम तीन परस्पर संबंधित शब्दों को समझे - उद्देश्य/लक्ष्य, अभिप्रेरणा तथा अभिप्रेरक।

  1. उद्देश्य (Motive): उदेश्य एक आंतरिक स्थिति है जो व्यवहार को ऊर्जित, सक्रिय बनाती है तथा लक्ष्यों की पूर्ति के लिए दिशा निर्देशित करती है। उद्देश्य मनुष्य की आवश्यकताओं से उत्पन्न होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति मनुष्य में एक बेचैनी पैदा करती है जो उसे उस बेचैनी को कम करने के लिए कुछ क्रिया करने के लिए तत्पर करती है।
  2. अभिप्रेरणा (Motivation): अभिप्रेरणा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों को, वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित किया जाता है। अभिप्रेरणा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की संतुष्टि पर निर्भर करती है।

  1. अभिप्रेरक (Motivators): अभिप्रेरक वह तकनीक है जिसका प्रयोग संगठन में लोगों को प्रेरित करने के लिए किया जाता है। प्रबंधक विविध प्रेरकों का प्रयोग करते हैं जैसे- वेतन, बोनस, पदोन्नति पहचान प्रशंसा, उत्तरदायित्व इत्यादि का संगठन में लोगों के व्यवहार को प्रभावित करने के लिए किया जाता है ताकि वे अपना सर्वोत्तम योगदान दे सके।

  • विशेषता (Features):-

  • अभिप्रेरणा एक आंतरिक अनुभव है। आवेग, प्रवृत्ति, इच्छाएँ आकांक्षाएँ, प्रयास तथा मनुष्य की आवश्यकता है, जो की आंतरिक हैं, मनुष्य के व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

  • अभिप्रेरणा एक लक्ष्य आधारित व्यवहार को जन्म देती है। उदाहरण के लिए, एक कर्मचारी को पदोन्नति उसके निष्पादन को सुधारने के उद्देश्य से दी जा सकती है। यदि कर्मचारी को उस पदोन्नति में रुचि है, तो वह ऐसे व्यवहार को उत्पन्न करती है जो उसकी कार्य निष्पादन में सुधार लाती है।

  • अभिप्रेरणा सकारात्मक अथवा नकारात्मक दोनों ही प्रकार की हो सकती है। सकारात्मक अभिप्रेरणा सकारात्मक पारिश्रमिक/प्रतिफल प्रदान करता है जैसे- वेतन में बढ़ोतरी, (वृद्धि) पदोन्नति, पहचान इत्यादि, नकारात्मक अभिप्रेरणा नकारात्मक तरीकों का प्रयोग करती है जैसे-सजा, वेतन वृद्धि रोकना, धमकी देना इत्यादि।

  • अभिप्रेरणा एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि मनुष्यों की अपेक्षाओं में विविधता है, उनके अवरोधन तथा प्रक्रिया में भी भिन्नता होती है। किसी प्रकार की अभिप्रेरणा का सब पर एक जैसा प्रभाव पड़े यह कोई आवश्यक नहीं है।

  • अभिप्रेरणा का महत्व (Importance of Motivation):-

  • अभिप्रेरणा कर्मचारियों के निष्पादन स्तर के सुधार के साथ-साथ संगठन के सफल निष्पादन में सहायक है। क्योंकि उपयुक्त अभिप्रेरणा कर्मचारियों की आवश्यकताओं को संतुष्ट करती है, वे अपनी सारी ऊर्जा अपने कार्य निष्पादन पर केंद्रित करते हैं।
  • अभिप्रेरणा कर्मचारियों के नकारात्मक अथवा उनके निष्क्रिय तटस्थ दृष्टिकोण (अभिवृत्ति) को संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु उनके सकारात्मक रूपांतरण मे सहायक हैं।
  • अभिप्रेरणा संगठन को अनुपस्थिति को भी कम करने में सहायक है। अनुपस्थिति के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं- अनुपयुक्त बुरी कार्य- स्थितियाँ, अपर्याप्त पारिश्रमिक, प्रतिफल, पहचान प्रतिष्ठा का अभाव, पर्यवेक्षकों के साथ बुरे संबंध तथा सहकर्मी इत्यादि।
  • अभिप्रेरणा कर्मचारियों के संस्था को छोड़ कर जाने की दर को कम करती है तथा इससे नयी नियुक्ति तथा प्रशिक्षण लागत में बचत होती है।
  • अभिप्रेरणा प्रबंधकों को नए परिवर्तनों को प्रारंभ करने में बिना लोगों के विरोध के सहायता देती है।

  • मास्लो की आवश्यकता-क्रम अभिप्रेरणा का सिद्धांत (Maslow's Need Hierarchy Theory of Motivation):-

अब्राहम मास्लो, एक विख्यात मनोवैज्ञानिक, जिनका एक उत्कृष्ट लेख 1943 में प्रकाशित हुआ था, उन्होंने समग्र अभिप्रेरणा के सिद्धांत के तत्वों की रूपरेखा संक्षेप में दी है।

उनका सिद्धांत मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित था। उनका अनुभव था कि प्रत्येक मनुष्य के अंदर पाँच प्रकार की आवश्यकताएँ क्रमानुसार होती हैं। वे हैं-

  1. आधारभूत शारीरिक आवश्यकता (Basic Physiological Needs): ये आवश्यकताएँ क्रम में सबसे अधिक आधारभूत है तथा मनुष्य की प्रथमतः आवश्यकताएँ हैं- भूख, प्यास, छत, नीद तथा काम  इत्यादि कुछ इस प्रकार की आवश्यकताओं के उदाहरण हैं। संगठन के संदर्भ में आधारिक वेतन इन सभी आवश्यकताओं की संतुष्टि करती है।
  2. सुरक्षा आवश्यकताएँ (Safety/Security Needs): ये आवश्यकताएँ सुरक्षा तथा किसी भी शारीरिक तथा मनोवेगों की क्षति से बचाव प्रदान करती है। उदाहरण-पद में सुरक्षा, आय स्रोत में स्थिरीकरण/नियमितता, सेवानिवृत्ति योजना, पेंशन इत्यादि।
  3. संस्था से जुड़ाव/संस्था से संबंध (Affiliatetion/Belonging Needs): ये आवश्यकताएँ स्नेह, संस्था से संबंध, स्वीकृति अथवा मित्रता जैसे भावों से संबंधित हैं।
  4. मान-सम्मान (प्रतिष्ठा) आवश्यकता (Esteem Needs): यह उन कारकों को सम्मिलित करती है जैसे-आत्म-सम्मान, पद-स्वायत्तता, पहचान तथा ध्यान, आदर-सत्कार इत्यादि।
  5. आत्म-संतुष्टि आवश्यकता (Self Actualisation): यह आवश्यकता क्रम श्रृंखला में सबसे उच्च स्तरीय आवश्यकता है। यह उस भावना/आवेग को बताती है जो किसी के अंदर उस विद्यमान योग्यता की जो वह बन सकता है। ये आवश्यकताएँ विकास, आत्म संतुष्टि तथा उद्देश्यों की पूर्ति को सम्मिलित करती हैं।

मास्लो का सिद्धांत निम्नलिखित संकल्पनाओं पर आधारित है-

  • व्यक्तियों का व्यवहार उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति के आधार पर निर्भर करता है जो उनके व्यवहार को प्रभावित करती है।
  • लोगों की आवश्यकताएँ एक क्रम शृंखला में होती हैं आधारभूत आवश्यकताओं से प्रारंभ होकर अन्य उच्च स्तरीय आवश्यकताओं तक।
  • एक आवश्यकता की पूर्ति होते ही उस व्यक्ति के लिए वह अभिप्रेरणा का स्रोत नहीं रहती, केवल अगले क्रम की आवश्यकता ही उन्हें अभिप्रेरणा कर सकती हैं।
  • एक व्यक्ति क्रम में अगले उच्चतर स्तर की आवश्यकता तभी अनुभव करता है जब उसके निचले स्तर की आवश्यकता की संतुष्टि हो जाती है।

  • वित्तीय तथा गैर वित्तीय प्रोत्साहन (Financial and Non-Financial Incentives):-

प्रोत्साहन से तात्पर्य उन सभी उपायों से है जिनका प्रयोग व्यक्तियों को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाता है जिससे उनके कार्य निष्पादन में सुधार हो। इन प्रोत्साहनों को दो विस्तृत वर्गों में बाँटा जा सकता है-वित्तीय तथा गैर-वित्तीय।

  • वित्तीय प्रोत्साहन (Financial Incentives):-

वित्तीय प्रोत्साहन वे प्रोत्साहन हैं जो प्रत्यक्ष रूप में वित्त के रूप में हैं अथवा जिन्हें वित्त के रूप में मापा जा सकता है तथा ये कर्मचारियों के बेहतर निष्पादन के लिए एक उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। उनका उल्लेख नीचे किया गया है -

  1. वेतन तथा भत्ता (Pay and allowances)- प्रत्येक कर्मचारी के लिए, वेतन एक आधारिक वित्तीय प्रोत्साहन है। इसमें आधारभूत वेतन, महंगाई भत्ता तथा अन्य भत्ते शामिल हैं। प्रति वर्ष वेतन वृद्धि तथा समय-समय पर भत्तों में बढ़ोतरी वेतन व्यवस्था में सम्मिलित हैं।

  1. उत्पादकता संबंधित पारिश्रमिक/मजदूरी प्रोत्साहन (Productivity linked Wage Incentives)- बहुत-सी पारिश्रमिक प्रोत्साहन योजनाओं का लक्ष्य पारिश्रमिक का भुगतान को उनकी व्यक्तिगत सामूहिक स्तर की उत्पादकता के साथ जोड़कर उनकी उत्पादकता को बढ़ाना है।

  1. बोनस /अधिलाभांश (Bonus)- बोनस वह प्रोत्साहन है जो कर्मचारियों को उनकी मजदूरी/वेतन के ऊपर अथवा अतिरिक्त दिया जाता है।

  1. लाभ में भागीदारी (Profit Sharing)- लाभ में भागीदारी का अर्थ कर्मचारियों को संगठन के लाभ में उनका हिस्सा देना है। यह कर्मचारियों को अपना निष्पादन सुधारने की प्रेरणा देता है ताकि वे लाभ बढ़ाने में अपना अधिकतम योगदान दे सकें।

  1. सह-साझदारी/स्कंध (स्टॉक) विकल्प (Co-Partnership/Stock Option)- इन प्रोत्साहन योजनाओं के अंतर्गत, कर्मचारियों को एक निर्धारित कीमत पर कंपनी के शेयर दिए जाते हैं जो बाजार की कीमत से कम होते हैं कुछ स्थितियों में, प्रबंध विभिन्न प्रोत्साहन जो नकद में दिए जाने हैं, उनकी जगह उन्हें शेयर भी आबंटित कर सकती है।

  1. सेवानिवृत्ति लाभ (Retirement Profits)- बहुत से सेवानिवृत्ति लाभ जैसे भविष्य निधि, निवृत्तिका (पेंशन) तथा आनुतोषिक (ग्रेच्युटी) इत्यादि सेवानिवृत्ति के बाद कर्मचारियों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करते हैं यह उस समय भी एक प्रोत्साहन का कार्य करती है जब वह संस्था में कार्यरत/सेवा में होते हैं।

  1. अनुलाभ/पर्क्विजिट (Perquisites)- बहुत-सी कंपनियों में अनुलाभ तथा फ्रिंज लाभ दिए जाते हैं जैसे- कार भत्ता की सुविधा, चिकित्सा सहायता तथा बच्चों के लिए शिक्षा इत्यादि। ये वेतन के अतिरिक्त लाभ है। ये उपाय कर्मचारियों एवं प्रबंधकों दोनों को ही अभिप्रेरित करते हैं।

  • गैर-वित्तीय प्रोत्साहन (Non-Financial Incentives):-

  1. पद प्रतिष्ठा/ओहदा (Status)- संगठनिक संदर्भ में, पद का अर्थ संस्था में पदों के क्रम सं है। सत्ता, उत्तरदायित्व, प्रतिफल, पहचान, अनुलाभ तथा पद प्रतिष्ठा इत्यादि किसी व्यक्ति के प्रबंधकीय पद पर होने के परिचायक हैं। मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा मान-सम्मान/प्रतिष्ठा संबंधित आवश्यकताएँ मनुष्य की पद को दी गई प्रतिष्ठा तथा सत्ता द्वारा पूरी होने के परिचायक हैं।

  1. संगठनिक वातावरण (Organisation Climate)- संगठनिक वातावरण वह है जो किसी भी संस्था का विवरण देती है तथा एक संस्था को दूसरी संस्था से भिन्न करती है। ये विशेषताएँ संस्था में कर्मचारियों के व्यवहार को प्रभावित करती हैं इनमें से कुछ विशेषताएँ हैं- व्यक्तिगत स्वतंत्रता, पारिश्रमिक अभिविन्यास, कर्मचारियों का ध्यान रखना, जोखिम उठाना इत्यादि।

  1. जीवन वृत्ति विकास के सुअवसर (Career Advancement Opportunity)- प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह संस्था में उच्च स्तर तक पहुँचे। प्रबंधकों को यह सुअवसर कर्मचारियों को देना चाहिए कि वे अपने कौशलों को सुधार सके तथा उन्हें उच्च स्तरीय पदों पर नियुक्ति अथवा पदोन्नति मिल सके। उपयुक्त दक्षता-विकास कार्यक्रम तथा ठोस पदोन्नति नीति कर्मचारियों को पदोन्नति पाने में सहायता करती है।

  1. पद संवर्धन (Job enrichment)- पद संवर्धन का संबंध उन कार्यों की रूपरेखा तैयार करना है जिसमें विविध प्रकार के कार्य-अंश सम्मिलित हैं, उच्च स्तरीय ज्ञान तथा कौशल की आवश्यकता है, कर्मचारियों को अधिक स्वायत्तता देती है तथा उत्तरदायित्व सौंपती है। व्यक्तिगत विकास के सुअवसर प्रदान करती है तथा एक अर्थपूर्ण कार्य-अनुभव देती है।

  1. कर्मचारियों को पहचान/मान- सम्मान देने संबंधित कार्यक्रम (Employee Recognition Programme)- अधिकतर व्यक्ति चाहते हैं कि उनके कार्य का मूल्यांकन हो तथा उन्हें उपयुक्त पहचान मिले। वे ऐसा अनुभव करते हैं कि उनसे संबंधित अन्य लोगों के द्वारा उन्हें स्वीकृति मिले।

  1. पद-सुरक्षा/स्थायित्व (Job Security)- कर्मचारी चाहते हैं कि उनका पद सुरक्षित रहे। उन्हें अपने भविष्य की आय तथा कार्य दोनों के लिए निश्चित स्थिरता/स्थायित्व चाहिए ताकि उन्हें इन पक्षों पर चिंता न हो तथा अपना कार्य बड़े उत्साह से कर सकें।

  1. कर्मचारियों की भागीदारी (Employee Participation)- इसका अर्थ है कर्मचारियों से संबंधित निर्णय लेने में उन्हें शामिल करना। बहुत सारी कंपनियों में इस प्रकार के कार्यक्रम, संयुक्त प्रबंध समिति, कार्य समिति, जलपानगृह समिति इत्यादि के रूप में व्यवहार में कार्यान्वित हैं।

  1. कर्मचारियों का सशक्तिकरण (Employee powerment)- सशक्तिकरण का अर्थ-अधीनस्थों को अधिक स्वायत्तता तथा सत्ता देना। सशक्तिकरण लोगों को यह अहसास दिलाता है कि उनका कार्य महत्वपूर्ण है। इस प्रकार की भावना कार्य निष्पादन में कौशल तथा प्रतिभा का प्रयोग करने में सकारात्मक रूप से योगदान देती हैं।

  • नेतृत्व (Leadership):-

नेतृत्व व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करने की वह प्रक्रिया है, जो उन्हें स्वत-ही संगठनिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए प्रतिस्पर्धित करती है। नेतृत्व संकेत करती है किसी व्यक्ति की उस योग्यता को जो अनुयायियों के मध्य अच्छे पारस्परिक संबंधों को बनाए रखने में तथा उन्हें अभिप्रेरित करे जिससे वे संगठनिक उद्देश्यों की पूर्ति में अपना योगदान दे सकें।

  • नेतृत्व की विशेषताएं (Features of Leadership):-
  • नेतृत्व किसी व्यक्ति की दूसरों को प्रभावित करने की योग्यता को दर्शाता है।
  • नेतृत्व दूसरों के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।
  • नेतृत्व, नेता तथा अनुयायियों के मध्य उनके पारस्परिक संबंधों को दर्शाता हैं।
  • नेतृत्व का अभ्यास संस्था के समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता हैं।
  • नेतृत्व एक निंरतर चलने वाली प्रक्रिया हैं।

  • नेतृत्व का महत्त्व (Importance of Leadership):-
  • नेतृत्व व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करता है तथा उन्हें अपनी श्रम/ऊर्जा को संस्था के लाभ के लिए सकारात्मक रूप से योगदान देने के लिए प्रेरित करती है। अच्छे नेता हमेशा अपने अनुयायियों के द्वारा अच्छे ही परिणाम उत्पादित करते हैं।
  • एक नेता कर्मचारियों के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए रखता है तथा अपने अनुयायियों को उनकी आवश्यकताएँ  पूरी करने में सहायता करता है। वह आवश्यक आत्मविश्वास प्रदान करता है, सहायता समर्थन देता है तथा इनके द्वारा एक अनुकूल कार्य वातावरण सृजन करता है।
  • नेता संस्था में आवश्यक परिवर्तन को प्रारंभ करने में एक मुख्य भूमिका निभाता है। वह उन्हें विश्वास दिलाता है/राजी कराता है, स्पष्ट करता है तथा पूरे दिल से परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है।
  • एक नेता द्वंद्व को भी प्रभावपूर्ण तरीके से संभालता/निपटाता है तथा उसके दुष्परिणामों को जो द्वंद से उत्पन्न हो सकते हैं उन्हें फैलने से रोकता है।
  • नेता अपने अधीनस्थों को प्रशिक्षण भी उपलब्ध करवाता है या देता है। एक अच्छा नेता हमेशा अपना अगला नेतृत्व प्रतिनिधि तैयार करता है ताकि नेतृत्व के उत्तरदायित्व प्रक्रिया निर्विघ्न संपन्न हो सके।

  • अच्छे नेता के गुण (Qualities of a Good Leader):-

  1. शारीरिक विशेषताएँ (Physical Features)- शारीरिक विशेषताएँ जैसे-कद, वजन, स्वास्थ्य, रूप-रंग/उपस्थिति किसी व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व का निर्धारण करती हैं। ऐसा माना जाता है कि अच्छी शारीरिक विशेषताएँ लोगों को आकर्षित करती हैं।

  1. ज्ञान (Knowledge)- एक अच्छे नेता में आवश्यक ज्ञान तथा कौशल अवश्य होने चाहिए। केवल ऐसे ही व्यक्ति अपने अधीनस्थ को सही रूप से आदेश दे सकते हैं तथा प्रभावित कर सकते हैं।

  1. सत्यनिष्ठा/ईमानदारी (Integrity)- एक नेता में  उच्च स्तर की सत्यनिष्ठा तथा ईमानदारी होना आवश्यक है। वह दूसरे के लिए आदर्श होना चाहिए, जिन नैतिकता तथा मूल्यों का वह प्रचारक है।

  1. पहल (Initiative)- एक नेता में साहस तथा पहलशक्ति/नेतृत्व अवश्य होना चाहिए। उसे यह इंतजार नहीं करना चाहिए कि कब उसे सुअवसर मिले, बल्कि उसे  तो सुअवसर को हथियाना है तथा संस्था के लाभ के लिए प्रयोग करना है।

  1. संप्रेषण कौशल (communication Skiils)- एक नेता को अच्छा संप्रेषक होना चाहिए। उसमें अपने विचारों को स्पष्ट समझाने की योग्यता होनी चाहिए। उसे केवल एक अच्छा वक्ता ही नहीं होना चाहिए बल्कि एक अच्छा शिक्षक, परामर्श तथा विश्वसनीय भी होना चाहिए कि वह सबसे काम करवा सके।

  1. अभिप्रेरणा कौशल (Motivation Skills)- एक नेता को एक प्रभावी अभिप्रेरक भी होना चाहिए। उसे लोगों की आवश्यकताओं को समझना चाहिए तथा उनकी आवश्यकताओं को संतुष्टि के द्वारा उन्हें प्रेरित करना चाहिए।

  1. आत्म-विश्वास (Self Confidence)- एक नेता में उच्च स्तर का आत्म-विश्वास होना चाहिए। यहाँ तक कि अत्यंत कठिन समय में भी उसे अपना विश्वास नहीं खोना चाहिए।

  1. निर्णय लेने की क्षमता (Decisiveness)- कार्य के प्रबंधन में नेता का निर्णायक होना अत्यंत आवश्यक है। जब वह किसी तथ्य के विषय में संतुष्ट हो जाता है या उसे ठीक लगता है, तो उसे अपनी बात पर दृढ़ संकल्प रहना चाहिए तथा अपने विचार बार-बार बदलने नहीं चाहिए।

  1. सामाजिक कौशल (Social Skills)- एक नेता को सबसे मिल-जुलकर रहना चाहिए तथा अपने सहकर्मियों तथा अनुयायियों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए। उसे व्यक्तियों को समझना चाहिए तथा उनके साथ अच्छे मानवीय संबंध बना कर रखने चाहिए।

  • नेतृत्व शैली (Leadership Style):-

नेतृत्व शैलियों को वर्गीकृत करने के कई आधार हैं। 'प्राधिकार का प्रयोग' नेतृत्व शैलियों के वर्गीकरण का सर्वाधिक लोकप्रिय आधार है। प्राधिकार के प्रयोग पर आधरित, नेतृत्व को तीन मूल शैलियाँ हैं। (क) एकतंत्रीय (ख) लोकतंत्रीय (ग) अबद्धता (लेसेज फेयर)

  • एकतंत्रीय (Autocratic):-

इसका अभिप्राय उस नेतृत्व शैली से है जिसमें नेता का रुझान पूरे कार्यक्रम को स्वयं ही करने की ओर होता हैं।

  • विशेषता (Features):-

  1. केन्द्रित सत्ता (Centralised Authority): इस पद्धति में प्रबन्धक को जो अधिकार एवं दायित्व प्राप्त होते हैं वह उन्हें किसी के साथ बांटने के लिए तैयार नहीं होता। परिणामस्वरूप सभी के अधिकार एक ही व्यक्ति के पास बंध कर रह जाते हैं।

  1. एक व्यक्ति के निर्णय (Single Man Decisions): नेतृत्व की इस शैली मे प्रबन्धक सारे निर्णय स्वयं अपनी इच्छा से ही लेता है। वह यह मानकर चलता है कि उसे किसी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है।

  1. कर्मचारियों के बारे में गलत धारणा (Wrong Belief Regarding Empleyees): प्रबन्धक इस  धारणा का शिकार हो जाता है कि कर्मचारी प्यार से काम नहीं करते और उनके लिए कठोर नियन्त्रण की आवश्यकता होती है। इसी धारा के वशीभूत होकर वह केन्द्रीय नेतृत्व पद्धति का सहारा लेता है।

  1. सन्देशवाहन केवल नीचे की ओर (Only Downward Communication): इस पद्धति में कर्मचारियों के विचार व सुझाव महत्वहीन होते हैं, इसलिए केवल नीचे की ओर सन्देशवाहन होता है। नीचे की ओर सन्देशवाहन का अर्थ है कि प्रबन्धक अधीनस्थों को अपनी बात तो कहते हैं लेकिन उनकी नहीं सुनते।

  • लाभ (Merits):-

  1. शीघ्र व स्पष्ट निर्णय (Quick and clear Decisions): सत्ता का केन्द्रीयकरण होने के कारण सारे निर्णय एक ही व्यक्ति द्वारा लिए जाते हैं। एक व्यक्ति द्वारा लिए गये निर्णयों में अनावश्यक देरी नहीं होती और वे अपेक्षाकृत स्पष्ट भी होते हैं ।
  2. सन्तुष्टिपूर्ण कार्य (Satisfactory Work): क्योंकि इस नेतृत्व में कर्मचारियों द्वारा कार्य निष्पादन कड़े नियन्त्रण में किया जाता है। इसलिए कार्य की मात्रा (Quantity) तथा किस्म (Quality) दोनों तरह से कार्य सन्तुष्टिपूर्ण होता है।

  1. कम शिक्षित कर्मचारियों के लिए आवश्यक (Necessary for Less Educated Employces): यह पद्धति अशिक्षित तथा कम समय वाले लोगों के लिए बहुत उपयोगी है। क्योंकि शिक्षा की कमी के कारण उनमें निर्णय लेने की क्षमता शून्य होती है। इस श्रेणी के कर्मचारी केवल कार्य कर सकते है, निर्णय नहीं ले सकते है।

  • सीमाएँ (Limitations):-

  1. अभिप्रेरण की कमी (Lack of Motivation): इस पद्धति में प्रबन्धकों का अभिप्रेरण तो होता है लेकिन कर्मचारी वर्ग के मनोबल में गिरावट आती है। ऐसा स्वाभाविक भी है। क्योंकि हर समय डर व भय के वातावरण में काम करने से मनोबल गिरेगा। 

  1. कर्मचारियों के द्वारा विरोध (Agitation by Employees): निर्णय में भागीदारी न देकर कर्मचारियों को एक मशीन की भान्ति बना दिया जाता है। जिस तरह मशीन से जो कार्य चाहें वही करवा सकते हैं, मशीन अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकती। इसी प्रकार प्रबन्धक, कर्मचारियों से जो चाहे करवा सकते हैं, वे भी अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकते। कर्मचारी इस तरह की नेतृत्व प्रणाली को नीरस मानते है तथा इसका विरोध करते है।

  1. पक्षपात की सम्भावना (Possibility of Partiality): सारे अधिकार एक ही व्यक्ति के पास केन्द्रित होने के कारण बह अपनी इच्छा से अपने कुछ चाहने वाले तथा चापलूस लोगों को कम मेहनत का कार्य सौंपकर उन्हें खुश करने की कोशिश करता है। इस तरह के पक्षपात से कर्मचारियों में रोष उत्पन्न होता हैं।

  • उपयोगिता (Suitability):-
  • जहां नेता समूह का सर्वाधिक विद्वान सदस्य हो।
  • जहां निर्णयन (Decision-making) के लिए बहुत कम समय उपलब्ध हो
  • जहां अधीनस्थ अशिक्षित हों।
  • जहां अधीनस्थ अनुभवहीन हों।

  • जनतन्त्रीय नेतृत्व शैली (Democratic Leadership Style):-

इसका अभिप्राय ऐसी नेतृत्व शैली से है। जिसका नेता कोई अंतिम निर्णय लेने से पहले अपने अधीनस्थो से विचार-विमर्श करते हैं।

  • विशेषता (Features):-

  1. सहयोगपूर्ण संबंध (Cooperative Relations): इस पद्धति की मुख्य विशेषता प्रबंधन तथा कर्मचारियों के मध्य सहयोगपूर्ण संबंधों का पाया जाना है। निर्णयों में कर्मचारियों की भागीदारी से उनमें स्वाभिमान उत्पन्न होता है, परिणामस्वरूप कर्मचारी हर तरह से सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं।

  1. कर्मचारियों में आस्था (Belief in Employees): प्रबन्धक यह मानकर चलते हैं कि कर्मचारी स्वभाव से काम करना चाहते हैं, वे अपना काम रुचि से करते हैं, अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं तथा सौंपे गये काम को अच्छे से अच्छे ढंग से करने का प्रयत्न करते हैं। प्रबन्धकों को इस तरह विश्वास का कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि करता है।

  1. खुला सन्देशवाहन (Open Communicatlion): इस प्रणाली में प्रबंधकों तथा कर्मचारियों के मध्य खुला सन्देशवाहन होता है। खुले सन्देशवाहन से अभिप्राय दोहरे सन्देशवाहन से है अर्थात् प्रबन्धक अपनी बात भी कहते हैं और कर्मचारियों के सुझावों को भी सहर्ष स्वीकार करते हैं।

  • लाभ (Merits):-

  1. उच्च मनोबल (High Morale): इस पद्धति के अंतर्गत प्रबंधकों तथा कर्मचारियों का उत्साह ऊंचाइयों को छूने लगता है। दोनो एक-दूसरे को अपना हितैषी समझने लगते हैं।

  1. अधिक कुशलता का निर्माण (Creation of More Efficiency): निर्णयों में भागीदार होने के कारण कर्मचारी उनको लागू करने मे पूरा सहयोग देते हैं। इस प्रकार उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

  1. रचनात्मक कार्यों के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध (Availability of Sufficient Time for Constructive Work): नेतृत्व शैली में प्रबंधकों का कार्यभार कम हो जाता। इस प्रकार बचे हुये समय को वे अन्य रचनात्मक कार्यों में लगाकर संस्था के विकास तथा विस्तार को संभव बनाते है।

  • सीमाएँ (Limitations):-

  1. शिक्षित अधीनस्थों की आवश्यकता (Requirement of Educated Subordinates): इस नेतृत्व पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत अधीनस्थों को निर्णयों में भागीदार बनाया जाता है तथा कुछ छोटे-छोटे कार्यों को तो पूरी तरह उनके भरोसे छोड़ जाता है। ऐसे सहयोग की आशा केवल शिक्षित कर्मचारियों से ही की जा सकती है।

  1. निर्णयो  में देरी (Delay in Decision): जैसा कि स्पष्ट  हैं कि इस पद्धति में निर्णय लेते समय अधीनस्यों से विचार-विमर्श अवश्य किया जाता है। ऐसा करने से यह एक लम्बी प्रक्रिया बन जाती है।

  1. प्रबन्धकों में उत्तरदायित्व की कमी (Lack of Responsibility in Managers): कभी-कभी प्रबन्धक अधीनस्थों को कुछ महत्वर्पूण निर्णयों में भागीदार बनाकर, अपने उत्तरदायित्व से यह कहकर बचने की कोशिश करते हैं कि ये निर्णय तो अधीनस्थों ने लिये थे और इनके लिए वे ही जिम्मेदार है।

  • उपयोगिता (Suitability):-

  • जब समूह सदस्य चतुर (Skilled) हो और अपने ज्ञान (Knowledge) को बांटने को तत्पर हों ।
  • जब निर्णयन (Decision Making) के लिए पर्याप्त समय हो।
  •  जब नेता निर्णयन (Decision Making) में अधीनस्थों की भागीदारी के लिए तैयार हो
  • जब भूमिकाएं (Roles) स्पष्ट हो।

  • स्वतन्त्र नेतृत्व शैली (Laissez-faire or Free-rein Leadership Style):-

इसका अभिप्राय उस नेतृत्व शैली से है जिसमें नेता अपने अधीनस्थों को निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान करता हैं।

  • विशेषता (Features):-

  1. अधीनस्थों में पूर्ण आस्था (Full Faith in Subordinates): इस पद्धति की मुख्य विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को योग्य, सक्रिय, उत्साही तथा जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में देखते है और उनमें पूरा विश्वास रखते हैं।

  1. स्वतंत्र निर्णय पद्धति (Independent Decision-Making System): इस प्रणाली में प्रबंधन से संबंधित निर्णय प्रबंधकों के स्थान पर अधीनस्थों द्वारा लिये जाते हैं। वे प्रबन्धकों से विचार-विमर्श कर सकते हैं।

  1. अधिकारों का विकेन्द्रीकरण (Decentralisation of Authority): यह पद्धति विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है अर्थात् प्रबन्धक अधीनस्थों में अधिकारों का व्यापक वितरण कर देते हैं जिससे हर व्यक्ति अपने लक्ष्य चुनने, उनसे संबंधित योजना बनाने में पूर्णतः सक्षम हो सके।

  1. स्व्य संचालन, पर्यवेक्षण व नियन्त्रण (Self Directed, Supervisory Controlled): एक बार उहेश्यों की व्याख्या कर देने के बाद प्रबन्धक का कार्य तो केवल विपरीत परिस्थितियों में हस्तक्षेप करने का ही रह जाता है। कर्मचारियों का पर्यवेक्षण तथा नियन्त्रण स्वयं उनके द्वारा ही किया जाता है।

  • लाभ (Merits):-

  1. अधीनस्थों में आत्मविश्वास का विकास (Development of Self-confidence in Subordinates): जब कार्य के सभी अधिकार कर्मचारियों को सौंप दिए जाते हैं तो वे स्वयं निर्णय लेने के अभ्यस्त हो जाते हैं जिससे उनमें आत्म-विश्वास जागृत होता हैं। भविष्य में वे विभिन्न क्रियाओं का निष्पादन और भी कुशलता से करने लगते हैं।

  1. उच्च स्तरीय अभिप्रेरणा (High Level Motivation): जब प्रबन्धक द्वारा अधीनस्थों में विश्वास व्यक्त करते हुये सब कुछ उन्हें दिया जाता है तो वे स्वयं को संस्था का एक महत्वपूर्ण अंग समझने लगते हैं इस प्रकार उन्हें महसूस होने लगता है कि वे संस्थान कर्मचारी नहीं बल्कि स्वयं संस्था हैं इस विचार के उत्पन्न होने के कारण उनकी अभिप्रेरणा में कोई कमी शेष नहीं रह जाती।

  1. संस्था के विकास एवं विस्तार में सहायक (Helpful in Development and Extension of the Enterprise): जिस संस्था में नेतृत्व की इस पद्धति का उपयोग किया जाता है उसका विकास व विस्तार अपनी चरम सीमा पर होता है। इसका मुख्य कारण है प्रबन्धकों के पास संस्था के विकास व विस्तार की संभावनाओं का पता लगाने के लिए पर्याप्त समय होना।

  • सीमाएँ (Limitations):-

  1. समन्वय में कठिनाई (Difficulty in Corporation): प्रबंधकों द्वारा नजदीकी पर्यवेक्षण तथा नियन्त्रण न किये जाने के कारण सभी कर्मचारी अपनी इच्छा से कार्य करते हैं। कुछ विपरीत दृष्टिकोण वाले कर्मचारी दूसरे व्यक्तियों के लक्ष्य प्राप्ति में बाधक बन जाते हैं। इस प्रकार के आपसी व्यवहार में समन्वय स्थापित करना प्रबन्धक के लिए कठिन हो जाता है।

  1. प्रबन्धकीय पद महत्वहीन होना (Lack Of Importance of Managerial Post): इस नेतृत्व प्रणाली में प्रबन्धक का पद महत्वहीन हो जाता है क्योंकि न तो वह कोई योजना बनाता है, न ही कोई निर्णय लेता है और न ही नियन्त्रण रखता है।

  1. केवल अधिक शिक्षित लोगों के लिए उपयुक्त (Suitable Only for Highly Educated Empolyees): यह प्रणाली केवल उसी स्थिति में उपयोगी है जबकि प्रत्येक कर्मचारी पूर्णतः शिक्षित हो, ताकि उसको कार्यभार पूरे विश्वास के साथ सौंपा जा सके। अशिक्षित तथा कम शिक्षित लोगों का नेतृत्व करने के लिए यह पद्धति सर्वथा ठीक नहीं है।

  • उपयोगिता (Subtility):-
  • जब अनुयायी (Followers) बहुत अधिक चतुर (Skilled), अनुभवी (Experienced) व शिक्षित (Educated) हों।
  • जब अनुयायियों को अपने काम पर गर्व हो और वे स्वयं  ही इसे सफलतापूर्वक चला  सकते है।
  • जहां बाहरी विशेषज्ञों; जैसे- स्टॉफ विशेषज्ञ (Staff Specialists) अथवा सलाहकारों (Consultants) का प्रयोग होता हो।
  • जहां अनुयायी विश्वसनीय (Trustworthy) हों ।

  • संप्रेषण (Communication):-

संप्रेषण से अभिप्राय उन सभी क्रियाओं से है जो एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को अपनी बात समझाने के लिए करता है। इसमें एक व्यवस्थित तथा निरंतर चलने वाली कहने, सुनने तथा समझने की प्रक्रिया सम्मिलित है।

  • संप्रेषण प्रक्रिया के तत्व (Elements of Communication Process ):-

  1. प्रेषक/संदेश भेजने वाला (Sender)- प्रेषक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अपने विचार अथवा सूचनाएँ प्राप्तकर्ता को भेजता है। प्रेषक संप्रेषण के स्रोत को दर्शाता है।
  2. कूट/संदेश (Message)- यह विचार,  भाव, सुझाव, आदेश तथा सूचनाए इत्यादि हैं जिन्हें प्रेषित करना हैं।
  3. एनकोडिंग (Encoding)-यह वह प्रक्रिया है जो संदेश को जिसे भेजना है उसे संप्रेषण के संकेतों में परिवर्तित करती है। जैसे शब्द, तस्वीरें, ग्राफ एवं आरेख चित्र, क्रिया अथवा व्यवहार इत्यादि।
  4. माध्यम (Media)- ये वे साधन अथवा माध्य हैं जिनके द्वारा एनकोडिड संदेश को प्राप्तकर्ता को भेजा जाता है। यह माध्यम एक लिखित रूप में प्रत्यक्ष आमने-सामने बातचीत द्वारा, दूरभाष, इंटरनेट इत्यादि हो सकते हैं।
  5. डिकोडिंग (Decoding)- यह प्रेषक द्वारा भेजे गए एनकोडिंग संदेश को समझने के लिए उसे परिवर्तित करने की प्रक्रिया है। 
  6. संदेश प्राप्तकर्ता (Receiver)- वह व्यक्ति जो प्रेषक द्वारा भेजे गए संप्रेषण/संदेश को प्राप्त करता है।
  7. प्रतिपुष्टि (Feedback)- इनमें वे सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं जो संदेश प्राप्तकर्ता करता है यह संकेत देने के लिए कि उसे संदेश मिल गया है तथा उसने संदेश को उसी रूप में समझ लिया है।
  8. ध्वनि/कोलाहल (Noise)- ध्वनि से तात्पर्य प्रभावी संप्रेषण में कुछ रूकावट अथवा बाधा के आने से है। यह बाधा प्रेषक के कारण भी हो सकती है। संदेश अथवा संदेश प्राप्तकर्ता के कारण भी हो सकती है।


  • संप्रेषण का महत्व (Importance of Communication):-

  1. समन्वयन के आधार के रूप में कार्य करती है- संप्रेषण समन्वयन के आधार के रूप में कार्य करती है। यह विभिन्न विभागों, क्रियाओं तथा संस्था में कार्यरत व्यक्तियों के मध्य समन्वयन प्रदान करती है।

  1. उद्यम के निर्विघ्न चलने में सहायता करती है- उद्यम के निर्विघ्न तथा बिना किसी अवरोध के चलने में संप्रेषण सहायता करती है। सभी संगठनिक अंत-क्रियाएँ संप्रेषण पर निर्भर करती हैं। प्रबंधक का कार्य मानवीय तथा भौतिक तत्वों का संस्था में समन्वयन का है तथा इन्हें कुशल तथा क्रियात्मक इकाई बनाने में है जो सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति करेगा।

  1. निर्णय लेने की क्षमता के आधार के रूप में कार्य करती है- संप्रेषण निर्णय लेने में आवश्यक सूचनाएँ उपलब्ध कराता है। इसकी अनुपस्थिति में, प्रबंधक के लिए कोई भी अर्थपूर्ण निर्णय लेने में कठिनाई हो सकती है अथवा निर्णय लेना संभव नहीं हो पाता। केवल प्रासंगिक सूचना के संप्रेषण के आधार पर ही कोई सही निर्णय ले सकता है।

  1. प्रबंधकीय कुशलता को बढ़ाता है - संप्रेषण तंत्र प्रबंधकीय कार्यों के प्रभावी निष्पादन के लिए अत्यंत  आवश्यक है। प्रबंधन उद्देश्य तथा लक्ष्यों को संप्रेषित करती है, आदेश जारी करती है. कार्य तथा उत्तरदायित्व सौंपती/बात करती है तथा अधीनस्थों के निष्पादन का निरीक्षण करती है। संप्रेषण इन सभी पहलुओं में सम्मिलित है। इस प्रकार, संप्रेषण संपूर्ण संस्था में लचीलापन लाती है।

  1. सहयोग तथा औद्योगिक शांति को बढ़ाती है- सभी विवेकपूर्ण प्रबंध का उद्देश्य कार्यकुशलता है। यह तभी संभव हो सकता है जब फैक्टरी में औद्योगिक शांति हो तथा प्रबंधन और कर्मचारियों के मध्य आपसी सहयोग हो। दोनों दिशाओं में यह संप्रेषण प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सहयोग पारस्परिक आपसी समझ को बढ़ाती है।

  1. प्रभावी नेतृत्व को स्थापित करती है- संप्रेषण नेतृत्व का आधार है। प्रभावी संप्रेषण अधीनस्थों को प्रभावित करने में सहायक है। व्यक्तियों को प्रभावित करते समय, नेता में अच्छे संप्रेषण कौशल का होना आवश्यक है।

  1. मनोवृत्ति बढ़ाती है तथा अभिप्रेरित करती है- संप्रेषण की प्रभावपूर्ण व्यवस्था प्रबंध को समर्थ बनाती है कि वे अपने अधीनस्थों को प्रेरित तथा संतुष्ट कर सकें। अच्छा संप्रेषण कर्मचारियों को कार्य के शारीरिक तथा सामाजिक पहलुओं में व्यवस्थित/समझौता करने में सहायता करता हैं।

  • औपचारिक तथा अनौपचारिक संप्रेषण (Formal and Informal Communication):-

संस्था में जो भी संप्रेषण होता है, उसे विस्तृत रूप से औपचारिक तथा अनौपचारिक, दो वर्गों में बाँटा जा सकता है।

  • औपचारिक संप्रेषण (Formal Communication):-

  1. औपचारिक संप्रेषण संस्था की संरचना में आधिकारिक माध्यमों द्वारा प्रवाहित होता है। अधिकारियों तथा अधीनस्थों के मध्य संप्रेषण होता है।
  2. अधीनस्थों तथा अधिकारियों के मध्य तथा प्रबंधकों तथा कर्मचारियों में आपस में जो समान स्तर पर हैं।
  3. संप्रेषण मौखिक अथवा लिखित हो सकता है परंतु सामान्यतः कार्यालय में सामान्यतः रिकार्ड तथा दाखिल (फाइल) किए जाते हैं।
  4. औपचारिक संप्रेषण उसके बाद पुनः वगीकृत किया जा सकता है-उर्ध्वाधर तथा समतल।
  5. शीर्ष संप्रेषण का प्रवाह लंबवत्/सीधी रेखा में होता है-ऊपर या नीचे आधारिक भुंकला में औपचारिक माध्यम के द्वारा ऊपर की दिशा में संप्रेषण उस प्रवाह को दर्शाता है जो अधीनस्थों से अधिकारियों तक पहुँचता है जबकि नीचे की और संप्रेषण अधिकारियों से अधीनस्थों की ओर के प्रवाह को दर्शाता है।
  6. एक औपचारिक संगठन में विभिन्न प्रकार के संप्रेषण तंत्र कार्य कर सकते हैं।

  1. एकल शृंखला (Single Chain)- यह तंत्र एक पर्यवेक्षक तथा उसके अधीनस्थ के मध्य स्थापित होता है। क्योंकि संगठनिक संरचना में बहुत सारे स्तर विद्यमान होते हैं, संप्रेषण का प्रवाह एकल शृंखला के द्वारा प्रत्येक पर्यवेक्षक से उसके अधीनस्थ की तरफ होता है।
  2. चक्र (Wheel)- चक्र तंत्र में, सभी अधीनस्थ केवल एक अधिकारी के माध्यम से हो संप्रेषण करते हैं तथा वह अधिकारी ही उस चक्र के केंद्र के रूप में कार्य करता है। अधीनस्थ को आपस में भी बात करने की अनुमति नहीं होती।
  3. गोला (Circular)- गोला संप्रेषण तंत्र में संप्रेषण एक गोले में ही प्रसारित होता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने साथ के दो व्यक्तियों के साथ ही संप्रेषित करता है। इस संप्रेषण तंत्र में, संप्रेषण का प्रवाह धीमा होता है।
  4. स्वतंत्र प्रवाह (Free Flow)- स्वतंत्र प्रवाह तंत्र में, प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से विचारों का आदान-प्रदान करने  के लिए मुक्त है। इस प्रकार के तंत्र में संप्रेषण का प्रवाह तीव्रता से होता है।
  5. विलोम छ (Inverted V)- इस तंत्र में, एक अधीनस्थ को केवल अपने काम पर अधिकारी तथा उसके अधिकारी के साथ ही संप्रेषण करने की अनुमति है। तथापि, बाद के केस में केवल निर्धारित संप्रेषण ही होता है।


  • अनौपचारिक संप्रेषण (Informal Communication):-

  1. व्यक्तियों एवं समूहों के मध्य होने वाले संप्रेषण जो आधिकारिक औपचारिक तौर पर नहीं होते हैं उन्हें अनौपचारिक संप्रेषण कहा जाता है जिसके अंतर्गत विचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
  2. इस प्रकार की संप्रेषण को सूचना प्रणाली को सामान्यत- अंगूरीलता संप्रेषण कहा जाता है क्योंकि ये सूचनाएँ जो अंगूरोलता द्वारा संगठन में सभी तरफ बिना किसी आधिकारिक स्तर के आधार पर होती हैं अर्थात अंगूरीलता औपचारिक संप्रेषण के स्रोतों को नहीं अपनाते।
  3. अनौपचारिक संप्रेषण की आवश्यकता का कारण है- कर्मचारियों को आपस में विचारों का आदान-प्रदान जो औपचारिक माध्यमों द्वारा संभव नही हैं, वह इस माध्यम द्वारा पूरी होती हैं।

  • अंगूरीलता तंत्र (Grapevine Network):-
  • अंगूरीलता संप्रेषण विभिन्न प्रकार के तंत्र द्वारा संभव हैं।
  • इकहरी भूंखला तंत्र में, प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से एक क्रम में संप्रेषण करता है।
  • अफवाहे/गपशप तंत्र में प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी चयनित आधार के सभी से बातचीत करता है।
  • संभाव्यता तंत्र के अंतर्गत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से बिना किसी उद्देश्य के सूचनाओं को आदान-प्रदान करता है।
  • समूह में, व्यक्ति उन्ही के साथ विचारों का आदान-प्रदान करता है जिस पर उन्हें विश्वास है।

  • प्रभावी संप्रेषण में बाधाएँ (Barriers to Communication):-

संगठन में प्रभावी संप्रेषण की ये बाधाएँ विस्तृत रूप से इस प्रकार वर्गीकृत की जा सकती हैं- संकेतीय बाधाएँ, मनोवैज्ञानिक बाधाएँ संगठन की बाधाएँ तथा व्यक्तिगत बाधाएँ। इनकी संक्षिप्त चर्चा नीचे दी गई है

  • संकेतिक/संकेतीय बाधाएँ (Semantic Barriers):-

  1. संदेश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति (Badly Expressed Message)- कई बार प्रबंधक अधीनस्थों को निर्दिष्ट अर्थ नहीं समझा पाता अथवा संप्रेषित कर पाता है। यह संदेश की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति पर्याप्त शब्द भंडार के कारण, गलत शब्द प्रयोग से, आवश्यक शब्दों के प्रयोग न करने के कारण इत्यादि से हो सकते हैं।

  1. विभिन्न अर्थों सहित संकेतक (Symbols With Different Meanings)- एक शब्द के बहुत से अर्थ हो सकते हैं प्राप्तकर्ता को शब्द के उसी अर्थ को समझना है जो प्रेषक उसे समझाना चाहता है।

  1. त्रुटिपूर्ण रूपांतर/अनुवाब (Faulty Translation)- कुछ स्थितियों में, संप्रेषण का मसीहा मूल रूप से किसी एक भाषा में तैयार किया जाता है (उदाहरण: अंग्रेजी) और इसे कर्मचारियों को समझाने के लिए इस रूपांतर (जैसे-हिंदी भाषा में) करना आवश्यक हो जाता है। यदि अनुवादक दोनों ही भाषाओं में पारंगत नहीं है, तो संप्रेषण को अन्य अर्थ देने के कारण अनुवाद में गलतियाँ हो सकती हैं।

  1. अस्पष्ट संकल्पनाएँ (Unclarified Assumption)- कुछ संप्रेषणों की विभिन्न संकल्पना विभिन्न व्याख्याओं के कारण हो सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक अधिकारी अपने अधीनस्थों को निर्देश दे सकता है, "मेरे अतिथि का ध्यान रखो" अधिकारी का तात्पर्य है कि अधीनस्थ को यातायात, खाना, अतिथि के रहने की व्यवस्था इत्यादि का ध्यान रखना है जब तक वह स्थान से चला न जाए।

  1. तकनीकी विशिष्ट शब्दावली (Technical Jargon)- ऐसा प्रायः पाया जाता है कि विशेषज्ञ तकनीकी शब्दों का अत्यधिक प्रयोग करते हैं उन व्यक्तियों को समझाने में जो उस संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ नहीं होते। इसलिए, वे बहुत से ऐसे शब्दों का वास्तविक अर्थ समझ नहीं पाते।

  1. शारीरिक भाषा तथा हाव- भाव की अभिव्यक्ति की डिकोडिंग (Body Language and Gesture Decoding)- शरीर की प्रत्येक गतिविधि कुछ न कुछ अर्थ संप्रेषित करती है। प्रेषक के शरीर के हाव-भाव तथा संकेत संदेश देने में अत्यंत महत्त्व रखते हैं। यदि जो कहा जाता है तथा जो शरीर के हाव-भाव द्वारा व्यक्त होता है उसमें ताल-मेल न हो तो, संप्रेषण का गलत अर्थ निकाला जा सकता है।

  • मनोवैज्ञानिक बाधाएं (Phycological Barriers):-

  1. सामाजिक मूल्यांकन (Premature Evaluation)- कुछ स्थितियों में लोग संदेश के अर्थ का मूल्यांकन पहले ही कर लेते हैं इसके पहले कि प्रतीक अपना संदेश पूर्ण करे। इस प्रकार का कालपूर्व मूल्यांकन पूर्वकल्पित धारणाओं अथवा पक्षपात जो संप्रेषण के विरुद्ध होता है, उनके कारण हो सकता है। 

  1. सावधानी का अभाव/ध्यान न होना (Lack of Attention)- संदेश प्राप्तकर्ता का दिमाग यदि कहीं और ध्यानमग्न हो तो परिणामत: संदेश को ध्यानपूर्वक न सुनना एक मुख्य मनोवैज्ञानिक बाधा के रूप में कार्य करता है।

  1. संप्रेषण के प्रसारण में लोप/क्षय तथा अपर्याप्त प्रतिधारण (Loss by Transmission and Poor Retention)- जब संप्रेषण विभिन्न स्तरों से प्रसारित होती है, उत्तर संदेश का प्रसारण का परिणाम संदेश का क्षय, अथवा अशुद्ध सूचना के रूप में प्रतिफलित होता है। यह अधिकतर मौखिक संप्रेषण में पाया जाता है।

  1. अविश्वास (Distrust)- संप्रेषक तथा संदेश प्राप्तकर्ता के मध्य अविश्वास एक बाधक के रूप में कार्य करता है। यदि दोनों ही एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते, तो वे एक-दूसरे के संदेश को उसके मूल अर्थों में नहीं समझ पाएँगे।

  • संगठनिक बाधाएं (Organisational Barriers):-

  1. संगठन की नीति (Organisational Policy)-यदि संगठनिक नीति, सुव्यक्त अथवा अंतर्निहित, संप्रेषण के स्वतंत्र प्रवाह में सहायक नहीं होते, तो ये सम्प्रेषण को प्रभावशीलता में बाधा पहुंचाते हैं।

  1. नियम तथा अधिनियम (Rules and Regulations)- सख्त नियम तथा बोझिल प्रक्रियाएँ संप्रेषण में बाधक हो सकती हैं। उसी प्रकार से निर्दिष्ट माध्यमों से संप्रेषण विलंब के रूप में परिलक्षित हो सकता है।

  1. पदवी/पद (Status)- अधिकारी को पदवी उसके तथा उसके अधीनस्थों के मध्य मनोवैज्ञानिक दूरी उत्पन्न कर सकती है। अपनी पदवी से प्रभावित प्रबंधक अपने स्थान को अपनी भावनाओं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं देता।

  1. संगठन की संरचना में जटिलता (Complexity)- किसी भी संस्था में जहाँ प्रबंधक स्तरों की संख्या अधिक है, संप्रेषण में विलंब होता है तथा उसमें विकार भी आ सकता है क्योंकि सूचनाएँ विभिन्न स्तरों से जितनी बार होकर गुजरती हैं उतना ही उसका क्षय होता है।

  1. संगठन की सुविधाएँ (Organisational Facilities)- यदि संप्रेषण के लिए निर्वाध, स्पष्ट तथा समय पर सुविधाएँ न उपलब्ध हो तो प्रभावी संप्रेषण में बाधा आती है। सुविधाएँ जैसे- निरंतर सभाएँ, सुझाव पेटी, शिकायत पेटी, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जनसमूह, कार्य-संचालन में पारदर्शिता इत्यादि संप्रेषण के स्वतंत्र प्रवाह को प्रोत्साहित करती है। इन सुविधाओं का अभाव संप्रेषण संबंधित समस्याएं उत्पन्न करता हैं।

  • व्यक्तिगत बाधाएँ (Personal Barriers):-

  1. सत्ता के सामने चुनौती का भय (Fear of Challenge to Authority)- यदि कोई अधिकारी यह अनुमान लगाता है कि कोई विशेष सूचना संप्रेषण उसको सत्ता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती है, तो वह उस संप्रेषण को रोक सकता है या प्रतिबंध लगा देता हैं।

  1. अधिकारी को अपने अधीनस्थों में विश्वास का अभाव (Lack of Confidence of Superior on his Subordinate)- यदि अधिकारों को अपने अधीनस्थों की कुशलता में विश्वास नहीं करता या वह आश्वस्त नहीं होता, तो वे उनके विचार तथा सुझाव नहीं लेता।

  1. संप्रेषण में अनिच्छा (Unwillingness to Communicate)- कभी-कभी, कर्मचारी/अधीनस्थ अपने अधिकारियों से संप्रेषण के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते, यदि उन्हें यह लगता है कि यह उनके हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगी।

  1. उपयुक्त प्रोत्साहनों का अभाव (Lack of Proper Incentives)- यदि संप्रेषण के लिए कोई अभिप्रेरणा अथवा प्रोत्साहन न हो, कर्मचारी संप्रेषण के लिए पहल नहीं करेंगे। उदाहरण के लिए, यदि अच्छे सुझाव के लिए कोई प्रशंसा सराहना अथवा प्रतिफल न हो, तो कर्मचारी कोई उपयोगी सुझाव देने के लिए इच्छुक नहीं होंगे।

  • प्रभावी संप्रेषण के लिए सुधार (Improving Communication Effectiveness):-

  1. प्राप्तकर्ता की आवश्यकताओं के अनुसार संदेशवाहक (Communicate according to the Need of Receiver): सूचना भेजने वाले को सूचना का प्रारूप अपने स्तर के अनुसार नहीं, बल्कि प्राप्तकर्ता के स्तर, समझ व वातावरण के अनुसार तैयार करना चाहिए।

  1. संदेशवाहन से पूर्व विचारों को स्पष्ट करना (Clarity Ideas before Communication): सूचना का प्रेषण करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले अपने मस्तिष्क में यह स्पष्ट कर लेना चाहिए कि वह क्या कहना चाहता है। उसे अपनी बात कहने का उद्देश्य मालूम होना चाहिए तथा भेजे जाने वाले विचारों को मस्तिष्क में क्रमानुसार सोच लेना चाहिए।

  1. संदेश की भाषा, शब्द व विषय-वस्तु के प्रति सचेत रहना (Be aware of Language, Tone and Content of Message): संदेश भेजने वाले को यह ध्यान रखना चाहिए कि संदेश स्पष्ट व सुंदर भाषा में तैयार किया जाए। संदेश का भाव प्राप्तकर्ता ही भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला नहीं होना चाहिए। जहां तक संभव हो संदेश संक्षिप्त होना चाहिए और अधिक तकनीकी शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।

  1. वर्तमान तथा भविष्य के लिए संदेशवाहन (Communication for the Present as well as for future) प्राय: संदेशवाहन की जरूरत वर्तमान वायदों को संतुष्ट करने के लिए पड़ती है। लेकिन समानता बनाए रखने के लिए, संदेशवाहन में संगठन के भावी उद्देश्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

  1. उपयुक्त प्रतिपुष्टि सुनिश्चित करना (Ensure Proper Feedback): प्रतिपुष्टि का अर्थ यह पता लगाना है कि प्राप्तकर्ता ने सूचना को सही अर्थों में समझ लिया है या नहीं। आमने-सामने संदेशवाहन में प्राप्तकर्ता के चेहरे के भावों से उसकी प्रतिक्रिया को जाना जा सकता है। लेकिन लिखित संदेशवाहन या किसी अन्य संदेशवाहन के माध्यम की दशा में प्रेषक को प्रतिपुष्टि की कोई उपयुक्त विधि अपनानी चाहिए।

  1. अच्छा श्रोता बनना (Be Good Listener): प्रेषक व प्राप्तकर्ता दोनों का अच्छा श्रोता होना प्रभावशाली संदेशवाहन की जान है। दोनों पक्षों द्वारा एक दूसरे की बात को ध्यान, धैर्य व सकारात्मक ढंग से सुनना चाहिए। संदेश भेजने वाला अच्छा श्रोता बनकर अनेक संबंधित सूचनाएं प्राप्त कर सकता है।