Class 11th

भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास (Indian Economic Development)

Chapter 3

उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण: एक समीक्षा

(Liberalisation, Privatisation and Globalisation: An Appraisal)

  • भारत में आर्थिक सुधार शुरू करने निम्नलिखित कारण रहे:
  1. वर्ष 1991 में भारत को विदेशी ऋणों के मामले में संकट का सामना करना पड़ा। सरकार अपने विदेशी ऋण के भुगतान करने की स्थिति में नहीं थी ।
  2. पेट्रोल आदि आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए सामान्य रूप से रखा गया विदेशी मुद्रा रिज़र्व 15 दिनों के लिए आवश्यक आयात का भुगतान करने योग्य भी नहीं बचा था।
  3. बढ़ते हुए ख़र्चों की पूर्ति के लिए सार्वजनिक उद्यमों से भी अधिक आय अर्जित नहीं हो पा रही थी। कई बार तो अंतरराष्ट्रीय संस्थानों तथा अन्य देशों से उधार ली गई विदेशी मुद्रा को उपभोग कार्यों पर ही खर्च कर दिया गया।
  4. विदेशी मुद्रा के सुरक्षित भंडार इतने क्षीण हो गए थे कि देश की 2 सप्ताह की आयात आवश्यकता को भी पूरा नहीं कर पाते थे।
  5. अंतरराष्ट्रीय उधारदाताओं का ब्याज़ चुकाने के लिए भारत सरकार के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं बची थी। इतना ही नहीं कई देश या अंतरराष्ट्रीय निवेशक भी भारत में निवेश नहीं करना चाहता था।
  6. इस स्थिति में भारत ने अंतरराष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक जिसे सामान्यत: ‘विश्व बैंक’ भी कहा जाता है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरवाज़ा खटखटाया। उनसे देश को 7 बिलियन डॉलर का ऋण उस संकट का सामना करने के लिए मिला।
  7. किंतु, उस ऋण को पाने के लिए इन संस्थाओं ने भारत सरकार पर कुछ शर्तें लगाई; जैसे, सरकार उदारीकरण करेगी, निजी क्षेत्र पर लगे प्रतिबंधों को हटाएगी तथा अन्य क्षेत्रों में सरकारी हस्तक्षेप कम करेगी। साथ ही यह भी अपेक्षा की गई कि भारत और अन्य देशों के बीच विदेशी व्यापार पर लगे प्रतिबंध भी हटाए जाएंगे।
  8. भारत ने यह शर्तें मान ली और नई आर्थिक नीति की घोषणा की। इन नीतियों को दो उप-समूहों में विभाजित किया जा सकता है: स्थायित्वकारी उपाय तथा संरचनात्मक सुधार के उपाय
  • स्थायित्वकारी उपाय अल्पकालिक होते हैं। इनका उद्देश्य पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार बनाए रखना और बढ़ती हुई कीमतों पर अंकुश रखना होता है।
  • संरचनात्मक उपाय दीर्घकालिक होते हैं। इनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था की कुशलता को सुधारना तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों की अनम्यताओं को दूर कर भारत की अंतरराष्ट्रीय स्पर्धक  क्षमता को संवर्धित करना है।
  1. इन नीतियों के तीन उप-वर्ग निम्नलिखित हैं:
  • उदारीकरण
  • निजीकरण और
  • वैश्वीकरण

  • उदारीकरण (Liberalisation):

उदारीकरण एक नई आर्थिक नीति है जिसके द्वारा देश में ऐसा आर्थिक वातावरण स्थापित करने के प्रयास किये जाते हैं जिससे देश के व्यवसाय व उद्योग स्वतंत्र रूप से विकसित हो सकें।

  • औद्योगिक क्षेत्रक का विनियमीकरण: 
  1. उदारीकरण से पहले भारत में अनेक नियमन प्रणालियाँ लागू थी जिसमें:
  • सबसे पहले औद्योगिक लाइसेंस की व्यवस्था थी, जिसमें उद्यमी को एक फर्म स्थापित करने, बंद करने या उत्पादन की मात्रा का निर्धारण करने के लिए किसी ना किसी सरकारी अधिकारी की अनुमति प्राप्त करनी होती थी।
  • उद्योगों में  निजी उद्यमियों का प्रवेश ही निषिद्ध था।
  • कुछ वस्तुओं का उत्पादन केवल लघु उद्योग ही कर सकते थे और सभी निजी उद्यमियों को कुछ औद्योगिक उत्पादों की कीमतों के निर्धारण तथा वितरण के बारे में भी अनेक नियंत्रणों का पालन करना पड़ता था। 1991 के बाद से आरंभ हुई सुधार नीतियों ने इनमें से अनेक प्रतिबंध को समाप्त कर दिया।
  1. एल्कोहल, सिगरेट, जोखिम भरे रसायनों, औद्योगिक विस्फोटकों, इलेक्ट्रॉनिक, विमानन तथा औषधि-भेषज; इन छ: उत्पाद श्रेणियों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।
  2. सार्वजनिक क्षेत्रक के लिए सुरक्षित उद्योगों में भी केवल प्रतिरक्षा उपकरण, परमाणु ऊर्जा उत्पादन और रेल परिवहन ही बचे हैं।
  3. लघु उद्योग द्वारा उत्पादित अनेक वस्तुएँ अनारक्षित श्रेणी में आ गई है।
  4. अनेक उद्योगों में अब बाजार को कीमतों के निर्धारण की अनुमति मिल गई है।

  • वित्तीय क्षेत्रक (Financial Sector):

वित्त के क्षेत्रक में व्यवसायिक और निवेश बैंक, स्टॉक एक्सचेंज तथा विदेशी मुद्रा बाजार जैसी वित्तीय संस्थाएँ सम्मिलित हैं। भारत में वित्तीय क्षेत्र का नियंत्रण रिजर्व बैंक का दायित्व है।

  • वित्तीय क्षेत्रक सुधार:
  1. वित्त क्षेत्र सुधार नीतियों का एक प्रमुख उद्देश्य रिजर्व बैंक की इस नियंत्रक की भूमिका को हटाकर उसे इस क्षेत्र के एक सहायक की भूमिका तक सीमित कर देना था।

       भारतीय रिजर्व बैंक की भूमिका एक नियंत्रक के रूप में:

  • भारतीय रिजर्व बैंक के विभिन्न नियम और कसौटियों के माध्यम से ही बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थानों के कार्यों का नियमन होता है।
  • रिजर्व बैंक ही तय करता है कि कोई बैंक अपने पास कितनी मुद्रा जमा रख सकता है।
  • रिजर्व बैंक की ब्याज की दरों को नियत करता है।
  • क्षेत्रकों को उधार देने की प्रकृति इत्यादि को भी रिजर्व बैंक तय करता है।
  • वित्तीय क्षेत्रक सुधार नीतियों द्वारा रिजर्व बैंक की इस नियंत्रक की भूमिका को हटाकर एक सहायक की भूमिका तक सीमित कर दिया गया। इससे वित्तीय क्षेत्रक रिजर्व बैंक से सलाह लिये बिना ही कई मामलों में अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हो जाएगा।
  1. सुधार नीतियों ने वित्तीय क्षेत्रक में भारतीय और विदेशी निजी बैंकों को पदार्पण करने का अवसर दिया।
  2. बैंकों की पूँजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 50% कर दी गई।
  3. कुछ निश्चित शर्तों को पूरा करने वाले बैंक रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना ही शाखाएँ खोल सकते हैं तथा पुरानी शाखाओं के जाल को अधिक युक्तिसंगत बना सकते हैं।
  4. बैंकों को अब देश-विदेश से और अधिक संसाधन जुटाने की अनुमति मिल गई थी।
  5. विदेशी निवेश संस्थाओं तथा व्यापारी बैंक, म्यूच्यूअल फंड और पेंशन कोष आदि को अब भारतीय वित्तीय बाजारों में निवेश की अनुमति मिल गई है।

  • कर व्यवस्था में सुधार:
  • इन सुधारों का संबंध सरकार की कराधान और सार्वजनिक व्यय नीतियों से है, जिन्हें सामूहिक रूप से राजकोषीय नीतियाँ भी कहा जाता है।
  • करों के दो प्रकार होते हैं:
  1. प्रत्यक्ष कर: प्रत्यक्ष कर व्यक्तियों की आय और व्यवसाय उद्यमों के लाभ पर लगाए जाते हैं।
  2. अप्रत्यक्ष कर: देश में तैयार किए गए वस्तुओं पर लगने वाला उत्पादन शुल्क, आयात या निर्यात किए जाने वाले वस्तुओं पर लगने वाले सीमा शुल्क आदि अप्रत्यक्ष कर हैं।

  • प्रत्यक्ष करों में कमी: 1991 के बाद व्यक्तिगत आय पर लगाए गए करो कि दरों में निरंतर कमी की गई है।

इसके पीछे मुख्य धारणा यह थी कि उच्च कर दरों के कारण ही कर-वंचन होता है। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया गया कि करो की दरें अधिक ऊँची नहीं रखी जाए ताकि बचतों को बढ़ावा मिले और लोग स्वेच्छा से अपनी आय का विवरण दें।

  • अप्रत्यक्ष करों में सुधार: अप्रत्यक्ष करों में भी सुधार किए गए ताकि सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के लिए एक साझे राष्ट्रीय स्तर के बाजार की रचना की जा सके।

  • सरलीकरण: करदाताओं के द्वारा नियम पालन को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक प्रक्रियाओं को सरल बनाया गया।

  • विदेशी विनिमय सुधार:
  • रुपये का अवमूल्यन (Devaluation): 1991 में भुगतान संतुलन की समस्या के तात्कालिक निदान के लिए अन्य देशों की मुद्रा की तुलना में रुपए का अवमूल्यन किया गया। इससे देश में विदेशी मुद्रा के आगमन में वृद्धि हुई।
  • इसके अंतर्गत विदेशी विनिमय बाजार में रुपए के मूल्य के निर्धारण को भी सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने की पहल की गई। बाजार ही विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति के आधार पर विनिमय दरों को निर्धारित कर रहा है।

  • व्यापार और निवेश नीति सुधार:
  • आयात और निर्यात पर परिमाणात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति की गई।
  • उच्च प्रशुल्क दरों में कटौती की गई।
  • आयातो के लिए लाइसेंस प्रक्रिया की समाप्ति की गई। हानिकारक और पर्यावरण संवेदी उद्योगों के उत्पादों को छोड़, अन्य सभी वस्तुओं पर से आयात लाइसेंस व्यवस्था समाप्त कर दी गई।
  • कृषि पदार्थों और औद्योगिक उपभोक्ता पदार्थों के आयात को  मात्रात्मक प्रतिबंधों से मुक्त कर दिया गया।
  • भारतीय वस्तुओं का अंतरराष्ट्रीय बाजारों में स्पर्धा शक्ति बढ़ाने के लिए उन्हें निर्यात शुल्क से मुक्त कर दिया गया।

  • निजीकरण (Privatisation): निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे क्षेत्र या उद्योग को सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में स्थानांतरित किया जाता है।

            सरकारी कंपनियाँ निजी क्षेत्र की कंपनियों में दो प्रकार से परिवर्तित होती हैं:

  1. सरकार का सार्वजनिक कंपनी के स्वामित्व और प्रबंधन से बाहर होना।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सीधे बेच दिया जाना।

  • विनिवेश: किसी सार्वजनिक क्षेत्रक के उद्यमों द्वारा जन सामान्य को इक्विटी (Equity) की बिक्री के माध्यम से निजीकरण को विनिवेश कहा जाता है।

विनिवेश के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित है:

  1. वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना।
  2. निजी पूँजी और प्रबंधन क्षमताओं के उपयोग द्वारा सार्वजनिक उद्यमों के निष्पादन (Performance) को सुधारना।
  3. विदेशी निवेश के अंतर्वाह को बढ़ावा देना।

  • सरकार ने सार्वजनिक उपक्रमों को प्रबंधकीय निर्णय में स्वायत्तता प्रदान कर उनकी कार्यकुशलता को सुधारने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए, कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को 'नवरत्न' और 'लघुरत्न' का विशेष दर्जा दिया गया।

  • इन कंपनियों के कुशलता पूर्वक संचालन और लाभ में वृद्धि करने के लिए प्रबंधन और संचालन कार्यो में अधिक स्वायत्तता दी गई। वे अत्यधिक प्रतिस्पर्धी बन गए तथा विश्व स्तरीय निकाय (संस्था) बन रहे हैं। इस प्रकार नवरत्न नीति सार्वजनिक उपक्रमों के निष्पादन को सुधारने में सहायक रही है।

  • वैश्वीकरण (Globalisation):

वैश्वीकरण विभिन्न देशों के लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच बातचीत और एकीकरण की प्रक्रिया है। वैश्वीकरण में संपूर्ण विश्व को एक बाज़ार का रूप प्रदान किया जाता है। वैश्वीकरण से आशय विश्व अर्थव्यवस्था में आए खुलेपन, बढ़ती हुई अन्तनिर्भरता तथा आर्थिक एकीकरण के फैलाव से है।

इसके अंतर्गत विश्व बाज़ारों के मध्य पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है तथा व्यवसाय देश की सीमाओं को पार करके विश्वव्यापी रूप धारण कर लेता है। वैश्वीकरण के द्वारा ऐसे प्रयास किये जाते है कि विश्व के सभी देश व्यवसाय एवं उद्योग के क्षेत्र में एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं समन्वय स्थापित करें।

  • बाह्य प्रापण (Outsourcing):

इसमें कंपनियाँ किसी बाहरी स्रोत से नियमित सेवाएँ प्राप्त करती हैं अधिकांशतः अन्य देशों से, जिन्हें पहले देश के भीतर ही प्रदान किया जाता था जैसे कि कानूनी सलाह, कंप्यूटर सेवा, विज्ञापन, सुरक्षा आदि।

            भारत विश्व स्तरीय बाह्य प्रापण का एक गंतव्य स्थान बन गया क्योंकि :

  1. ध्वनि आधारित व्यावसायिक प्रक्रिया प्रतिपादन, अभिलेखांकन, लेखांकन, बैंक सेवाएँ, संगीत की रिकॉर्डिंग, फिल्म संपादन, पुस्तक शब्दांकन, चिकित्सा संबंधी परामर्श और शिक्षण कार्य बहुत कम लागत में और उचित रूप से भारत में निष्पादित हो जाते हैं।
  2. सस्ते श्रमिकों की आसानी से उपलब्धता।
  3. कच्चे माल की सस्ती दरों पर उपलब्धता।

            इन्हीं कारणों से अनेक विकसित देशों की कंपनियाँ भारत की छोटी-छोटी संस्थाओं से यह सेवाएँ प्राप्त

            कर रही हैं। अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ अनेक छोटी-बड़ी कंपनियां भी भारत से यह

            सेवाएँ प्राप्त करने लगी हैं।

  • विश्व व्यापार संगठन (WTO) : व्यापार और सीमा शुल्क महासंधि (GATT) के बाद विश्व व्यापार संगठन का गठन 1995 में किया गया।

  • विश्व व्यापार संगठन के उद्देश्य :
  1. सभी देशों को विश्व व्यापार में समान अवसर सुलभ कराना।
  2. ऐसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना करना जिससे कोई देश मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़ी न कर सकें।
  3. सीमाओं के सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन देना जिससे विश्व के संसाधनों का इष्टतम स्तर पर प्रयोग हो और पर्यावरण का भी संरक्षण हो।
  4. द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ाना। ऐसा सभी सदस्य देशों के प्रशुल्क और अप्रशुल्क अवरोधकों को हटाकर तथा अपने बाजारों को सदस्य देशों के लिए खोलकर किया गया।

   

  • विश्व व्यापार संगठन और विकासशील सदस्य देश:
  1. विश्व व्यापार संगठन में विकासशील देशों का कोई साझा दर्जा नहीं है। कृषि से कपास और मत्स्य-पालन तक विकासशील देश विभाजित हो गए हैं और विकसित देशों के समक्ष मजबूत सौदेबाजी गठबंधन पेश करने में अधिकांश समय असफल रहे हैं।

  1. विश्व व्यापार का अधिकांश भाग केवल विकसित देशों के बीच ही होता है। विकासशील देश अपने बाजारों को विकसित देशों के लिए खोले जाने को मजबूर करने को लेकर छला हुआ महसूस करते हैं। विकसित देश विकासशील देशों को अपने बाजारों में किसी न किसी बहाने प्रवेश करने से रोकने का प्रयास भी करते रहते हैं।

  1. अर्थशास्त्री किसी अर्थव्यवस्था की समृद्धि का मापन सकल घरेलू उत्पाद द्वारा करते हैं। सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर 1980-91 में 5.6 प्रतिशत से बढ़कर 1992- 2000 की अवधि में 6.4% हो गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सुधार अवधि में कुल मिलाकर संवृद्धि दर में सुधार हुआ है।

सकल घरेलू उत्पाद की यह संवृद्धि मुख्यतः सेवा क्षेत्रक के बढ़ते योगदान का परिणाम है।

  1. अर्थव्यवस्था के खुलने से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विदेशी विनिमय रिजर्व में तेजी से वृद्धि हुई है। विदेशी निवेश 1990-91 के 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ऊपर उठकर 2003-04 में 150 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुँच गया है।

  1. भारत के विनिमय रिजर्व का आकार इस अवधि में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 125 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया है। इस समय भारत विदेशी विनिमय रिजर्व का छठा सबसे बड़ा धारक माना जाता है।

  1. भारतीय वाहन, इंजीनियरिंग उत्पादों, सूचना प्रौद्योगिकी उत्पादों और बस्तर आदि के एक सफल निर्यातक के रूप में विश्व व्यापार में जम गया है।

  1. परंतु सुधार कार्यक्रमों द्वारा भारत अपने देश की अनेक मूलभूत समस्याओं का समाधान खोजने में विफल रहा है। ये समस्याएँ विशेषकर रोजगार सृजन, कृषि, उद्योग, आधारभूत सुविधाओं के विकास तथा राजकोषीय प्रबंधन से जुड़ी हैं।
  • संवृद्धि और रोजगार: यद्यपि सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर में वृद्धि हुई है, फिर भी सुधार प्रेरित संवृद्धि ने देश में रोजगार के पर्याप्त अवसरों का सृजन नहीं किया है।

  • सुधार प्रक्रिया से कृषि क्षेत्र दुष्प्रभावित हुआ : सुधार कार्यों से कृषि को कोई लाभ नहीं हो पाया है और कृषि की संवृद्धि दर कम होती जा रही है। इसके कारण निम्नलिखित हैं:-
  • सुधार अवधि में कृषि क्षेत्रक में सार्वजनिक व्यय विशेषकर आधारिक संरचना अर्थात् सिंचाई, बिजली, सड़क निर्माण, बाजार संपर्क को और शोध प्रसार आदि पर व्यय में काफी कमी आई है।
  • उर्वरक सहायिकी की समाप्ति ने भी उत्पादन लागत को बढ़ा दिया जिससे छोटे और सीमांत किसानों पर बहुत ही गंभीर प्रभाव पड़ा।
  • कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क में कटौती, न्यूनतम समर्थन मूल्य की समाप्ति और कृषि उत्पादों के आयात पर परिमाणात्मक प्रतिबंध हटाए जाने के कारण भारत के किसानों को विदेशी स्पर्धा का सामना करना पड़ा, जिसका उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
  • आंतरिक उपभोग की खाद्यान्न फसलों के स्थान पर निर्यात के लिए नकदी फसलों पर बल दिया जा रहा है। इससे देश में खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ रही थी।

  • सुधार काल में औद्योगिक क्षेत्र के निराशाजनक निष्पादन के कारण निम्नलिखित थे:
  • विदेशी वस्तुओं के सस्ते आयातो ने घरेलू वस्तुओं की माँग को प्रतिस्थापित कर दिया।
  • आधारभूत संरचनाओं की कमी के कारण घरेलू उद्योग उत्पादन की लागत और वस्तुओं की गुणवत्ता के मामले में भारत विकसित विदेशी प्रतिस्पर्धीयों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते हैं।
  • उच्च अप्रशुल्क बाधाओं के कारण भारत जैसे विकासशील देश विकसित देशों के वैश्विक बाजारों तक नहीं पहुँच पाए।
  • उदारीकरण से पहले की अवधि के दौरान घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया गया था। लेकिन उदारीकरण के समय घरेलू उद्योगों का विकास नहीं किया गया और इसके परिणामस्वरूप वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके।

  • विनिवेश: किसी सार्वजनिक क्षेत्रक के उद्यमों द्वारा जन सामान्य को इक्विटी (Equity) की बिक्री के माध्यम से निजीकरण को विनिवेश कहा जाता है।

  • विनिवेश के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित है :
  1. वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना।
  2. निजी पूँजी और प्रबंधन क्षमताओं का उपयोग द्वारा सार्वजनिक उद्यमों के निष्पादन को सुधारना।
  3. विदेशी निवेश के अंतर्वाह को बढ़ावा देना।

  • वर्ष 1991-92 में भारत सरकार ने विनिवेश द्वारा 2,500 करोड रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा था। सरकार उस लक्ष्य से 3,040 करोड़ अधिक जुटा पाने में सफल रही।

  • वर्ष 1998-99 में लक्ष्य तो 5,000 करोड़ के विनिवेश का था, पर उपलब्धि 5,400 करोड़ की रही।

  • परंतु भारत में विनिवेश की निम्नलिखित सीमाएँ रही:
  1. विनिवेश से प्राप्त राशि का उपक्रमों के विकास के लिए प्रयोग नहीं किया गया, न ही इसे सामाजिक आधारिक संरचना के निर्माण पर खर्च किया गया।
  2. यह राशि सरकार के बजट के राजस्व घाटे को कम करने में ही लग गई।

  • निष्कर्ष

            उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के माध्यम से वैश्वीकरण के भारत पर सकारात्मक तथा  

            नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं।

  • सकारात्मक प्रभाव:
  1. उदारीकरण के बाद उद्योगों की स्थिति सुधरी है। औद्योगिक उत्पादन में विविधता आई है, भारतीय औद्योगिक क्षेत्र को विदेशों से उच्च तकनीक प्राप्त होने के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि हुई है।
  2. उदारीकरण का सबसे ज़्यादा सकारात्मक प्रभाव सेवा क्षेत्र पर दिखाई देता है। वर्तमान में जी.डी.पी. का अधिकांश हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है। भारत सॉफ्टवेयर सेवा, पर्यटन सेवा, चिकित्सा सेवा इत्यादि के लिये आदर्श स्थल बन चुका है। बी.पी.ओ. के क्षेत्र में भी भारत अग्रणी है।

  • नकारात्मक प्रभाव :
  1. उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाने के बाद हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का हिस्सा लगातार घट रहा है। पूरे देश में हर किसान के पास उदारीकरण का लाभ उठाने की क्षमता नहीं है, क्योंकि भारत में अधिकांश किसान सीमांत हैं।
  2. हमारे उद्योग बहुराष्ट्रीय निगमों से प्रतिस्पर्द्धा करने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं तथा देशी उद्योग धंधे नष्ट हो रहे हैं।
  3. संधि कुछ गिने-चुने क्षेत्र- दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी, वित्त, मनोरंजन, पर्यटन और परिचर्या सेवाएँ, भवन निर्माण और व्यापार आदि तक ही सीमित रही है। कृषि, विनिर्माण जैसे आधारभूत क्षेत्र जो देश के करोड़ों लोगों को रोज़गार प्रदान करते हैं इन सुधारों से लाभान्वित नहीं हो पाए हैं।

            अतः यह कहा जा सकता है कि भारत अभी तक इन नीतियों का संपूर्ण रुप से लाभ नहीं उठा पाया है।