Class 12th व्यष्टि अर्थशास्त्र (Microeconomics)

Chapter 2

उपभोक्ता के व्यवहार का सिद्धांत (Theory of Consumer Behaviour)

उपभोक्ता किसे कहते है?

उपभोक्ता उस व्यक्ति को कहते है, जो विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करता है। एक उपभोक्ता उन वस्तुओं को खरीदने की इच्छा रखता है जो उसे “सर्वाधिक संतोष” प्रदान कर सकें।

यह निर्णय दो बातों पर निर्भर करता है-

  1. उपभोक्ता की उस वस्तु में रुचि: उपभोक्ता को जिस वस्तु में रुचि होती है वह उस वस्तु को खरीदने के लिए इच्छुक रहता है।
  2. व्यय करने की क्षमता: व्यय करने की क्षमता दो बातों पर निर्भर करती है-
  • वस्तु की कीमत: वस्तु की कीमत अधिक होगी तो व्यय करने की क्षमता कम होगी और यदि वस्तु की कीमत कम होगी तो व्यय करने की क्षमता अधिक हो जाएगी।
  • उपभोक्ता की आय: उपभोक्ता की आय अधिक होगी तो व्यय करने की क्षमता भी अधिक होगी और यदि उपभोक्ता की आय कम होगी तो व्यय करने की क्षमता भी कम होगी।
उपयोगिता क्या है?

एक वस्तु की उपयोगिता (Utility), उसकी किसी आवश्यकता अथवा इच्छा को संतुष्ट करने की क्षमता है। एक उपभोक्ता को किसी वस्तु से कितनी उपयोगिता प्राप्त होगी, यह दो बातों पर निर्भर करता है- आवश्यकता और इच्छा। एक उपभोक्ता को किसी वस्तु की जितनी अधिक आवश्यकता होगी अथवा उस वस्तु को प्राप्त करने की जितनी अधिक इच्छा होगी, वह वस्तु उसके लिए उतनी ही अधिक उपयोगी होगी।

  • किसी वस्तु की उपयोगिता हर उपभोक्ता के लिए एक समान नहीं होती। उदाहरण के लिए, एक उपभोक्ता को केले अधिक पसंद हैं और दूसरे उपभोक्ता को आम अधिक पसंद हैं तो पहले उपभोक्ता के लिए केले की अधिक उपयोगिता होगी और दूसरे उपभोक्ता के आम की अधिक उपयोगिता होगी।
  • एक उपभोक्ता के लिए किसी वस्तु से प्राप्त होने वाली उपयोगिता, समय एवं स्थान के बदलने से भी बदल सकती है। जैसे, एक “रूम हीटर” से मिलने वाली उपयोगिता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह व्यक्ति लद्दाख में है या फिर चेन्नई में अथवा गर्मी का मौसम है या सर्दी का मौसम।
एक उपभोक्ता उन वस्तुओं को खरीदने का निर्णय लेगा जिनसे उसे सबसे अधिक उपयोगिता प्राप्त होगी। परंतु ‘एक उपभोक्ता को एक वस्तु से कितनी उपयोगिता प्राप्त होगी’ ? इसका मापन कैसे किया जा सकता है?

उपयोगिता के मापन से संबंधित दो दृष्टिकोण हैं-

  1. गणनावाचक दृष्टिकोण: गणनावाचक उपयोगिता विश्लेषण की मान्यता है कि उपयोगिता के स्तर को संख्याओं में व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक केले से मुझे 7 इकाइयाँ उपयोगिता प्राप्त होती है।
  2. क्रमवाचक दृष्टिकोण: वास्तविक जीवन में, उपभोक्ता उपयोगिता को संख्या में नहीं मापता, यद्यपि वह विभिन्न वस्तुओं को उपयोगिता के आधार पर क्रमानुसार व्यवस्थित कर सकता है। अर्थात उपभोक्ता बता सकता है कि वस्तुओं के दिए गए समूह में कौन सी वस्तु अधिक उपयोगी है, कौन सी वस्तु कम उपयोगी और कौन-कौन सी वस्तुओं एकदम बराबर उपयोगी हैं।

पहले हम गणनावाचक दृष्टिकोण के अंतर्गत उपभोक्ता के व्यवहार के बारे में चर्चा करेंगे-

  1. गणनावाचक- गणनावाचक उपयोगिता विश्लेषण के अंतर्गत कुल उपयोगिता और सीमांत उपयोगिता की सहायता से उपभोक्ता के व्यवहार को समझा जाता है।
  • कुल उपयोगिता (TU): यह एक वस्तु की सभी इकाइयों का उपभोग करने से प्राप्त होने वाली उपयोगिताओं का कुल जोड़ है। अतः TUn वस्तु X की n इकाइयों से प्राप्त कुल उपयोगिता है।
  • सीमांत उपयोगिता (MU):
        • कुल उपयोगिता में वह परिवर्तन है जो वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई का उपभोग करने से होता है।
        • उदाहरण के लिए, मान लीजिए 4 केलों का उपभोग करके एक उपभोक्ता को 28 इकाई उपयोगिता प्राप्त होती है और 5 केलों का उपभोग करके उसे 30 इकाई उपयोगिता प्राप्त होती है।
        • स्पष्ट है कि पाँचवें केले के उपभोग से कुल उपयोगिता 2 इकाई बढ़ गई (30-28) इसलिए पाँचवे केले की सीमांत उपयोगिता 2 इकाई है।

MU5= TU5 - TU4 = 30-28 = 2.
MUn= TUn-TUn-1, जहाँ पर n का अर्थ वस्तु की nवीं इकाई है।

रसगुल्लों की विभिन्न मात्राओं के उपभोग से प्राप्त सीमांत उपयोगिता और कुल उपयोगिता के मानों का काल्पनिक उदाहरण-        

कुल उपयोगिता और सीमांत उपयोगिता के बीच संबंध:
    1. सामान्यत: यह देखा जाता है कि एक वस्तु की सीमांत उपयोगिता, वस्तु के उपयोग में वृद्धि के साथ गिरती जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एक वस्तु की कुछ मात्रा उपलब्ध हो जाने पर, उस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा कम होती जाती है। इसलिए सामान्यतः MU2, MU1 से कम होगी (जैसा कि सारणी में भी दिखाया गया है)।
    2. सारणी में TU2 और TU3 से भी देखा जा सकता है कि कुल उपयोगिता में वृद्धि तो हो रही है, परंतु घटती हुई दर पर। किसी वस्तु के उपभोग की मात्रा में परिवर्तन के फलस्वरूप, कुल उपयोगिता में वृद्धि की दर उसकी सीमांत उपयोगिता के बराबर होती है। यह सीमांत उपयोगिता, वस्तु की उपभोग की मात्रा में वृद्धि के साथ गिरती जाती है। दिए गए उदाहरण में 12 से 8, 8 से 5, 5 से 3 और इस प्रकार आगे। इसीलिए TU में वृद्धि हो तो रही है, परंतु घटती दर पर।
ह्रासमान सीमांत उपयोगिता नियम (Law of Diminishing Marginal Utility) से इस निष्कर्ष की व्याख्या की जा सकती है। ह्रासमान सीमांत उपयोगिता नियम यह बताता है कि जैसे-जैसे अन्य वस्तुओं का उपभोग स्थिर रखते हुए किसी वस्तु के उपभोग को बढ़ाया जाता है, वस्तु की हर एक अगली इकाई से प्राप्त सीमांत उपयोगिता गिरती जाती है।

      1. कुल उपयोगिता (TU) निरंतर बढ़ती रहती है जब तक सीमांत उपयोगिता (MU) धनात्मक है। ऐसा रसगुल्ले की पाँचवीं इकाई के उपभोग तक हुआ।
      2. यहाँ कुल उपयोगिता (TU) अधिकतम तब होती है जब सीमांत उपयोगिता शून्य (MU=0) के बराबर होती है। कुल उपयोगिता अधिकतम तब हुई जब रसगुल्ले की 5 इकाइयों का उपभोग हुआ।
      3. कुल उपयोगिता (TU) घटना आरंभ कर देती है जब सीमांत उपयोगिता (MU) ऋणात्मक हो जाती है। ऐसा उपभोग की 5 इकाइयों के बाद हुआ। सीमांत उपयोगिता के निरंतर घटने के कारण कुल उपयोगिता में वृद्धि घटते हुए दर पर होती है।

माँग: वस्तु की मात्रा जिसे एक उपभोक्ता वस्तु के दिए गए मूल्यों और आय पर खरीदने के लिए इच्छुक और समर्थ है, उस को वस्तु की माँग कहते हैं।
माँग वक्र:
      1. माँग वक्र एक वस्तु की विभिन्न कीमतों पर माँगे जाने वाली मात्रा की रेखीय प्रस्तुति है।
      2. सामान्यत: माँग की मात्रा (Q) को क्षैतिज-अक्ष पर दर्शाया जाता है।
      3. सामान्यत: वस्तु की कीमत (P) को ऊर्ध्वाधर-अक्ष पर दर्शाया जाता है।
Parle-G के लिए एक व्यक्तिगत उपभोक्ता का काल्पनिक माँग वक्र:

  • इस चित्र से यह पता चल रहा है कि माँग वक्र नीचे की ओर ढलवाँ होता है क्योंकि कम कीमतों पर एक उपभोक्ता Parle-G की अधिक मात्रा खरीदने के लिए इच्छुक रहता है और ऊँची कीमतों पर कम मात्रा खरीदने के लिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि वस्तु की कीमतों और उसकी माँग में ऋणात्मक संबंध होता है। इसे माँग का नियम (Law of Demand) कहते हैं।
  • ह्रासमान सीमांत उपयोगिता के नियम से माँग वक्र के ढलवाँ होने की व्याख्या की जा सकती है। ह्रासमान सीमांत उपयोगिता के नियम के अनुसार, जब एक उपभोक्ता Parle-G की अधिक से अधिक मात्रा खरीदता रहेगा, तो उसकी सीमांत उपयोगिता में गिरावट जारी रहेगी। इसलिए एक उपभोक्ता Parle-G की अधिक इकाइयाँ तभी खरीदेगा जब उसकी कीमत गिर जाएगी। इसीलिए माँग वक्र नीचे की ओर ढलवाँ होता है।
अब हम क्रमवाचक उपयोगिता विश्लेषण के अंतर्गत उपभोक्ता के व्यवहार के बारे में चर्चा करेंगे :-
2. क्रमवाचक दृष्टिकोण -

  • क्रमवाचक उपयोगिता विश्लेषण (Cardinal Utility Analysis):
      • वास्तविक जीवन में उपभोक्ता उपयोगिता को संख्या में नहीं मापता, यद्यपि वह विभिन्न वस्तुओं के बंडल (Combinations) को क्रमानुसार चयनित कर सकता है। क्रमवाचक उपयोगिता विश्लेषण के अंतर्गत हम यही मानते हैं कि उपभोक्ता किसी वस्तु से प्राप्त उपयोगिता को क्रमानुसार (अधिक या कम या बराबर) मापता है।
      • जैसे, बंडल A (1,15) केले की एक इकाई और आम की 15 इकाइयाँ दर्शा रहा है और बंडल B (3,16) केले की तीन इकाई और आम की 16 इकाइयाँ। एकदिष्ट अधिमान की स्थिति में एक उपभोक्ता बंडल A की तुलना में बंडल B को अधिक अधिमान देगा, क्योंकि बंडल A की तुलना बंडल B में केले और आम दोनों की ही मात्रा अधिक है।
  • अनधिमान वक्र क्या है?

जब हम वस्तुओं के ऐसे विभिन्न संयोगों (Combinations), जिन पर उपभोक्ता के संतुष्टि (Satisfaction) का स्तर समान होता है, ग्राफ (Graph) पर एक वक्र द्वारा दर्शाते हैं, तब उसे अनधिमान वक्र (Indifference Curve) कहते हैं। अनधिमान वक्र की अवधारणा क्रमवाचक उपयोगिता विश्लेषण पर आधारित है।

यह एक काल्पनिक उदाहरण है जिससे आपको अनधिमान वक्र को बेहतर ढंग से समझने में आसानी होगी:

उपभोक्ता के पास एक बंडल (1,15) है, जिसमें केले की 1 इकाई है और आम की 15 इकाइयाँ हैं। अब, हम उपभोक्ता से पूछते हैं कि केले की एक अतिरिक्त इकाई के बदले वह आम की कितनी इकाइयाँ देने को तैयार है ताकि उसकी संतुष्टि का स्तर अपरिवर्तित रहे। उपभोक्ता केले की एक अतिरिक्त इकाई के लिए आम की 3 इकाइयों को देने के लिए सहमत है। इसलिए, अब उसके पास केले और आम के दो ऐसे बंडल हैं जो उपभोक्ता को समान संतुष्टि देते हैं:

    • केले की 1 इकाई और आम की 15 इकाइयाँ
    • केले की 2 इकाइयाँ और आम की 12 इकाइयाँ

ग्राफ पर सभी बंडलों की चित्रमय प्रस्तुति जो उपभोक्ता को समान स्तर की संतुष्टि देती है, अनधिमान वक्र कहलाती है। इस वक्र पर सभी बंडल (A,B,C,D सहित अन्य सभी बिंदु) उपभोक्ता को समान संतुष्टि देते हैं।

  • सीमांत प्रतिस्थापन दर (MRS): अनधिमान वक्र पर उपभोक्ता को केले की एक अतिरिक्त इकाई के लिए आम की कुछ इकाइयों को छोड़ना पड़ता है ताकि संतुष्टि के समान स्तर को बनाए रखा जा सके। आम की जगह केले के प्रतिस्थापन की सीमांत दर वह दर है, जिस पर उपभोक्ता "केले" की एक अतिरिक्त इकाई के लिए "आम" की कुछ इकाइयाँ छोड़ने के लिए तैयार है, ताकि संतुष्टि का समान स्तर बनाए रखा जा सके। ऐसी स्थिति में "आम की जितनी इकाइयाँ" छोड़नी पड़ेंगी, वही यहाँ "प्रतिस्थापन की सीमान्त दर" का मान होगा।
अर्थशास्त्र में हम प्रतिस्थापन की सीमान्त दर के निरपेक्ष मान को महत्त्व देते हैं:
                                                   MRS= | ∆Y / ∆X |
  • सीमांत प्रतिस्थापन दर का प्रदर्शन:

अनधिमान वक्र की आकृति:-

अनधिमान वक्र की आकृति सीमांत प्रतिस्थापन दर पर निर्भर करती है-

जब प्रतिस्थापन की सीमांत दर निरंतर गिर रही हो (ह्रासमान सीमांत प्रतिस्थापन दर का नियम)-

जैसे-जैसे उपभोक्ता के पास केलों की मात्रा बढ़ती जाती है, केले की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के लिए त्याग किए जाने वाले आमों की मात्रा गिरती जाती है। A बिंदु से B बिंदु पर जाने में, उपभोक्ता 3 आमों का त्याग करता है। B से C पर जाने में, वह 2 आम का त्याग करता है तथा C से D पर जाने में, वह एक आम का त्याग करता है। सीमांत प्रतिस्थापन के गिरने की इस प्रवृत्ति को ह्रासमान सीमांत प्रतिस्थापन दर का नियम कहते हैं। इसीलिए अनधिमान वक्र इस स्थिति में मूल बिंदु के सापेक्ष उत्तल होगा। एक अनधिमान वक्र की यह अति सामान्य आकृति है।

1. जब प्रतिस्थापन की सीमांत दर स्थिर हो (पूर्ण स्थानापन्न वस्तु की स्थिति में)-

    • यदि प्रतिस्थापन की सीमांत दर स्थिर है, तो परिणामस्वरूप एक अनधिमान वक्र नीचे की ओर सीधी रेखा द्वारा दर्शाया जाता है। ऐसा पूर्ण स्थानापन्न वस्तुओं की स्थिति में होता है। इस स्थिति में, उपभोक्ता इन दो सामानों के बीच अंतर नहीं करता है और उन्हें एक ही वस्तु के रूप में मानता है: जैसे कि ₹5 का एक नोट और ₹5 का एक सिक्का।
    • उपभोक्ता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसे ₹5 का एक सिक्का मिले अथवा ₹5 का एक नोट। इसलिए इस बात का विचार किए बिना कि उसके पास ₹5 के कितने नोट हैं, उपभोक्ता ₹5 के एक नोट के लिए केवल एक ₹5 के सिक्के का त्याग करेगा।
    • इसलिए उपभोक्ता के लिए यह दोनों वस्तुएँ पूर्ण स्थानापन्न हैं। इसलिए इस स्थिति में सीमांत प्रतिस्थापन दर स्थिर रहेगी (MRS=1) और उनको प्रदर्शित करने वाला अनधिमान वक्र एक सीधी रेखा होगा।

2. जब प्रतिस्थापन की सीमांत दर बढ़ रही हो-

    • यदि प्रतिस्थापन की सीमांत दर बढ़ रही है, तो अनधिमान वक्र मूल बिंदु के अवतल होगी।
    • यह आम तौर पर सामान्य नहीं है क्योंकि इसका मतलब है कि एक उपभोक्ता वस्तु Y के बढ़ते हुए उपभोग के साथ-साथ वस्तु-X कि अधिक इकाइयों को त्यागता जाएगा।
एकदिष्ट अधिमान (Monotonic Preferences):-

    • यदि उपभोक्ता किन्हीं दो बंडल में से उस बंडल को अधिमान देता है, जिसमें दो वस्तुओं में से कम से कम एक वस्तु की अधिक मात्रा हो और दूसरे बंडल की तुलना में दूसरी वस्तु की भी कम मात्रा न हो तो उसे एकदिष्ट अधिमान कहते हैं।
    • जैसे, बंडल A (1,10) X1 की एक इकाई और X2 की 10 इकाइयाँ दर्शा रहा है और बंडल B (2,10) X1 की 2 इकाई और X2 की 10 इकाइयाँ। एकदिष्ट अधिमान की स्थिति में एक उपभोक्ता बंडल A की तुलना में बंडल B को अधिक अधिमान देगा, क्योंकि बंडल A की तुलना में बंडल B में X1 की मात्रा अधिक है और X2 की मात्रा भी कम नहीं है।
    • इसलिए उच्च अनधिमान वक्र IC2 पर बंडल B एक उपभोक्ता को निम्न अनधिमान वक्र IC1 पर बंडल A की तुलना में अधिक संतुष्टि देगा। इसी तरह IC3 पर बंडल C उच्च IC2 पर बंडल B की तुलना में उपभोक्ता को अधिक संतुष्टि देगा। इसलिए उच्च अनधिमान वक्र संतुष्टि के उच्च स्तर को दर्शाता है।

अनधिमान मानचित्र (Indifference Map):-

सभी बंडलों पर उपभोक्ता के अधिमानों को अनधिमान वक्र-समूहों द्वारा दर्शाया जा सकता है। इन्हें संयुक्त रूप से उपभोक्ता का अनधिमान मानचित्र कहते हैं।

                                                             
अनधिमान वक्र की विशेषताएँ (Features of Indifference curve):-
  1. अनधिमान वक्र दाएँ से बाएँ नीचे की ओर ढलवाँ होता है-
अनधिमान वक्र का ढलान दो वस्तुओं के बीच प्रतिस्थापन की दर को दर्शाता है, अर्थात् वह दर जिस पर कोई उपभोक्ता वस्तु X2 की अधिक मात्रा प्राप्त करने के लिए वस्तु X1 की कुछ मात्रा को छोड़ने को तैयार है। यदि हम यह मान लें कि उपभोक्ता को दोनों वस्तुएँ पसंद हैं, तो उसे वस्तु X2 की मात्रा में वृद्धि के लिए वस्तु X1 की कुछ मात्रा को त्यागना पड़ेगा (और इसलिए वक्र आगे बढ़ने के साथ-साथ नीचे की और जाता जाएगा), ताकि संतुष्टि का समान स्तर बना रहे। क्योंकि X1 और X2 अक्ष वस्तु X1 और वस्तु X2 की मात्रा को क्रमश: दर्शा रहे हैं, इसीलिए अनधिमान वक्र दाएँ से बाएँ नीचे की ओर ढलवाँ होता है।
2.  उच्च अनधिमान वक्र, उपयोगिता के उच्च स्तर को दर्शाता है-
    • उपभोक्ता हमेशा उच्चतर अनधिमान वक्र को अधिक अधिमान देगा क्योंकि उच्च अनधिमान वक्र निचले वाले की तुलना में वस्तुओं की अधिक मात्रा प्रस्तुत करता है। यदि उपभोक्ता किन्हीं दो बंडल में से उस बंडल को अधिमान देता है जिसमें दो वस्तुओं में से कम से कम एक वस्तु की अधिक मात्रा हो और दूसरे बंडल की तुलना में दूसरी वस्तु की भी कम मात्रा न हो, तो उसे एकदिष्ट अधिमान कहते हैं।
    • जैसे, बंडल A (1,10) X1 की एक इकाई और X2 की 10 इकाइयाँ दर्शा रहा है और बंडल B (2,10) X1 की 2 इकाई और X2 की 10 इकाइयाँ। एकदिष्ट अधिमान की स्थिति में एक उपभोक्ता बंडल A की तुलना में बंडल B को अधिक अधिमान देगा, क्योंकि बंडल A की तुलना में बंडल B में X1 की मात्रा अधिक है और X2 की मात्रा भी कम नहीं है।
    • इसलिए उच्च अनधिमान वक्र IC2 पर बंडल B एक उपभोक्ता को निम्न अनधिमान वक्र IC1 पर बंडल B की तुलना में अधिक संतुष्टि देगा। इसी तरह IC3 पर बंडल C, IC2 पर बंडल B की तुलना में उपभोक्ता को अधिक संतुष्टि देगा। इसलिए उच्च अनधिमान वक्र संतुष्टि के उच्च स्तर को दर्शाता है।

3. दो अनधिमान वक्र एक दूसरे को कभी नहीं काटते-

    • नीचे दिए गए चित्र में बिंदु C पर IC1 और IC2 एक दूसरे को काट रहे हैं।
    • क्योंकि बिंदु A और C, IC1 पर स्थित हैं, वे एक व्यक्ति को समान संतुष्टि का स्तर देते हैं।
    • इसी तरह, बिंदु B और C एक व्यक्ति को समान संतुष्टि का स्तर देते हैं, क्योंकि ये दोनों बिंदु एक ही अनधिमान वक्र IC2 पर स्थित हैं।
    • इससे यह स्पष्ट होता है कि बिंदु A और B भी एक व्यक्ति को समान स्तर की संतुष्टि देते हैं, जो तार्किक रूप से बेतुका है क्योंकि बिंदु B पर एक उपभोक्ता को बिंदु A की तुलना में अधिक वस्तुएँ प्राप्त हो रही हैं। इसलिए, कोई भी दो ICs एक दूसरे को छू या काट नहीं सकते हैं।
उपभोक्ता का बजट (बजट सेट एवं बजट रेखा):
बजट प्रतिबंध: वस्तुओं की वर्तमान कीमतों तथा अपनी आय के अनुसार उपभोक्ता ऐसा कोई भी बंडल उसी सीमा तक खरीद सकता है, जब तक उस बंडल की कीमत उसकी आय के बराबर या उससे कम रहे। दूसरे शब्दों में, उपभोक्ता कोई (x1, x2) बंडल निम्न स्थिति में ही खरीद सकता है:-

 p1x1+ p2x2 ≤ M,

जहाँ p1 = पहली वस्तु की एक इकाई की कीमत 

 p2 = दूसरी वस्तु की एक इकाई की कीमत 

 M = उस व्यक्ति की आय

इसे ही बजट प्रतिबंध कहा जाता है।
  • बजट सेट: बजट सेट उन सभी बंडलों का संग्रह है जिन्हें एक उपभोक्ता वर्तमान बाजार कीमतों पर अपनी आय से खरीद सकता है।
  • बजट रेखा: बजट रेखा, बजट सेट के उन सभी बंडलों को दर्शाती है, जिन पर उपभोक्ता की पूरी आय व्यय हो जाती है।
    • मान लीजिए एक उपभोक्ता दो वस्तुएँ खरीदना चाहता है:- केला और आम।
    • उसके पास इन्हें खरीदने के लिए (M) ₹20 हैं। एक केले की कीमत (P1) ₹5 है और एक आम की कीमत (P2) ₹4 है। हम क्षैतिज अक्ष पर केले की मात्रा (X1) को दर्शाएँगे और ऊर्ध्वाधर अक्ष पर आम की मात्रा (X2) को।
    • हम क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर अवरोधन (Intercept) की गणना करके बजट रेखा को चित्रित कर सकते हैं।

क्षैतिज अवरोधन = M/P1= 20/5 = 4 (जब उपभोक्ता केले खरीदने के लिए अपना सारा पैसा खर्च करता है, तो आम की मात्रा = 0)

ऊर्ध्वाधर अवरोधन = M/P2= 20/4 = 5 (जब उपभोक्ता अपना सारा पैसा केवल आम खरीदने के लिए खर्च करता है, तो केले की मात्रा = 0) इन दोनों बिंदुओं (M/P1, M/P2) को मिलाने पर बजट रेखा प्राप्त होती है।

इस रेखा पर वे सभी बंडल A, B, C आदि शामिल हैं, जिनको खरीदने में उपभोक्ता की पूरी आय (M) समाप्त हो रही है। बजट रेखा के नीचे के बिंदु D, E, F आदि उन बंडलों को प्रदर्शित करते हैं, जिन को खरीदने में उपभोक्ता की आय (M) पूरी तरह से समाप्त नहीं हो रही है। उपभोक्ता के पास उपलब्ध इन सभी बंडलों के सेट को बजट सेट कहा जाता है।

इस प्रकार, बजट सेट उन सभी बंडलों का संग्रह है, जिन्हें उपभोक्ता वर्तमान बाजार कीमतों पर अपनी आय से खरीद सकता है।

  • मूल्य अनुपात और बजट रेखा की प्रवणता-
बजट रेखा की प्रवणता, पूरी बजट रेखा पर वस्तु X1 की प्रति इकाई परिवर्तन की स्थिति में वस्तु X2 में हुए परिवर्तन की मात्रा का मापन करती है।
एक सीधी रेखा का समीकरण 
 ⇒ y=mx+c                  (i)  
जहाँ, m = रेखा की प्रवणता (Slope)  
c = ऊर्ध्वाधर अंत:खंड (Vertical Intercept) 
 बजट रेखा का समीकरण: 
  p1x1 + p2x2 = M        (ii) 
 इस समीकरण को निम्न रूप में भी लिखा जा सकता है:


बजट सेट में बदलाव दो कारकों पर निर्भर करता है:
  1. उपभोक्ता की आय में परिवर्तन
  2. वस्तुओं की कीमतों में बदलाव

  • उपभोक्ता की आय में बदलाव के कारण बजट में बदलाव:-
बजट रेखा का समीकरण:
p1x1 + p2x2 = M

इस समीकरण को निम्न रूप में भी लिखा जा सकता है:

          • अब मान लीजिए कि उपभोक्ता की आय M से बदल कर M’ हो जाती है, परंतु दोनों वस्तुओं की कीमत नहीं बदलती,
a. तब नयी बजट रेखा का समीकरण निम्नलिखित होगा: 

                 p1x1 + p2x2 = M’

b. इस समीकरण को निम्न रूप में भी लिखा जा सकता है:                              

महत्वपूर्ण: नई बजट रेखा की प्रवणता (-p1/p2) उपभोक्ता की आय में परिवर्तन होने से पहले की बजट रेखा की प्रवणता (-p1/p2) के समान ही होगी। उसमें कोई बदलाव नहीं आएगा।

विवरण: आय में बदलाव के कारण ऊर्ध्वाधर अंत:खंड और समस्तरीय अंत:खंड दोनों बदल जाते हैं।

            • यदि आय में वृद्धि होती है, अर्थात यदि M’ > M, तो उपभोक्ता विद्यमान बाज़ार कीमतों पर पहले की तुलना में दोनों वस्तुओं की अधिक मात्रा खरीद सकता है। तब ऊर्ध्वाधर अंत:खंड और समस्तरीय अंत:खंड और बढ़ जाते हैं और बजट रेखा का समानांतर बाह्य विस्थापन होता है।
            • इसी प्रकार यदि आय घटती है, अर्थात यदि M’ < M, तो अब उपभोक्ता विद्यमान बाज़ार कीमतों पर पहले की तुलना में दोनों वस्तुओं की कम मात्रा खरीद सकता है। ऊर्ध्वाधर अंत:खंड और समस्तरीय अंत:खंड दोनों छोटे हो जाते हैं तथा इस प्रकार बजट रेखा में समानांतर आवक स्थानापन्न (अंदर की ओर या फिर बाईं ओर शिफ़्ट) होता है।
  • वस्तुओं की कीमतों में परिवर्तन से बजट सेट में बदलाव:-
    • बजट रेखा का समीकरण:

      p1x1 + p2x2 = M

      इस समीकरण को निम्न रूप में भी लिखा जा सकता है:

          • अब मान लीजिए, कि पहली वस्तु की कीमत p1 से बदल कर p’1 हो जाती है, परंतु दूसरी वस्तु की कीमत तथा उपभोक्ता की आय नहीं बदलती,
                  1. तब नयी बजट रेखा का समीकरण निम्नलिखित होगा:
p’1x1 + p2x2 = M
         b. इस समीकरण को निम्न रूप में भी लिखा जा सकता है:
                                 

महत्वपूर्ण: पहली वस्तु की कीमत में परिवर्तन के पश्चात, बजट रेखा की प्रवणता तथा क्षैतिज अंत:खंड में बदलाव आता है, परंतु बजट रेखा के ऊर्ध्वाधर अंत:खंड में कोई परिवर्तन नहीं आता है।

विवरण:

    • यदि पहली वस्तु की कीमत बढ़ती है, अर्थात यदि p'1 > p1 , तो बजट रेखा की प्रवणता का निरपेक्ष मान |-p1/p2| बढ़ जाता है और इस प्रकार बजट रेखा अधिक प्रवण हो जाती है।
    • यदि पहली वस्तु की कीमत घट जाती है, अर्थात यदि p'1 < p1, तो बजट रेखा की प्रवणता का निरपेक्ष मान |-p1/p2| घट जाता है और इस प्रकार बजट रेखा अधिक सपाट हो जाती है।
    • अब मान लीजिए, कि दूसरी वस्तु की कीमत p2 से बदल कर p'2 हो जाती है, परंतु पहली वस्तु की कीमत तथा उपभोक्ता की आय नहीं बदलती,
          1. तब नयी बजट रेखा का समीकरण निम्नलिखित होगा:
p1x1 + p’2x2 = M
            b. इस समीकरण को निम्न रूप में भी लिखा जा सकता है:
                               

महत्वपूर्ण: दूसरी वस्तु की कीमत में परिवर्तन के पश्चात्, बजट रेखा की प्रवणता तथा ऊर्ध्वाधर अंत:खंड में बदलाव आता है परंतु बजट रेखा के क्षैतिज अंत:खंड में कोई परिवर्तन नहीं आता है।
विवरण: यदि दूसरी वस्तु की कीमत बढ़ती है, अर्थात यदि p'2 > p2, तो बजट रेखा की प्रवणता का निरपेक्ष मान घट जाता है और इस प्रकार बजट रेखा अधिक प्रवण हो जाती है। यदि दूसरी वस्तु की कीमत घट जाती है, अर्थात यदि p'2 < p2 होता है, तो बजट रेखा की प्रवणता का निरपेक्ष मान बढ़ जाता है और इस प्रकार बजट रेखा अधिक सपाट हो जाती है।

  • OPTIMAL CHOICE OF THE CONSUMER (उपभोक्ता का इष्टतम चयन)
  • मान्यताएँ (Assumptions):
  1. उपभोक्ता उपलब्ध सभी बंडलों में से अपने उपभोग बंडल का चयन अपनी रुचि तथा अधिमानों के अनुसार बजट सेट के बंडलों के आधार पर करता है।
  1. उपभोक्ता के पास यह जानकारी होती है कि उसके लिए क्या अच्छा और बुरा है।
  1. सभी उपभोक्ता तर्कसंगत हैं।
  •  उपभोक्ता का इष्टतम चयन:
  1. उपभोक्ता का इष्टतम चयन अनधिमान मानचित्र और बजट रेखा का अध्ययन करके प्राप्त किया जा सकता है।
  1. एक अनधिमान मानचित्र पर, उच्च अनधिमान वक्र किसी भी नीचे वाले अनधिमान वक्र की तुलना में उच्च स्तर की संतुष्टि को दर्शाता है। इसलिए एक उपभोक्ता हमेशा अपने बजट बाध्यताओं के अंदर रहते हुए, उच्चतम संभव अनधिमान वक्र पर बने रहने की कोशिश करता है।
3. ऊपर दिए गए चित्र में IC1, IC2 और IC3 तीन अनधिमान वक्र हैं और AB बजट रेखा है। बजट बाध्यताओं के कारण एक उपभोक्ता जिस उच्चतम अनधिमान वक्र पर पहुँच सकता है, IC2 है। बिंदु ‘E’ पर अनधिमान वक्र IC2 की स्पर्शरेखा बजट रेखा ही है।
4. यह उपभोक्ता के इष्टतम चयन का बिंदु है।

उपभोक्ता संतुलन से अभिप्राय उपभोक्ता के इष्टतम चयन से है। यह तब प्राप्त होता है जब उपभोक्ता अधिकतम संभव संतुष्टि प्राप्त करता है। तटस्थता वक्र विश्लेषण द्वारा उपभोक्ता अपना संतुलन तब प्राप्त करता है जब:

(क) IC का ढलान (सीमांत प्रतिस्थापन दर) = बजट रेखा का ढलान

(ख) तटस्थता वक्र मूल बिंदु की ओर उन्नतोदर होता है। (इस स्थिति को हम तटस्थता वक्र पढ़ते वक्त स्थापित कर चुके हैं।)

अब इन्हें विस्तृत रूप से समझते हैं:-

(क) MRSxy = P/ Pyसीमांत प्रतिस्थापन दर से तात्पर्य वस्तु Y की उस मात्रा से है, जो उपभोक्ता वस्तु X की प्रत्येक अगली इकाई के लिए देने को तैयार है। यदि MRSxy > Px / Py, तो उपभोक्ता के लिए यह वांछनीय है कि वह वस्तु X की मात्रा बढ़ाए तथा वस्तु Y की मात्रा कम करे। दूसरी ओर यदि MRSxy < Px / Py, तो उपभोक्ता के लिए वांछनीय है कि वह वस्तु Y की मात्रा बढ़ाए तथा वस्तु X की मात्रा कम करे। यह तब तक होगा जब तक MRSxy = Px / Py न हो।

(ख) संतुलन बिंदु पर तटस्थता वक्र उन्नतोदर होना चाहिए। इसका कारण यह है कि तटस्थता वक्र का उन्नतोदर होना घटती हुई सीमांत प्रतिस्थापन दर (MRS) को व्यक्त करता है। उपभोक्ता वस्तु X कि प्रत्येक अगली इकाई के लिए वस्तु Y की कम से कम मात्रा त्यागने को इच्छुक होता है। उपभोक्ता संतुलन को ऊपर एक रेखाचित्र के माध्यम से दिखाया गया है। चित्र से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार उपभोक्ता संतुष्टि के अधिकतमकरण के रूप में अपना संतुलन प्राप्त करता है। यह माना जाता है कि उपभोक्ता अपनी दी हुई आय को केवल वस्तु X तथा वस्तु Y पर खर्च करता है। Px तथा Py बाजार में दिए हुए हैं। उपभोक्ता बिंदु ‘E’ पर संतुलन में है, जहाँ उपभोक्ता संतुलन की दोनों शर्तें पूर्ण हो रही हैं, अर्थात:

(i)  MRSxy = Px / Py

(ii) तटस्थता वक्र मूल बिंदु की ओर उन्नतोदर होता है।


  • माँग वक्र तथा माँग का नियम-

माँग-

  1. किसी वस्तु की मात्रा जो एक उपभोक्ता अन्य सम्बंधित वस्तुओं की कीमतों, उपभोक्ता की रुचियों एवं अधिमानों एवं उसकी आय को निश्चित रखते हुए खरीदने को तैयार है और क्षमता रखता है, को वस्तु की माँग कहते हैं।
  1. उपभोक्ता की माँग इसकी कीमत के एक फलन के रूप में इस प्रकार लिखी जा सकती है:

                   Qd = f(p) 

           जहाँ, Qd = वस्तु की मांगे जाने वाली मात्रा और

                     p = वस्तु की कीमत है।

माँग वक्र-

माँग फलन का ग्राफीय चित्रण माँग वक्र कहलाता है।     

ऊपर दिए गए चित्र में आप देख सकते हैं कि माँग वक्र का ढलान नीचे की ओर ढलवाँ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उपभोक्ता की आय, अन्य वस्तुओं की कीमत तथा उपभोक्ता की रूचियों एवं अधिमानों को स्थिर रखते हुए, किसी वस्तु की कीमत एवं माँग की गई मात्रा में ऋणात्मक संबंध होता है। इसे माँग का नियम कहते हैं।

  • जब वस्तु की कीमत (P) बढ़ती है, तब वस्तु की माँग (Q) गिर जाती है।
  • जब वस्तु की कीमत (P) गिरती है, तब वस्तु की माँग (Q) बढ़ जाती है।

  • फलन:
  1. फलन: y = f(x) दो चर (परिवर्त) x और y के बीच का ऐसा संबंध है जहाँ x के प्रत्येक मान के लिए चर y का एक अद्वितीय मान है। f(x) एक ऐसा नियम है, जो x के प्रत्येक मान के लिए y के मान के रूप में एक अद्वितीय मान प्रदान करता है। क्योंकि y का मान x के मान पर निर्भर करता है, इसलिए y को परतंत्र चर (परिवर्त) कहते हैं और x को स्वतंत्र चर (परिवर्त) कहते हैं।
  1. आमतौर पर, एक ग्राफ में  स्वतंत्र चर को क्षैतिज अक्ष (x-axis) पर निरूपित किया जाता है और आश्रित चर को ऊर्ध्वाधर अक्ष (y-axis) पर निरूपित किया जाता है। हालाँकि, अर्थशास्त्र में सामान्यतः इसके विपरीत अक्षों को प्रयोग करने की परंपरा दिखती है। उदाहरण के लिए, माँग वक्र में स्वतंत्र चर (मूल्य) को ऊर्ध्वाधर अक्ष पर निरूपित किया जाता है और परतंत्र चर (मात्रा) को क्षैतिज अक्ष पर निरूपित किया जाता है।
  1. उपभोक्ता द्वारा किसी वस्तु की मात्रा की माँग और उस वस्तु के मूल्य के बीच संबंध नकारात्मक होता है। दूसरे शब्दों में, एक वस्तु की मात्रा जो एक उपभोक्ता का इष्टतम चयन होगी, वस्तु की कीमत गिरने के साथ बढ़ने की संभावना है और वस्तु की कीमत में वृद्धि के साथ घटने की संभावना है। इसलिए माँग का फलन एक ह्रासमान फलन है।
  1. यदि x के मान में वृद्धि के साथ y के मान में भी वृद्धि होती रहती है तो ऐसा फलन y = f (x) एक वर्धमान फलन (Increasing function) है।        

 (वर्धमान फलन का एक ग्राफीय उदहारण)


B. यदि x के मान में वृद्धि के साथ y का मान कम होता जाता है, तो ऐसा फलन y = f (x) एक ह्रासमान फलन (decreasing function) है।
(उदहारण: माँग वक्र)
  • अनधिमान वक्रों तथा बजट बाध्यताओं से माँग वक्र की व्युत्पत्ति:-
  1. एक माँग वक्र दर्शाता है कि विभिन्न कीमतों पर एक वस्तु की कितनी मात्रा खरीदी जाएगी या माँग की जाएगी, यह मानते हुए कि किसी उपभोक्ता की पसंद और प्राथमिकताएँ, उसकी आय, सभी संबंधित वस्तुओं की कीमतें स्थिर रहती हैं।
  1. नीचे दिए गए चित्र में अनधिमान वक्र और बजट बाध्यताओं से माँग वक्र की व्युत्पत्ति दिखाई गई है:-

ऊपर वाले चित्र का ऊपरी पैनल मूल्य प्रभाव दिखाता है जहाँ वस्तु X एक सामान्य वस्तु है। AB प्रारंभिक बजट रेखा है।

  1. मान लीजिए कि वस्तु X की प्रारंभिक कीमत (px) OP है। बिंदु ‘e’ अनधिमान वक्र IC पर प्रारंभिक इष्टतम उपभोग संयोजन है। उपभोक्ता X की OX इकाइयों को खरीदता है। जब X की कीमत (px) OP1 तक गिर जाती है, तो बजट बाधा (या बजट रेखा) AB1 में बदल जाती है। इष्टतम उपभोग संयोजन अधिमान वक्र IC1 पर e1 पर पहुँच जाता है।
  1. उपभोक्ता अब OX से OX1 इकाइयों तक वस्तु X का उपभोग बढ़ाता है। प्रारंभिक मूल्य OP पर, वस्तु X की माँग की मात्रा OX है। यह बिंदु 'a' द्वारा दिखाया गया है। कम कीमत OP1 पर, माँग की गई मात्रा बढ़कर OX1 हो जाती है। यह बिंदु ‘b’ द्वारा दिखाया गया है। DD1 बिंदु ‘a’ और ‘b’ को मिलाकर प्राप्त किया गया वक्र है। माँग वक्र नीचे की ओर झुका हुआ है, जो कि वस्तु X के लिए कीमत और माँग की गई मात्रा के बीच का ऋणात्मक संबंध दर्शाता है।
  • माँग को प्रभावित करने वाले कारक:
  1. उपभोक्ता की आय में परिवर्तन के कारण माँग में परिवर्तन:- उपभोक्ता की आय में परिवर्तन होने पर किसी वस्तु के लिए उपभोक्ता की माँग बढ़ या घट सकती है और यह वस्तु के स्वरूप पर निर्भर करता है:-

  • सामान्य वस्तुएँ: वे वस्तुएँ जिनकी माँग में वृद्धि होती है जब उपभोक्ता की आय बढ़ती है तथा माँग में कमी हो जाती है जब उपभोक्ता की आय घटती है, सामान्य वस्तुएँ कहलाती है। अतः एक उपभोक्ता की माँग सामान्य वस्तुओं के लिए उसी दिशा में गति करती है, जिस दिशा में उपभोक्ता की आय।

उपभोक्ता की आय में वृद्धि के कारण उपभोक्ता द्वारा सामान्य वस्तुओं की माँग में  बढ़ोतरी -

उपभोक्ता की आय में ह्रास के कारण उपभोक्ता द्वारा सामान्य वस्तुओं की माँग में गिरावट

  • निम्नस्तरीय वस्तुएँ: निम्नस्तरीय वस्तुएँ ऐसी वस्तुओं को कहा जाता है जिनका उपभोक्ता की आय के साथ विपरीत दिशा में संबंध होता है। अर्थात उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने से जिन वस्तुओं की उपभोक्ता द्वारा माँग गिरा दी जाती है और उपभोक्ता की आय में कमी होने से जिन वस्तुओं की उपभोक्ता द्वारा माँग बढ़ा दी जाती है, उन्हें निम्नस्तरीय वस्तुएँ कहा जाता है। उदाहरण के लिए मोटा अनाज (जैसे ज्वार बाजरा), निम्नस्तरीय खाद्य पदार्थ आदि।
  • उपभोक्ता की आय में वृद्धि के कारण उपभोक्ता द्वारा निम्नस्तरीय वस्तुओं की माँग में गिरावट-
  • उपभोक्ता की आय में ह्रास के कारण उपभोक्ता द्वारा निम्नस्तरीय वस्तुओं की माँग में वृद्धि-
  • गिफिन वस्तुएँ: वे वस्तुएँ है जिन पर सामान्यत: माँग का नियम लागू नहीं होता। मतलब वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी माँग और बढ़ जाती है तथा कीमत कम होने पर माँग घट जाती है। इसलिए जब भी गिफिन वस्तु की कीमत में वृद्धि होती है, उपभोक्ता दूसरी वस्तुओं के उपयोग को कम करके गिफिन वस्तुओं की माँग बढ़ा देता है। गिफिन वस्तुओं की स्थिति में प्रतिस्थापन प्रभाव और आय प्रभाव एक दूसरे के विपरीत दिशा में कार्य करते हैं।
  1. यदि प्रतिस्थापन प्रभाव, आय प्रभाव से अधिक प्रभावी है तो ऐसी स्थिति में इन वस्तुओं की माँग और कीमतों में ऋणात्मक संबंध स्थापित होता है। (Downward Sloping Demand Curve)
  1. यदि प्रतिस्थापन प्रभाव आय प्रभाव से कम है, तो ऐसी स्थिति में इन वस्तुओं की माँग और कीमतों में सकारात्मक संबंध स्थापित होता है। (Upward Sloping Demand Curve)        
  1. प्रतिस्थानापन्न और पूरक वस्तुओं की कीमतों में परिवर्तन:-
  • प्रतिस्थानापन्न वस्तुएँ: वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के बदले में प्रयोग में लाई जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, कॉफी चाय का स्थानापन्न है। क्योंकि चाय कॉफी का स्थानापन्न है, अतः यदि कॉफी की कीमत में वृद्धि होती है, तो उपभोक्ता चाय की माँग बढ़ा सकते हैं और इसके विपरीत भी। इसीलिए साधारणतः किसी वस्तु की माँग उसके स्थानापन्न वस्तु की कीमत की दिशा में गति करती है।        
  • पूरक वस्तुएँ: जिन वस्तुओं का साथ साथ प्रयोग किया जा सकता है, उन्हें पूरक वस्तुएँ कहा जाता है। उदाहरण के लिए, चाय और चीनी, जूते और जुराब, कलम और स्याही। क्योंकि चाय तथा चीनी एक साथ उपयोग में लाए जाते हैं, संभव है कि चीनी की कीमत में वृद्धि उपभोक्ता का चाय के लिए माँग घटा सकती है और इसके विपरीत भी। इसलिए किसी वस्तु की माँग की गति उसके पूरक वस्तुओं की कीमत के विपरीत दिशा में करती है।       

  • माँग वक्र की दिशा में गति और माँग वक्र का खिसकाव:-
  1. माँग वक्र की दिशा में गति:
  • वस्तु की अपनी कीमत में गिरावट के कारण माँग में विस्तार होता है।

                 

  • वस्तु की अपनी कीमत में वृद्धि के कारण माँग में संकुचन होता है।

                   

  1. माँग वक्र का शिफ्ट:
  • स्थानापन्न वस्तुओं की कीमतों में कमी, पूरक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, उपभोक्ता की आय में कमी आदि के कारण माँग वक्र का अंदर या बाईं ओर खिसकाव होता है।

                   

  • स्थानापन्न वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि, पूरक वस्तुओं की कीमतों में कमी, उपभोक्ता की आय में वृद्धि आदि के कारण माँग वक्र का बाहर या दाईं ओर खिसकाव होता है।

                         

  • बाज़ार माँग:-
  • किसी वस्तु के लिए एक विशेष कीमत पर बाज़ार माँग सभी उपभोक्ताओं की सम्मिलित माँग का जोड़ होती है। किसी भी वस्तु के लिए बाज़ार माँग व्यक्ति विशेष के माँग वक्रों से प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए अलग-अलग व्यक्तियों के माँग वक्रों को जोड़ना होगा। व्यक्तिगत माँग वक्रों को जोड़ने की इस विधि को समस्तरीय संकलन (Horizontal Summation) कहा जाता है।
  • उदाहरण के लिए, एक ऐसे बाज़ार की कल्पना करते हैं जहाँ केवल दो उपभोक्ता हैं और इन दोनों के माँग समीकरण निम्नलिखित हैं-
  • माँग की कीमत लोच: माँग की कीमत लोच यह समझने का एक तरीका है कि कीमतों में परिवर्तन होने से फलस्वरूप माँग की मात्रा में कितना परिवर्तन होता है।

माँग की कीमत लोच को मापने की निम्नलिखित विधियाँ हैं:-

1. आनुपातिक या प्रतिशत विधि (Percentage Method)

2. कुल व्यय विधि (Total Expenditure Method)

3. ज्यामिति अथवा बिंदु विधि (Geometric or Point Method)

  1. आनुपातिक या प्रतिशत विधि: इस विधि के अनुसार माँग की लोच निकालने के लिए माँग में होने वाले आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन को कीमत के आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन से भाग दिया जाता है।


  1. कुल व्यय विधि: इस विधि में कीमत में परिवर्तन के कारण कुल खर्च में होने वाले परिवर्तन के आधार पर माँग की कीमत लोच मापी जाती है।
  • जब कुल व्यय कीमत में परिवर्तन होने के बाद भी समान रहता है तो मांग की लोच इकाई | eD | = 1 के बराबर होती है।
  • यदि कीमत में परिवर्तन के बाद कुल व्यय पहले से कम हो जाता है तो माँग की लोच इकाई से कम | eD | < 1 होती है, तथा
  • कुल व्यय पहले से ज्यादा होने पर माँग की लोच इकाई से अधिक | eD> 1 हो जाती है।

  1. ज्यामिति या बिंदू विधि: इस विधि का प्रयोग माँग वक्र के किसी बिंदु पर माँग की कीमत लोच का पता लगाने के लिए किया जाता है। माँग वक्र के विभिन्न बिंदुओं पर कीमत लोच बराबर नहीं होती है वह अलग अलग होती है। जिस बिंदु पर भी माँग की लोच ज्ञात करनी होती है उस बिंदु से ऊपर के हिस्से तथा नीचे के हिस्से की सहायता से निम्न सूत्र द्वारा माँग की कीमत लोच ज्ञात की जाती है:

eD = बिंदु से नीचे का हिस्सा / बिंदु से ऊपर का हिस्सा

  • यदि दोनों हिस्से बराबर होते हैं तो माँग की लोच इकाई | eD | = 1 के बराबर होती है
  • यदि नीचे का हिस्सा ऊपर के हिस्से से ज्यादा होता है तो माँग की लोच इकाई से ज्यादा | eD | > 1 होती है, तथा
  • यदि नीचे का हिस्सा ऊपर के हिस्से से कम होता है तो माँग की लोच इकाई से कम | eD | < 1 होती है।

यदि माँग वक्र एक सीधी रेखा न होकर वक्र की आकृति में होता है तो जिस बिंदु पर माँग की कीमत लोच ज्ञात करनी होती है उस बिंदु से स्पर्श रेखा खींच कर उपरोक्त विधि से माँग की लोच ज्ञात कर लेते हैं।

     

  • स्थिर लोच माँग वक्र: रैखिक माँग वक्र पर विभिन्न बिंदुओं पर, माँग की लोच 0 से ∞ तक परिवर्तित होती रहती है। परंतु कभी-कभी माँग वक्र ऐसा भी हो सकता है कि माँग की लोच पूरी तरह स्थिर रहे। नीचे बताई गई स्थितियों में ऐसे ही माँग वक्रों को दिखाया गया है:
  1. ऊर्ध्वस्तर माँग वक्र:
  1. ऊर्ध्वस्तर माँग वक्र यह दर्शाता है कि वस्तु की कीमत में चाहे कितना भी परिवर्तन हो जाए, उसकी माँग में कोई भी परिवर्तन नहीं होगा।
  1. ऊर्ध्वस्तर माँग वक्र पूर्णतया बेलोचदार माँग को दर्शाता है। ।eD। = 0

  1. क्षैतिजीय माँग वक्र:
  1. क्षैतिजीय माँग वक्र हमें यह दिखाता है कि बाजार एक ही कीमत पर स्थिर है, चाहे वस्तु की माँग का स्तर कुछ भी हो। और यदि कीमत थोड़ी भी बढ़ जाए, तो पूरी माँग ‘0’ जाती है।
  1. क्षैतिजीय माँग वक्र पूर्णतया लोचदार माँग को दर्शाता है। ।eD। = ∞

 

  1. आयताकार अतिपरवलय माँग वक्र:
  1. आयताकार अतिपरवलय (समकोणीय अतिपरवलय) माँग वक्र का यह गुण होता है कि माँग वक्र की दिशा में कीमत में प्रतिशत परिवर्तन, माँग की गई मात्रा में सदैव समान परिवर्तन लाता है। इसलिए इस पूरे वक्र पर माँग की कीमत लोच इकाई ही रहती है।
  1. आयताकार अतिपरवलय माँग वक्र के प्रत्येक बिंदु पर ।eD। = 1 होता है, इस कारण से इस माँग वक्र को इकाई लोचदार माँग वक्र भी कहा जाता है।

  • माँग की लोच को प्रभावित करने वाले कारक:
  1. वस्तु की प्रकृति: वस्तु के प्रकृति माँग की लोच को प्रभावित करती है। आवश्यक वस्तुओं की माँग बेलोच होती है जबकि आरामदायक आवश्यकता की वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।
  1. समय का प्रभाव: जितना कम समय होता है वस्तु की माँग की लोच उतनी ही कम लोचदार होगी और इसके विरुद्ध जितना समय अधिक होगा, वस्तु की माँग की लोच उतनी ही अधिक लोचदार होगी।
  1. उपभोक्ता की आदत: यदि कोई उपभोक्ता किसी वस्तु के बिना रह नहीं सकता है। तो उसके लिए उस वस्तु की माँग बेलोचदार होगी।
  1. प्रतिस्थापन वस्तु की पूर्ति: जिन वस्तुओं की स्थानापन्न वस्तुएँ बाजार में सरलता से मिल जाती हैं उनकी लोच तुलनात्मक रूप से ज्यादा होती है।
  2. वस्तु के विभिन्न उपयोग: जिस वस्तु के उपयोग अनेक होते हैं, उसकी माँग की लोच भी ज्यादा होती है, जैसे: दूध।