Class 12th प्रारंभिक व्यष्टि अर्थशास्त्र (Introductory Microeconomics)

Chapter 6

प्रतिस्पर्धारहित बाज़ार

(Non-Competitive Market)

  • एकाधिकार (Monopoly) : यह वह बाज़ार संरचना है जिसमें किसी वस्तु का केवल एक ही विक्रेता होता है और उस वस्तु का कोई निकटतम स्थानापन्न नहीं होता तथा बाज़ार में किसी अन्य विक्रेता के प्रवेश को रोकने के लिए पर्याप्त नियंत्रण होते हैं।

  • एकाधिकार बाज़ार की विशेषताएँ:

  1. एक विक्रेता तथा क्रेताओं की अधिक संख्या :- बाज़ार में एक वस्तु का केवल एक विक्रेता या निर्माता होता है। परिणामस्वरूप, एकाधिकार फर्म का वस्तु की आपूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण होता है। वह अकेला, साझेदारों का समूह, संयुक्त पूँजी कंपनी या राज्य हो सकता है। एकाधिकार का बाज़ार पर पूर्ण नियंत्रण के कारण वह अपनी वस्तु की कीमत इच्छानुसार निर्धारित कर सकता है।

  1. निकटतम स्थानापन्न (Close Substitutes) का अभाव:एक एकाधिकारी फर्म ऐसी वस्तुओं का उत्पादन करती हैं जिसका कोई निकटतम स्थानापन्न नहीं होता। उदाहरण: भारी सामान और सवारियाँ ढोने के लिए रेलवे का कोई निकटतम स्थानापन्न नहीं है।

  1. नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबंध: एकाधिकारी उद्योग में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबंध होते हैं। सामान्यतया एकाधिकारी फर्म को पेटेंट अधिकार दिए जाते हैं अथवा एकाधिकारी फर्म को किसी तकनीक या उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल पर विशेष नियंत्रण प्राप्त होता है।

  1. कीमत विभेद (Price Discrimination): एक एकाधिकारी विभिन्न क्रेताओं से भिन्न-भिन्न कीमतें वसूल कर सकता है। इसे कीमत विभेद कहते हैं। कीमत विभेद से अभिप्राय उस क्रिया से जिसके द्वारा एक ही वस्तु के लिए क्रेताओं से भिन्न-भिन्न कीमतें वसूली जाती है।

  1. कीमत निर्माता (Price Maker): वस्तु का एकमात्र विक्रेता होने के कारण वस्तु की कीमत पर एकाधिकारी का पूर्ण नियंत्रण होता है। इस प्रकार एकाधिकारी कीमत निर्धारक अर्थात कीमत को तय करनेवाला होता है।

  1. बाज़ार माँग वक्र औसत संप्राप्ति वक्र है: 
  1. बाज़ार माँग वक्र उस मात्रा को दर्शाता है जो उपभोक्ता विभिन्न कीमतों पर सम्मिलित रूप से क्रय करना चाहते हैं। यदि बाजार कीमत ऊँचे स्तर p0 पर हो, तो उपभोक्ता कम मात्रा q0 खरीदने के इच्छुक होंगे। दूसरी ओर, यदि बाजार कीमत निम्न-स्तर p1 पर हो, तो उपभोक्ता अधिक मात्रा q1 खरीदने के इच्छुक होंगे। अर्थात कीमत बाजार में उपभोक्ता द्वारा माँग की गई मात्रा को प्रभावित करती है।
  1. एकाधिकार के अंतर्गत कीमत पर पूर्ण नियंत्रण से अभिप्राय यह नहीं है कि एकाधिकारी वस्तु की कोई भी मात्रा किसी भी कीमत पर बेच सकता है। एकाधिकारी जब किसी वस्तु की कीमत को निर्धारित कर देता है तो माँगी गई मात्रा क्रेताओं पर निर्भर करती है। यदि कीमत कम की जाती है तो वह अधिक माँग करेंगे तथा यदि कीमत में वृद्धि की जाती है तो वह कम माँग करेंगे। इसलिए एकाधिकारी द्वारा निर्धारित कीमत तथा उसके द्वारा बेची जानेवाली मात्रा में विपरीत संबंध होता है। तदनुसार, एकाधिकारी फर्म का माँग वक्र ऊपर से नीचे की ओर ढलवाँ  होता है।

 कुल संप्राप्ति= कीमत × मात्रा                                                                 (ii)

(i) और (ii) से,

एकाधिकारी फर्म के लिए बाज़ार माँग वक्र ही औसत संप्राप्ति वक्र होता है।       

  1. एकाधिकार बाजार के तहत TR, AR और MR वक्र की व्युत्पत्ति:

एकाधिकार बाजार में केवल एक विक्रेता होता है और अनेक खरीदार होते हैं । एक विक्रेता होने के कारण वस्तु की निकटतम प्रतिस्थानापन वस्तुओं का अभाव होता है । वस्तु की कीमत विक्रेता द्वारा निर्धारित की जाती है। उत्पादित वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने के लिए वस्तु की कीमत को कम करना पड़ेगा।  इस अवधारणा के आधार पर हम TR, AR और MR वक्र प्राप्त कर सकते हैं।

दी गई तालिका में हम देख सकते हैं कि निर्गत की एक अधिक इकाई को बेचने के लिए फर्म को अपनी कीमत में कमी लानी पड़ती है। TR प्रारंभिक चरण में बढ़ता है परंतु एक निश्चित स्तर के बाद यह स्थिर रहता है और फिर घटने लगता जाता है।  जैसे-जैसे निर्गत बढ़ती है तब AR में  गिरावट जारी रहती है।  MR भी लगातार घटरहा है।





  1. उपरोक्त चित्र में, उत्पादन की मात्रा और संप्राप्ति क्रमशः x और y- अक्ष पर अंकित की गई है।  
  2. निर्गत में वृद्धि के साथ,TR वक्र घटती दर से अपने अधिकतम बिंदु तक पहुँचता है और फिर स्थिर रहता है।
  3. निर्गत की 6 इकाइयों के बाद, TR घटना आरंभ हो जाती हैं।
  4. AR वक्र धीरे-धीरे घटता है लेकिन X-अक्ष को कभी नहीं छूता है क्योंकि आगे निर्गत कभी ऋणात्मक या शून्य के बराबर नहीं हो सकती।  
  5. MR वक्र में AR की तुलना में अधिक तेजी से गिरावट आती है। जब TR अधिकतम है तब MR=0 और X- अक्ष को छूकर पार हो जाता है।
  6. जब TR घटने लगता है तब MR ऋणात्मक है।

  8.   निकटतम स्थानापन्न का अभाव होने के कारण माँग की  कीमत लोच बेलोचदार (Relatively Inelastic) होती है।

  • एकाधिकारी फर्म का अल्पकालीन संतुलन:

  1. शून्य लागत की सामान्य स्थिति (Simple Case of Zero Cost):

इस स्थिति में हम मान रहे हैं कि फर्म के उत्पादन की कुल लागत शून्य है। फर्म के द्वारा प्राप्त लाभ, फर्म द्वारा प्राप्त संप्राप्ति से उपगत लागत को घटाने पर प्राप्त होता है अर्थात् लाभ = कुल संप्राप्ति - कुल लागत। चूँकि इस स्थिति में हमने यह माना है कि कुल लागत शून्य है तो लाभ तब अधिकतम होगा जब कुल संप्राप्ति सर्वाधिक है। स्पष्टतः एक फर्म निश्चित रूप से यह प्रयास करेगी कि वह अपने TR (कुल संप्राप्ति) को अधिकतम करें। हम जानते हैं कि TR (कुल संप्राप्ति) तब अधिकतम होता है जब MR (सीमांत संप्राप्ति) = 0 हो अर्थात एक एकाधिकारी अपनी वस्तु की पूर्ति तब तक करता रहेगा जब तक MR = 0 नहीं हो जाता, ताकि वह अपने TR को अधिकतम कर सकें।


  1. उपरोक्त चित्र में कुल संप्राप्ति, औसत संप्राप्ति और सीमांत संप्राप्ति वक्र को दर्शाया गया है।
  2. फर्म के द्वारा प्राप्त लाभ, फर्म द्वारा प्राप्त संप्राप्ति से लागत को घटाने पर  होता है अर्थात्

लाभ = कुल संप्राप्ति - कुल लागत।  

  1. अधिकतम लाभ का स्तर तब प्राप्त होता है जब सीमांत संप्राप्ति शून्य के बराबर होता है। लाभ का परिमाण  'a' से समस्तरीय अक्ष तक के उर्ध्वाधर रेखाखंड की लंबाई के द्वारा प्रदर्शित है।

 II.   कुल वक्रों के पदों में एकाधिकारी का संतुलन (Equilibrium of the Monopolist in terms of

       the Total Cost Curves): 

  1. चित्र में कुल लागत वक्र और कुल संप्राप्ति वक्र को दर्शाया गया है। कुल संप्राप्ति से कुल लागत को घटाने पर शेष राशि फर्म का लाभ है।
  1. रेखाचित्र में हम देख सकते हैं जब मात्रा q1 का उत्पादन होता है तो कुल संप्राप्ति1 और कुल लागत1 है। अतः अन्तर कुल संप्राप्ति1-कुल लागत1 फर्म द्वारा प्राप्त लाभ है। इसे रेखाखंड AB की लम्बाई अर्थात् निर्गत के q1 स्तर पर कुल संप्राप्ति और कुल लागत वक्रों के बीच की उर्ध्वाधर दूरी से दर्शाया गया है।

  1. जब निर्गत स्तर q2 से कम हो तो कुल लागत वक्र कुल संप्राप्ति वक्र से ऊपर स्थित होगा अर्थात् कुल लागत कुल संप्राप्ति से अधिक होगी। अतः लाभ ऋणात्मक होता है और फर्म को घाटा होता है। यही स्थिति q3 से अधिक निर्गत स्तर के लिए भी विद्यमान रहती है।
  1. अतः फर्म केवल q2 और q3 के बीच के निर्गत स्तर पर ही धनात्मक लाभ प्राप्त करता है। जहाँ कुल संप्राप्ति वक्र कुल लागत वक्र के ऊपर अवस्थित होता है। ऐसा निर्गत q0 के स्तर पर होता है। निर्गत स्तर q0 पर लाभ वक्र का मूल्य अधिकतम है।
  1. जिस कीमत पर इस निर्गत का विक्रय किया जाता है, उपभोक्ता वस्तु की इस q0 मात्रा के लिए उस कीमत को अदा करने के इच्छुक होते हैं। अतएव, एकाधिकारी फर्म माँग वक्र पर संबंधित मात्रा स्तर q0 पर कीमत का निर्धारण करेगी।

   III.  औसत और सीमांत वक्र के पदों में एकाधिकारी का संतुलन ((Equilibrium of the Monopolist  

          in terms of the Total Cost Curves): 


  1. चित्र में औसत लागत, तथा सीमांत लागत वक्र को माँग (औसत संप्राप्ति) वक्र तथा सीमांत संप्राप्ति वक्र के साथ दर्शाया गया है।

  1. q0 के नीचे निर्गत स्तर पर सीमांत संप्राप्ति स्तर सीमांत लागत स्तर से ऊँचा है। तात्पर्य यह है कि वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के विक्रय से प्राप्त कुल संप्राप्ति में वृद्धि उस अतिरिक्त इकाई की उत्पादन लागत में वृद्धि से अधिक होती है। इसका अर्थ यह है कि निर्गत की एक अतिरिक्त इकाई से अतिरिक्त लाभ का सृजन होगा।

  1. चूँकि लाभ में परिवर्तन = कुल संप्राप्ति में परिवर्तन - कुल लागत में परिवर्तन। अतः यदि फर्म q0 से कम स्तर पर निर्गत का उत्पादन कर रही है, तो वह अपने निर्गत में वृद्धि लाना चाहेगी क्योंकि इससे उसके लाभ में बढ़ोत्तरी होगी। जब तक सीमांत संप्राप्ति वक्र सीमांत लागत वक्र के ऊपर अवस्थित है, तब तक उपर्युक्त तर्क का अनुप्रयोग होगा। अतः फर्म अपने निर्गत में वृद्धि करेगी। इस प्रक्रम में तब रुकावट आयेगी, जब निर्गत का स्तर  q0 पर पहुँचेगा, क्योंकि इस स्तर पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत समान होंगे और निर्गत में वृद्धि से लाभ में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होगी।

  1. दूसरी ओर, यदि फर्म qc से अधिक मात्रा में निर्गत का उत्पादन करती है तो सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि निर्गत की एक इकाई कम करने से कुल लागत में जो कमी होती है, वह इस कमी के कारण कुल संप्राप्ति में हुई हानि से अधिक होती है। अतः फर्म के लिए यह उपयुक्त है कि वह निर्गत में कमी लाए। यह तर्क तब तक अनुप्रयोग होगा जब तक सीमांत लागत वक्र सीमांत संप्राप्ति वक्र के ऊपर अवस्थित होगा और फर्म अपने निर्गत में कमी को जारी रखेगी।

  1. एक बार निर्गत स्तर के q0 पर पहुँचने पर सीमांत लागत और सीमांत संप्राप्ति के मूल्य समान हो जाएँगे और फर्म अपने निर्गत में कमी को रोक देगी। q0 पर फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त करेगी। । इस स्तर को निर्गत का संतुलन स्तर कहते हैं |

  1. q0 निर्गत के संतुलन स्तर पर, औसत लागत बिंदु 'd' द्वारा दी गई है, जहाँ उर्ध्वाधर रेखा q0 से औसत लागत वक्र को काटती है। अतः औसत लागत को dq0 के ऊँचाई पर दर्शाया गया है। चूँकि कुल लागत, औसत लागत और उत्पादित मात्रा q0 के गुणनफल के बराबर होती है, इसीलिए इसे आयत Oq0dc के द्वारा दर्शाया गया है।

  1. एक बार उत्पादित निर्गत की मात्रा का निर्धारण होने पर, जिस कीमत पर निर्गत का विक्रय होता है, वह उस परिमाण से निर्धारित होती है जिसका उपभोक्ता भुगतान करना चाहता है। इसे बाज़ार माँग वक्र के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। अतः कीमत बिन्दु a से दर्शायी गई है, जहाँ q0 से होकर उर्ध्वाधर रेखा बाज़ार माँग वक्र D से मिलती है। इससे aq0 की ऊँचाई द्वारा दर्शायी गई कीमत प्राप्त होती है। चूँकि फर्म द्वारा प्राप्त कीमत निर्गत की प्रति इकाई संप्राप्ति होती है, अतः यह फर्म के लिए औसत संप्राप्ति है। कुल संप्राप्ति, औसत संप्रप्ति और निर्गत q0 के स्तर का गुणनफल होती है, इसलिए इसे आयत Oq0ab के क्षेत्रफल के रूप में दर्शाया गया है।

  1. आरेख से स्पष्ट है कि आयत  Oq0ab का क्षेत्रफल आयत Oq0dc  के क्षेत्रफल से बड़ा है अर्थात कुल संप्राप्ति कुल लागत से अधिक है। आयत cdab का क्षेत्रफल इनके बीच का अन्तर है | अतः लाभ = कुल संप्राप्ति - कुल लागत को cdab के क्षेत्रफल से प्रदर्शित किया जा सकता है।

  • पूर्ण प्रतिस्पर्ध (Perfect Competition): यह वह बाज़ार संरचना है जिसमें किसी वस्तु के विक्रेताओं तथा क्रेताओं की अधिक संख्या होती है और किसी भी व्यक्तिगत क्रेता या विक्रेता का इसकी कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। वस्तु समरूप (Homogenous) होती है और उसकी कीमत बाज़ार पूर्ति तथा बाज़ार माँग की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है।

  • प्रतिस्पर्धी व्यवहार (Competitive Behaviour) बनाम प्रतिस्पर्धी संरचना (Competitive Structure):
  1. प्रतिस्पर्धी व्यवहार से अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें उत्पादक अधिक बाज़ार भाग प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं; जैसे- कोक और पेप्सी विश्व के विभिन्न भागों में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
  2. प्रतियोगी संरचना वहाँ पाई जाती है जहाँ विक्रेताओं की एक बड़ी संख्या एक वस्तु को बेच रही है। यह पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति की भाँति ही है जहाँ प्रत्येक उत्पादक दी हुई बाज़ार कीमत पर वस्तु की जितनी भी मात्रा चाहे बेच सकता है।

यहाँ ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि बाज़ार में बेशक पूर्ण प्रतियोगिता है, परंतु अपना बाज़ार भाग बढ़ाने के लिए उत्पादकों के बीच कोई भी प्रतियोगी व्यवहार नहीं है।

  • पूर्ण प्रतिस्पर्धा (Perfect Competition) और एकाधिकार (Monopoly) में अंतर :


  • एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा (Monopolistic Competition): यह वह बाज़ार संरचना है, जिसमें किसी वस्तु के बहुत से क्रेता तथा विक्रेता होते हैं परंतु प्रत्येक विक्रेता की वस्तु एक दूसरे से भिन्न होती है।

  • एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा बाज़ार की विशेषताएँ:

  1. क्रेताओं तथा विक्रेताओं की अधिक संख्या: एकाधिकारी प्रतिस्पर्धा में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तरह काफी अधिक होती है। प्रत्येक फर्म का आकार भी छोटा होता है। प्रत्येक फर्म का बाज़ार में केवल एक सीमित भाग होता है।

  1. वस्तु विभेद: वस्तु विभेद (जिसे संक्षेप में ‘विभेदता’ कहा जाता है) एकाधिकारी प्रतियोगिता की एक विशिष्ट विशेषता है। विभेदता का अर्थ है कि प्रतिद्वंद्वी फर्में वह वस्तुएँ बेच रही हैं जो एक-दूसरे की पूर्ण स्थानापन्न नहीं है परंतु निकट स्थानापन्न हैं। उदाहरण:  कॉलगेट टूथपेस्ट तथा बिनाका टूथपेस्ट एक-दूसरे के निकटतम स्थानापन्न है जबकि बाज़ार में अधिकतर कर्ताओं के लिए यह पूर्ण प्रतिस्थापक नहीं है।

  1. बिक्री लागतें: वस्तु विभेद को प्राय अत्यधिक विज्ञापन के साथ जोड़ा जाता है। इसके कारण बिक्री लागतें होती हैं। बिक्री लागते एक फर्म द्वारा अपने बाज़ार भाग को बढ़ाने के लिए खर्च की जाती है क्योंकि विज्ञापन के कारण क्रेता ब्रांड-निष्ठा (Brand Value) को विकसित करते हैं।

  1. नीचे की ओर ढलान वाला माँग वक्र:  कीमत पर आंशिक नियंत्रण होने के कारण फर्म का माँग वक्र नीचे की ढलान वाला होता है जब कीमत कम की जाती है तो बेची गई मात्रा में वृद्धि होती। यदि कीमत को बढ़ाया जाता है तो बेची गई मात्रा कम हो जाती है।

  1. एक फर्म का माँग वक्र उसका TR वक्र भी होता है। इसलिये इस फर्म का TR वक्र नीचे की ओर ढलवाँ होता है। सीमान्त संप्राप्ती औसत संप्राप्ती से कम होती है और नीचे की ओर ढलवाँ भी होती है।

  1. एक एकधिकारी प्रतिस्पर्धा  लाभ अधिकतमी भी होती है। इसलिये यह अपना उत्पादन तब तक बढ़ायेगी, जब तक इसकी कुल संप्राप्ति में वृद्धि इसकी कुल लागतों में वृद्धि से अधिक है। अन्य शब्दों में, यह फर्म वह मात्रा उत्पन्न करना पसंद करेगी जिस पर इसकी सीमान्त संप्राप्ती (MR) इसके सीमांत लागत (MC) के बराबर होती है।

  1. एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म की सीमांत संप्राप्ती (MR) इसके AR के बराबर होती है। इसलिये एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म, लाभ अधिकतमीकरण की स्थिति में अपने AR को MC के बराबर कर लेगी। अतः एकाधिकार प्रतिस्पर्धा के अंतर्गत, एक फर्म एक पूर्णतया स्पर्धात्मक फर्म की तुलना में कम उत्पादन करेगा। इसीलिए दिए हुए निम्न निर्गत स्तर पर वस्तु की कीमत पूर्ण प्रतिस्पर्धा की तुलना में ऊँची होगी।

  • अल्पाधिकार (Oligopoly): यह वह बाज़ार संरचना है, जिसमें किसी वस्तु के एक से अधिक विक्रेता होते हैं किंतु विक्रेताओं की संख्या अत्यल्प होती है तथा उनके द्वारा बेचे जाने वाला उत्पाद सजातीय (Homogeneous) होता है और किसी दूसरे फर्म द्वारा उस उत्पाद के स्थानापन्न उत्पाद का उत्पादन नहीं किया जा सकता है।

  • अल्पाधिकार की एक विशेष स्थिति जिसमें केवल दो विक्रेता होते हैं उसे द्वि-अधिकार (Duopoly) कहते हैं।

  • अल्पाधिकार बाज़ार की विशेषताएँ:

  1. बड़ी फर्मों की छोटी संख्या: अल्पाधिकार बाज़ार वह होता है जिसमें बड़ी फर्मों की छोटी संख्या होती है। ब्रांड-निष्ठा के द्वारा फर्म का कीमत पर आंशिक नियंत्रण होता है। ब्रांड-निष्ठा प्रबल विज्ञापन द्वारा की जाती है परंतु कीमत पर पूर्ण नियंत्रण संभव नहीं होता क्योंकि बाज़ार में प्रतियोगी होते हैं।

  1. अंतर्निर्भरता की ऊँची मात्रा: अल्पाधिकार बाज़ार में बड़ी फर्मों की छोटी संख्या पाई जाती है। प्रत्येक फर्म का बाज़ार भाग इतना महत्वपूर्ण होता है कि उसकी कीमत तथा उत्पादन नीति प्रतिद्वंद्वी फर्मों की कीमत तथा उत्पादन नीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ती हैं। अंतर्निर्भरता की ऊँची मात्रा के कारण फर्म के उत्पाद की कीमत तथा माँग के बीच एक यथार्थ संबंध ज्ञात करना कठिन होता है। तदनुसार अल्पाधिकारी फर्म के लिए किसी विशिष्ट माँग वक्र को खींचना असंभव होता है।

  1. प्रवेश की बाधाएँ: नई फर्मों के प्रवेश के लिए बाधाएँ या रुकावटें होती हैं। यह बाधाएँ अधिकांशत: पेटेंट अधिकारों द्वारा उत्पन्न की जाती है। इन बाधाओं के कारण, विद्यमान फर्में बाज़ार में नई फर्मों के प्रवेश के बारे में अधिक चिंतित नहीं होती।

  1. कार्टल (Cartel): अल्पाधिकार के अंतर्गत फर्मों के बीच एक औपचारिक ‘गठबंधन समझौता’ कार्टल कहलाता है। फर्में प्रतियोगिता से बचने के लिए गठबंधन करती हैं। वह व्यापार-गुट द्वारा सुनिश्चित निर्णय के आधार पर अपना उत्पादन तथा कीमत निश्चित कर लेती हैं। सामूहिक रूप से फर्में एकाधिकारी लाभ कमाने का प्रयत्न करती है।

उदाहरण: OPEC की स्थापना 1960 में विश्व के पाँच प्रमुख तेल उत्पादन करने वाले देशों द्वारा की गई थी| वे देश है ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब तथा वेनेजुएला।