Class 12th व्यवसाय अध्ययन

(Business Studies)

Chapter 9

वित्तीय प्रबंध (Financial Management)

  • व्यावसायिक वित्त का अर्थ:- व्यावसायिक क्रियाओं के संचालन हेतु धन की आवश्यकता होती है इसे ही व्यावसायिक वित्त कहते हैं। वित्त की आवश्यकता, व्यवसाय के स्थापन, संचालन, इसमें आधुनिकीकरण, विस्तार करने अथवा विविधीकरण के लिए होती है। अत: वित्त, एक व्यवसाय के जीवन काल में हर कदम पर आवश्यक होता है। व्यवसाय के उत्तर जीवन तथा विकास के लिए. उपयुक्त वित्त की उपलब्धता अत्यंत निर्णायक होती है।

  • वित्तीय प्रबंधन का अर्थ: वित्तीय प्रबंध का अर्थ आवश्यकतानुसार वित्त की समुचित व्यवस्था करना है। वित्तीय प्रबंध का लक्ष्य, कोष प्राप्ति लागत को कम करना होता है। इसका उद्देश्य आवश्यकता के समय पर्याप्त कोषों को उपलब्ध कराने का विश्वास दिलाना भी होता है तथा अनावश्यक वित्त से बचाकर रखना होता है।

  • वित्तीय प्रबंधन की भूमिका:- व्यवसाय की वित्तीय अवस्था से वित्तीय प्रबंध का प्रत्यक्ष संबंध है। वित्तीय विवरण - स्थिति-विवरण तथा लाभ-हानि खाता फर्म की आर्थिक स्थिति तथा अंतिम अवस्था को प्रतिपादित करते हैं। व्यवसाय के अंतिम खातों के सभी मदें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय प्रबंध के निर्णयों से प्रभावित होती हैं। व्यवसाय की स्थिर पत्तियों का आकार तथा उनका सम्मिश्रण-

  1. व्यवसाय की स्थिर संपत्तियों का आकार तथा उनका सम्मिश्रण।
  2. चालू संपत्तियों की मात्रा तथा उनका रोकड़, स्कंध (स्टॉक) तथा प्राप्तियों में विभाजन।
  3. दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन वित्तीय राशियों को उपयोग में लाना।
  4. दीर्घकालीन वित्त का ऋण तथा समता में विभाजन।
  5. वास्तव में लाभ-हानि खाते की सभी मदें जैसे-व्याज, व्यय, ह्रास आदि-ऋण।

  • व्यावसायिक वित्त के उद्देश्य: वित्तीय प्रबंध का मुख्य उद्देश्य अंशधारियों की धन संपदा में अधिकतम वृद्धि करना होता है। इसलिए वित्त प्रबंध में दीर्घ अवधि संपत्तियों में निवेश कार्यशील पूँजी संपत्तियों के वित्तीयन आदि के संबंध में निर्णय सम्मिलित होते हैं। वित्तीय प्रबंधन का उद्देश्य कंपनी के क्षमता अंशों के वर्तमान मूल्यों को अधिकतम ऊँचाई तक ले जाना है। अर्थात् कंपनी के स्वामियों एवं अंशधारकों के धन को अधिकतम बनाना है।

  • वित्तीय निर्णय:- कंपनी के अंशों का बाजार मूल्य तीन मूलभूत वित्तीय निर्णयों से संबंधित होता है जो निम्नांकित हैं-

  1. निवेश संबंधी निर्णय:- निवेश निर्णय का संबंध इस बात से होता है कि फर्म के कोषों को विभिन्न प्रकार की संपत्तियों में कैसे विनियोजित किया जाए। निवेश निर्णय दीर्घकालीन अथवा अल्पकालीन हो सकता है। एक दीर्घकालीन निवेश निर्णय को 'पूँजी बजटिंग निर्णय' कहा जाता है।

पूँजी बजटिंग निर्णयों को प्रभावित करने वाले कारक:-

  1. परियोजना का रोकड़ प्रवाह- पूँजी बजटिंग निर्णय लेने से पहले किसी परियोजना में लगने वाले अपेक्षित रोकड़ प्रवाह की धनराशियों का भली-भाँति विश्लेषण कर लेना चाहिए।

  1. आय की दर- मान लीजिए कि 'अ' तथा 'ब दो प्रस्ताव हैं (जिनमें दोनों में समान प्रकार की जोखिम हैं) आय की दर क्रमशः 10 तथा 12 प्रतिशत हैं। तो सामान्य परिस्थितियों में परियोजना 'ब' का चुनाव किया जाएगा।

  1. निवेश कसौटी अंतर्भावितता- निवेश प्रस्तावों के मूल्यांकन की अनेक तकनीकें हैं जिन्हें पूँजी बजटिंग तकनीकों के नाम से पुकारा जाता है। किसी एक विशेष प्रस्ताव का चुनाव करने से पूर्व इन तकनीकों का उपयोग सभी प्रस्तावों के लिए किया जाता है।

  1. वित्तीय संबंधी निर्णय:- इसके अंतर्गत वित्त बढ़ाने से जुड़े वित्तीय फैसले होते हैं। इसके अंतर्गत विभिन्न उपलब्ध स्रोतों की पहचान की जाती है।  इसके अंतर्गत कंपनी को स्वयं निर्धारित करना होता है कि समता पूँजी निधि तथा उधारी निधियाँ कंपनी में किस अनुपात में रखी जाएँ।

वित्तीय निर्णय को प्रभावित करने वाले कारक:-

  1. लागत- विभिन्न स्रोतों से निधि प्राप्त करने की लागत भिन्न-भिन्न ही होती है। साधारणतया एक विवेकशील प्रबंधक उसी स्रोत का चुनाव करता है जो सबसे सस्ता होता है।

  1. जोखिम- विभिन्न स्रोतों में संबंधित जोखिम भिन्न होती है।

  1. प्रवर्तन लागत- जिस स्रोत की परिवर्तन लागत अधिक होती है उसके प्रति आकर्षक कम होता है।

  1. रोकड़ प्रवाह स्थिति- एक व्यवसाय के सुदृढ़ रोकड़ प्रवाह, स्थिति, ऋण वित्तीयन उसे अधिक जीवनश्रम बना सकती है अपेक्षाकृत समता वित्तीयन स्थिति के।

  1. स्थाई संचालन लागत का स्तर- यदि व्यवसाय में स्थाई संचालन लागत का स्तर ऊँचा है (जैसे भवन किराया, बीमा प्रीमियम वेतन आदि) तो निश्चित रूप से इसे स्थाई वित्तीय लागत के लिए कम करना चाहिए। जैसे निम्न श्रेणी की ऋण वित्तीयन अच्छी है। उसी प्रकार यदि स्थाई संचालन लागत कम है तो अधिक ऋण वित्तीयन, प्राथमिकता के आधार पर अपनाई जाएगी।

  1. नियंत्रण प्रतिफल- यदि समता अंशों का निर्गमन अधिक मात्रा में कर दिया जाता है तो व्यवसाय पर प्रबंध का नियंत्रण ढीला हो जाता है। ऋण वित्तीयन में ऐसी परेशानियाँ नहीं आती हैं। जो कंपनियां इस भय से ग्रसित होती हैं कि कहीं कोई अन्य कंपनी का अधिग्रहण न कर ले, वे ऋण समता को प्राथमिकता देती हैं।

  1. पूँजी बाजार की स्थिति- पूँजी बाजार की दशा भी निधि स्रोत के विकल्प को प्रभावित करती है। जिस समय स्टॉक बाजार में प्रतिभूतियों का मूल्य बढ़ रहा होता है उस समय बहुत से लोग समता में निवेश के लिए तत्पर रहते हैं। यद्यपि किसी भी कंपनी के लिए अवनत पूँजी मार्केट की दशा में समता निर्गमन का कार्य कठिन होता है।

  1. लाभांश से संबंधित निर्णय: लाभांश, लाभ का वह अंश होता है जो अंशधारियों में वितरित किया जाता है। इस निर्णय में यह निश्चय किया जाता है कि अर्जित लाभ (कर का भुगतान करने के पश्चात्) का कितना भाग अंशधारियों में लाभ के रूप में वितरित कर दिया जाए तथा लाभ का कितना भाग फर्म में प्रतिधारित उपार्जन के रूप में पुनर्विनियोजनार्थ रखा जाए ताकि विनियोग की आवश्यकता को पूरा किया जा सके।

लाभांश निर्णय को प्रभावित करने वाले कारक:

  1. उपार्जन- लाभांशों का भुगतान वर्तमान एवं भूतकालीन उपार्जनों में से किया जाता है। अत: लाभांश संबंधी निर्णय लेते समय उपार्जन एक मुख्य निर्धारक तत्व है।

  1. उपार्जन का स्थायित्व- यदि अन्य बातें समान रहें तो एक कंपनी जिसकी उपार्जन क्षमता स्थाई है तो वह अधिक लाभांश घोषित करने की अवस्था में होती हैं। इसके विपरीत यदि कंपनी की उपार्जन अस्थिर है तो वह संभवत: कम लाभांश देगी।

  1. लाभांश का स्थायित्व- अंशों पर लाभांश को तब तक नहीं बढ़ाया जाता जब तक कि उपार्जन में वृद्धि बहुत अधिक न हो या जब वृद्धि थोड़ी हो तथा अस्थाई प्रकृति की हो तो लाभांश में वृद्धि प्रायः नहीं की जाती।

  1. संवृद्धि सुयोग- जो कंपनियां विकासोन्मुख होती हैं अर्थात् जिन कंपनियों में संवृद्धि सुयोग होते हैं वे अधिक धन अपनी प्रतिधारित राशि में से कंपनी में ही रख लेती हैं ताकि आवश्यकतानुसार कंपनी में निवेश किया जा सके।

  1. रोकड़ प्रवाह स्थिति- लाभांश में रोकड़ का वहिर्गमन निहित होता है। एक कंपनी का भाजन कर रही होती है लेकिन उसमें रोकड़ की कमी होती है। कंपनी द्वारा लाभांश घोषित करने के लिए उसके पास पर्याप्त मात्रा में रोकड़ का होना आवश्यक होता है।

  1. पूर्वाधिकार अंशधारी- जिस समय लाभांश की घोषणा की जाती है उस समय कंपनी के प्रबंधकों को पूर्वाधिकार अंशधारियों का ध्यान रखना आवश्यक होता है। सामान्यत: अंशधारियों की यह जिज्ञासा होती है कि एक निश्चित राशि लाभाश के रूप में अवश्य प्राप्त हो जाए। अतः इसी बात का ध्यान रखते हुए कंपनियों लाभांश की घोषणा किया करती हैं।

  1. करारोपण नीति- कंपनियाँ अंशधारियों को लाभांश का भुगतान कर भुगतान के बाद ही करती हैं। यदि लाभांश पर करों का भार अधिक होगा तो लाभांश के भुगतान के लिए कम धन राशि का भुगतान करना पड़ेगा। इसकी तुलना में यदि कर की दर कम होगी तो लाभांश भुगतान की राशि अधिक होगी।

  1. शेयर बाजार प्रतिक्रिया:- लाभांश में वृद्धि अंशों के मूल्यों पर शेयर बाजार में सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ठीक उसी प्रकार लाभांश की मात्रा में कमी होने से अंशों के मूल्यों पर शेयर बाजार में प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः प्रबंध द्वारा, लाभांश नीति निर्धारण में समता अंश मूल्य पर संभावित प्रभाव एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक होता है।

  1. पूँजी बाज़ार तक पहुँच- बड़ी तथा प्रतिष्ठित कंपनियों की पूँजी बाजार तक पहुँच सुगम होती है, अत: कंपनी के विकास के लिए वे वित्त के लिए प्रतिधारित उपार्जन पर कम ही निर्भर करती हैं। ये कंपनियां अपने अंशधारियों को अपेक्षाकृत अधिक लाभांश का भुगतान करते हैं उन कंपनियों से जो आकार में छोटी होती हैं तथा जिनकी पहुँच पूँजी बाजार तक कम होती है।

  1. कानूनी बाध्यता- कंपनी अधिनियम के कुछ प्रावधान लाभांश भुगतान पर कुछ प्रतिबंध लगाते हैं। लाभांश घोषणा के समय ऐसे प्रावधानों का पालन निश्चित रूप से किया जाना चाहिए।

  1. संविदात्मक प्रतिबंध- जब किसी कंपनी को ऋण प्राप्त करने की स्वीकृति मिलती है तो ऋणदाता कंपनी पर भविष्य में लाभांश भुगतान पर कुछ प्रतिबंध लगा देते हैं। तो कंपनियों से यह आशा की जाती है कि वे इस बात का आश्वासन दें कि लाभांश भुगतान संबंधी ऋण की शतों का पालन किया जाएगा तथा किसी भी प्रकार उल्लंघन नहीं किया जाएगा।

  • वित्तीय नियोजन: वित्तीय नियोजन से तात्पर्य निश्चित रूप से एक संगठन के भविष्य प्रचालन से संबंधित वित्तीय ब्लूप्रिंट खाका या स्वरूप तैयार करना है।

  • वित्तीय नियोजन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:-

  1. निधियों की आवश्यकतानुसार उनकी उपलब्धता का आश्वासन देना- इसका तात्पर्य निधियों का विभिन्न उद्देश्यों की आवश्यकतानुसार अनुमान लगाना है जैसे दीर्घकालीन संपत्तियों को क्रय करने के लिए या व्यवसाय की दैनिक आवश्यकताओं की संपूर्ति करने के लिए आदि। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि समय का अनुमान लगाया जाए जिस समय ये निधियाँ उपलब्ध होंगी। वित्तीय नियोजन इन निधियों के संभावित स्रोतों को स्पष्ट करने का प्रयत्न भी करता है।

  1. यह देखना कि फर्म संसाधनों में अनावश्यक रूप से वृद्धि नहीं करती है- निधि आधिक्य सदैव ही अनुचित है, ठीक उसी प्रकार जैसे अनुपयुक्त निधिकरण। यद्यपि कुछ धन आधिक्य मात्रा में हो सकता है। अच्छी वित्तीय योजना इसको अच्छे से अच्छे उपयोग में ला सकती है ताकि वित्तीय संसाधनों को बिना उपयोग न छोड़ा जाए तथा अनावश्यक रूप से लागत में न जोड़ दिया जाए।

  • वित्तीय नियोजन का महत्व:- वित्तीय नियोजन के महत्त्व को निम्नलिखित के अनुसार समझाया जा सकता है:-

  1. इसका यह प्रयत्न होता है कि यह पहले से ही बतला दिया जाए कि भविष्य में विभिन्न व्यावसायिक परिस्थितियों में क्या घटित हो सकता है। ये स्वयं काम करके फर्म को सहायता करते हैं कि संभावित परिस्थितियों का कैसे, ठीक प्रकार से समाधान किया जाए। दूसरे शब्दों में यह फर्म को भविष्य की परेशानियों का सामना करने के लिए सुदृढ़ बनाते हैं।

  1. यह व्यावसायिक आकस्मिक परेशानियों तथा विस्मयों से बचने में सहायता करती हैं तथा भविष्य निर्माण में भी सहायक होती हैं।

  1. विभिन्न व्यावसायिक कार्यों में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती है। उदाहरणार्थ- उत्पादन तथा विक्रय कार्यों में स्पष्ट नीति निर्धारित करके सहायता करती है।

  1. वित्तीय प्रबंधन में कार्य की विस्तृत योजना तैयार करके अपव्यय को कम किया जा सकता है तथा क्रियाओं की पुनरावृत्ति तथा नियोजन में अंतराल को भी कम किया जा सकता है।

  1. यह वर्तमान को भविष्य से जोड़ने का प्रयत्न करता है।

  1. यह निवेश तथा वित्तीय निर्णयों में अनवरत आधार पर संपर्क स्थापित करता है।

  1. विभिन्न व्यावसायिक खंडों के उद्देश्यों की व्याख्या करके यह वास्तविक निष्पादन का आसानी से मूल्यांकन करता है।
  • पूँजी संरचना को प्रभावित करने वाले कारक:- पूँजी संरचना को निर्धारित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं:-

  1. ब्याज आवरण अनुपात (आई.सी.आर.)- ब्याज आवरण अनुपात से तात्पर्य है कि कंपनी का ब्याज, तथा कर काटने से पूर्व लाभ की मात्री व्याज से कितने गुना अधिक है। अर्थात् व्याज के आभार को भुगतान करने के लिए लाभ की मात्रा कितने गुणा अधिक है। इसकी गणना निम्न प्रकार से की जाती है।

यह अनुपात जितना अधिक होता है कंपनी की आर्थिक दशा ब्याज का भुगतान करने के लिए उतनी ही सुदृढ़ समझी जाती है। अर्थात् कंपनी ब्याज का भुगतान आसानी से करने में सामर्थ्यवान समझी जाती है।

  1. ऋण सेवा आवरण अनुपात (डी.एस.सी, आर.)- ऋण सेवा आवरण अनुपात उन कमियों पर ध्यान देता है जो ब्याज आवरण अनुपात (आई. सी.आर.) में होती हैं। इसकी गणना निम्न प्रकार की जाती है:

कर के बाद आय + हास + ब्याज + नॉन रोकड़ व्यय पूर्वाधिकार लाभांश + ब्याज + आभारों का भुगतान

  1. ऋण की लागत- एक कंपनी द्वारा नीची ब्याज की दर पर ऋण लेना उसकी ऊँची दर से ऋण विनियोजन क्षमता को प्रदर्शित करता है। अत: यदि नीची दर की ब्याज पर ऋण लिए जा सकते हों तो अधिक मात्रा में ऋणों का उपयोग किया जा सकता है।

  1. कर दर- यद्यपि ब्याज कुल आगम में से कम किया जाने वाला व्यय है। ऋण की लागत कर दर से प्रभावित होती है। हमारे उदाहरणों में फर्म 10 प्रतिशत पर ऋण ग्रहण कर रही है। यदि कर की दर 30 प्रतिशत हो तो कर काटने के उपरांत ऋण की लागत केवल 7 प्रतिशत है। कर की ऊँची दर, ऋणों को अपेक्षाकृत सस्ता करती है तथा समता में वृद्धि को आकर्षित करती है।

  1. समता की लागत- प्रत्येक अंशधारी अपने द्वारा धारित अंश पूँजी पर उसके द्वारा उठाए गए जोखिम के अनुपात में आय प्राप्त करने की अपेक्षा करता है। अंशधारियों की संपदा में अधिकतम वृद्धि करने या अंशधारियों को अधिकतम लाभान्वित करने के लिए, ऋणों का उपयोग एक निश्चित बिंदु तक ही करना चाहिए।

  1. प्रवर्तन लागत- कंपनी प्रवर्तन में स्त्रीतों में वृद्धि करने पर कुछ खर्च भी करने पड़ते हैं। जब अंशों तथा ऋण पत्रों का जनता में निर्गमन किया जाता है तो कुछ यथेष्ट व्यय के भुगतान करने की आवश्यकता भी होती है। किसी वित्तीय संस्था से ऋण प्राप्त करने में इतनी ज्यादा लागत नहीं आती है। ये मान्यताएँ अंश निर्गमन या ऋण ग्रहण करने के मध्य चुनाव को प्रभावित कर सकती है तथा पूँजी संरचना भी प्रभावित होती है।

  1. जोखिम का ध्यान- यदि किसी फर्म का व्यावसायिक जोखिम नीची दर का है तो इसकी ऋण उपयोग क्षमता ऊँची दर की होगी या यदि किसी फर्म का व्यावसायिक जोखिम ऊंची दर का है तो इसकी ऋण उपयोग क्षमता नीची दर की होगी।

  1. लचीलापन- यदि एक फर्म अपनी ऋण सभाविता का पूरा उपयोग करती है तो यह और अधिक ऋणों के बोझ को नहीं उठा पाती अर्थात् और नए ऋणपत्र निर्गमित नहीं कर सकती। अतः लचीलापन बनाए रखने के लिए इसे अदृश्य परिस्थितियों से सावधान रहते हुए अपनी ऋण लेने की क्षमता को बनाए रखना चाहिए।

  1. नियामक ढाँचा- प्रत्येक कंपनी को नियामक ढाँचा, के अधीन चलना होता है  जिसका निर्माण विधान के अनुसार होता है तथा उससे संबंधित जो भी नियम होते हैं उनका पालन किया जाना आवश्यक होता है। उस स्त्रोत की प्रक्रिया को पूरा करना अति आवश्यक होता है जिसका अनुसरण वह संस्था करती है।

  1. शेयर बाजार की दशाएँ- यदि शेयर बाजार की दशा ऊँची है तो समता अंशों का विक्रय बड़ी ऊँची कीमत पर भी संभव होता है। प्रायः ऐसी अवस्था में कंपनियों द्वारा समता अंश पूँजी को ही प्राथमिकता दी जाती हैं इसके विपरीत आर्थिक मंदी के समय, एक कंपनी को समता पूँजी का जुटा पाना जटिल कार्य होता है तथा प्रायः कंपनियाँ ऋण लेना ही बेहतर समझती है।

  1. अन्य कंपनियों की पूँजी संरचना- पूँजी संरचना नियोजन में एक उपयोगी मार्गदर्शक अन्य कंपनियों का ऋण समता अनुपात है जो इसी प्रकार के व्यवसाय में संलग्न हैं ।

  • स्थाई एवं कार्यशील पूँजी

  • स्थाई पूँजी :- स्थाई पूँजी से आशय दीर्घकालीन संपत्तियों में  निवेश से है। स्थाई पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले घटक:-

  1. व्यवसाय की प्रकृति- स्थाई पूँजी की आवश्यकता व्यवसाय के प्रकार पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए एक व्यापारिक इकाई की स्थाई संपत्तियों में निवेश की आवश्यकता एक निर्णायक संगठन की अपेक्षा कम होती है। क्योंकि उस संयंत्र तथा मशीनें आदि क्रय करने की आवश्यकता नहीं होती है।

  1. संक्रिया का मापदंड- एक वृहद् आकार वाले संगठन जो बड़े स्तर पर संचालित है उसे बड़ी-बड़ी मशीनों की आवश्यकता होती है तथा अधिक स्थान की भी आवश्यकता होती है। अत: उसे स्थाई संपत्तियों में निवेश के लिए अधिक धनराशि की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत छोटे उद्योगों को छोटी मशीनों तथा थोड़े स्थान की ही आवश्यकता होती है।

  1. तकनीक का विकल्प- पूँजी प्रधान संगठनों में संयंत्र एवं मशीनों के क्रय के लिए भारी निवेश की आवश्यकता होती है क्योंकि इनमें मानवीय श्रम की कम आवश्यकता होती है। ऐसे उद्योग में स्थाई पूँजी की अधिक आवश्यकता होती है। दूसरी ओर श्रम प्रधान संगठनों में स्थाई संपत्तियों में निवेश की आवश्यकता कम ही होती है क्योंकि उनकी स्थाई पूंजी की आवश्यकता भी कम होती है।

  1. तकनीकी उत्थान- ऐसे संस्थान जिनकी संपत्तियाँ शीघ्र ही अप्रचलित होने को अधोमुखी होती ही रहती हैं उन्हें स्थाई संपत्तियों के क्रय के लिए स्थाई रूप में स्थाई पूँजी की व्यवस्था करनी होती है।

  1. विकास प्रत्याशा- किसी संगठन में ऊँची दर से विकास की प्रत्याशा की संतुष्टि के लिए प्रायः स्थाई संपत्तियों की व्यवस्था के लिए अधिक निवेश की आवश्यकता होती है।

  1. विविधीकरण- एक फर्म विभिन्न कारणों से अपनी संचालन प्रक्रिया में विविधीकरण द्वारा विविधता ला सकती है। यह क्रिया स्थाई पूँजी की आवश्यकता में वृद्धि करके भी की जा सकती है।

  1. वित्तीय विकल्प- एक विकसित वित्तीय बाजार कुल विक्रय के लिए विकल्प के रूप में पट्टेदारी सुविधा मुहैय्या करा सकता है। ऐसा करने से वह एक बड़ी भारी रकम जो उस संपत्ति के क्रय के लिए चाहिए थी कि व्यवस्था करने से बच जाता है।

  1. सहयोग का स्तर- कभी-कभी कुछ व्यावसायिक संगठन एक दूसरे की सुविधाओं का उपयोग करते हैं। उदाहरण के लिए एक बैंक दूसरे बैंक की आटोमेटिक टैलर मशीन (एटीएम) का उपयोग कर सकती है। इस प्रकार के सहयोग या कोलाबोरेशन स्थाई संपत्तियों में निवेश के स्तर को कम करने में सहायक होते हैं उन सहयोगी संस्थानों में जो इस प्रकार का सहयोग निर्माण करते हैं।

  • कार्यशील पूँजी : कार्यशील पूँजी एक कंपनी की चालू परिसंपत्तियों और इसके वर्तमान देनदारियों के बीच का अंतर है। कार्यशील पूँजी आवश्यकता को प्रभावित करने वाले कारक:-

  1. व्यवसाय की प्रकृति- व्यवसाय की मूलभूत प्रकृति उसकी कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को प्रभावित करती है। एक व्यापारिक संगठन को जहाँ केवल माल का क्रय एवं विक्रय ही होता है कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होती है अपेक्षाकृत एक निर्मायक संगठन के जहाँ कच्चा माल क्रय करके उसका उपभोक्ता वस्तु के रूप में निर्माण किया जाता है।

  1. संचालन का स्तर:- जिनका व्यापार ऊँचे स्तर का होता है उन्हें अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है उन व्यवसायों से जिनका व्यापार निचले स्तर का है।

  1. व्यवसाय चक्र- व्यवसायिक चक्र की विभिन्न दशाएँ एक फर्म की कार्यशील पूँजी की आवश्यकता को प्रभावित करती है। व्यापार उत्कर्ष के समय बिक्री एवं उत्पादन दोनों में वृद्धि होती है अतः अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होती है। इसके विपरीत आर्थिक मंदी के समय जबकि विक्री एवं उत्पादन दोनों ही निम्न स्तर के होते हैं अत: कार्यशील पूँजी की कम ही आवश्यकता होती है।

  1. मौसमी कारक- कुछ व्यवसाय मौसमी होते हैं जैसे आइसक्रीम फैक्ट्री। मौसम के चरम या शीर्ष स्तर पर जब उसकी क्रिया अधिक गतिशील होती है, अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। जब मौसम का उतार होता है या मौसम बदल जाता है तो उस व्यवसाय की क्रिया मंद हो जाती है तब कार्यशील पूँजी की कम आवश्यकता होती है।

  1. उत्पादन चक्र- उन व्यवसायों में जहाँ उत्पादन चक्र लम्बा है वहाँ कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक होती है। इसके विपरीत जहाँ उत्पादन प्रक्रिया छोटी या अल्पकालीन होती है वहाँ कम कार्यशील पूँजी से भी काम चलाया जा सकता है।

  1. उधार विक्रय सुविधा- विभिन्न कंपनियाँ अपने ग्राहकों का विभिन्न प्रकार की उधार की शर्तों पर माल बेचती हैं। यह सब प्रतियोगिता स्तर पर निर्भर करता है तथा ग्राहक वर्ग की योग्यता अनुसार भी उधार दिया जाता है। एक उद्यम को उधार नीति अपनाने के लिए तथा देनदारों को संख्या में वृद्धि कराने के लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है।

  1. उधार क्रय सुविधा- जब कोई फर्म अपने ग्राहकों को उधार माल बेचती है तो उसे उधार क्रय पर माल मिल भी जाता है। जितना अधिक कोई कंपनी उधार माल क्रय करेगी. उसे उतनी ही कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी।

  1. विकास प्रत्याशा- यदि किसी व्यवसाय की विकास की संभावनाएँ अधिक प्रतीत होती हैं तो उसके लिए अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी, जिसकी सहायता से वह व्यवसाय अधिक माल का उत्पादन भी कर सकेगा तथा जब वांछनीय होगा तब विक्रय लक्ष्य को को आवश्यकता होती है। अत: मुद्रा स्फीति के भी प्राप्त कर सकेगा।

  1. प्रतियोगिता का स्तर- उच्चस्तरीय प्रतियोगिता की अवस्था में अधिक तैयार माल की आवश्यकता होगी ताकि ग्राहकों को तुरंत, आदेशानुसार, माल की पूर्ति की जा सके। इससे कार्यशील पूँजी की आवश्यकता में वृद्धि होगी। प्रतियोगिता की दशा में व्यवसाय माल के अधिक उधार विक्रय के लिए विवश होगा और अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी।