Class 12th प्रारंभिक समष्टि अर्थशास्त्र (Introductory Macroeconomics)
Chapter 3 - मुद्रा और बैंकिंग (Money and Banking)
- मुद्रा का अर्थ (Meaning of Money):
एक वस्तु जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है मुद्रा (Money) कहलाती है। उदाहरण: भारत में एक रूपया मुद्रा है क्योंकि यह भारत में सामान्य रूप से स्वीकृत विनिमय का माध्यम है। इसी प्रकार, यू-एस-ए- में एक डॉलर मुद्रा है क्योंकि यह यू-एस-ए- में सामान्य रूप से स्वीकृत विनिमय का माध्यम है।
- वस्तु विनिमय प्रणाली (Barter System of Exchange):
वस्तु विनिमय प्रणाली उस प्रणाली को कहते हैं जिसमें वस्तु का विनिमय वस्तु से किया जाता था अर्थात् वस्तु के बदले वस्तु का ही लेन-देन होता है। यदि आपके पास चावल का जरूरत से अधिक भंडार है तो आपको एक ऐसे व्यक्ति की तलाश होगी जिसे चावल की जरूरत है और जिसके पास बदले में देने के लिए कपड़ा हो जिसकी आपको स्वयं के लिए जरूरत है। इसका अर्थ आवश्यकताओं का दोहरा संयोग (Double Coincidence of Wants) है।
- वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ (Drawbacks of the Barter System of Exchange):-
- आवश्कताओं के दोहरे संयोग का अभाव।
- मूल्य की सामान्य इकाई का अभाव।
- भविष्य में किये जाने वाले भुगतानों की प्रणाली का अभाव।
- मूल्य संचय प्रणाली का अभाव।
- मुद्रा के कार्य (Functions of Money) : मुद्रा कार्यों को दो वर्गों में रखा जाता है जैसे:
- प्राथमिक कार्य (Primary Functions) तथा
- गौण कार्य (Secondary Functions)
- प्राथमिक अथवा मुख्य कार्य (Primary Functions):-
- विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange) : वस्तुओं तथा सेवाओं के क्र्य तथा विक्रय में मुद्रा एक माध्यम का कार्य करती है। मुद्रा की अनुपस्थिति में वस्तुओं का विनिमय वस्तुओं से किया जाता था। इसके लिए दोहरे संयोग की आवश्यकता पड़ती थी जिससे विनिमय कठिन तथा सीमित होता था। मुद्रा की उत्पत्ति से विनिमय और सुविधाजनक हो गया।
- मूल्य का मापदंड अथवा मूल्य की इकाई (Measure of Value or Unit of Value): मुद्रा मूल्य का मापदंड करती है। अन्य शब्दों में यह लेखे की इकाई (Unit of Account) का माप करती है। लेखे की इकाई से अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु तथा सेवा का मूल्य मुद्रा के रूप में मापा जाता है। वस्तु विनिमय प्रणाली में मूल्य का माप बहुत कठिन था। एक वस्तु का मूल्य दूसरी वस्तु के रूप में माना जाता था| मूल्य की कोई साझी (Common) इकाई नहीं होती थी। मुद्रा के आने से यह कठिनाई दूर हो गई है। अब प्रत्येक वस्तु का मूल्य मुद्रा के रूप में मापा जाता है।
- गौण अथवा सहायक कार्य (Secondary or Subsidiary Functions):-
- स्थगित भुगतानों का मान (Standard of Deferred Payment):- स्थगित भुगतान वे होते है जिनका भुगतान तत्काल न करके भविष्य में किसी समय किया जाता है। मुद्रा की उत्पत्ति के फलस्वरूप स्थगित भुगतान पहले की अपेक्षा आसान बन गए। जब हम किसी से मुद्रा उधार लेते हैं तो हमे इसे भविष्य में ब्याज सहित लौटाना होता है। मुद्रा इन भुगतान के लिए एक सुविधाजनक साधन है।
- मूल्य का संचय (Store of Value):- मूल्य के संचय का अर्थ है धन का संचय। मुद्रा की उत्पत्ति से धन का संचय बहुत आसान हो गया है। वस्तु विनिमय प्रणाली में मूल्य का संचय सुविधाजनक नहीं था क्योकि वस्तुएँ या तो नष्ट हो जाती हैं या टूट-फूट जाती हैं।
- मूल्य का हस्तांतरण (Transfer of Value):- मुद्रा मूल्य के हस्तांतरण के एक सुविधाजनक साधन के रूप में कार्य करती है। मूल्य के हस्तांतरण के कारण ही बहुराष्ट्रीय निगमों (Multinational Corporations-MNG) की उत्पत्ति हुई है। तदनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था की अवधारणा (Concept of Global Economy) अस्तित्व में आयी।
- मुद्रा के रूप (Forms of Money):-
- वैधानिक पत्र अथवा वैधानिक मुद्रा (Legal Tender) - वैधानिक मुद्रा से तात्पर्य उस मुद्रा से है जिसे कानून का समर्थन प्राप्त है और कोई भी व्यक्ति इसे अस्वीकार नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, भारत की घरेलू सीमा के भीतर कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार के लेनदेन के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी किये गए 100 या उससे अधिक के नोटों को लेने से इंकार नहीं कर सकता।
- कागजी मुद्रा (Fiat Money) - कागजी मुद्रा से तात्पर्य भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी करेंसी नोट और सिक्कों से हैं| इसका सोने और चाँदी के सिक्कों की तरह कोई आंतरिक मूल्य नहीं होता और यह सरकार के आदेश पर प्रचलित होती है। इस मुद्रा को आदेश मुद्रा भी कहा जाता है।
- उच्च शक्तिशाली मुद्रा (High Powered Money) - उच्च शक्तिशाली मुद्रा से तात्पर्य देश के मौद्रिक प्राधिकरण द्वारा निर्गमित की गई मुद्रा से है| इसे मौद्रिक आधार के नाम से भी जाना जाता है।
- मुद्रा की माँग (Demand for Money): मुद्रा की माँग दो बातों पर निर्भर करती है:-
- सौदों के मूल्य (Amount of Transactions) : मुद्रा सौदों के संचालन के लिए आवश्यक है इसीलिए सौदों के मूल्य यह तय करेंगे कि लोग कितना द्रव्य रखना चाहेंगे। जितने अधिक सौदे किए जाएँगे उतनी ही अधिक द्रव्य की माँग होगी।
- ब्याज की दर (Interest Rates) : विशिष्ट रूप से जब ब्याज की दरें बढ़ती हैं तो लोग अपने पास द्रव्य रखने में दिलचस्पी कम रखते हैं क्योंकि द्रव्य को रोककर रखने का अर्थ होता है, ब्याज-वाली जमाओं का कम होना और इस प्रकार कम ब्याज की प्राप्ती। इसलिए ऊँची ब्याज दरों पर मुद्रा की माँग गिर जाती है।
- मुद्रा की पूर्ति (Supply of Money):
- मुद्रा की पूर्ति से तात्पर्य एक निश्चित समय पर देश में लोगों के पास कुल मुद्रा के स्टॉक से हैं। मुद्रा की पूर्ति में केवल उस स्टॉक को शामिल किया जाता है. जो सामान्य जनता के पास होता है न कि उसे जो मुद्रा के उत्पादक के पास है।
- मुद्रा की पूर्ति के भारत में चार वैकल्पिक माप हैं:-
- M1 = जनता के पास करेंसी (C) + माँग जमा (DD) + रिजर्व बैंक के पास जमाएँ (OD)
- M2 = M1 + डाकघर बचत बैंक में जमा राशियाँ
- M3 = M2 + बैंकों के पास शुद्ध अवधि जमाएँ
- M4 = M3 + डाकघर बचत संगठनों के पास समस्त जमा राशियाँ (राष्ट्रीय बचत पत्रों के अतिरिक्त)
- M1 और M2 संकुचित मुद्रा (Narrow Money) कहलाती है। M3 और M4 को व्यापक मुद्रा (Broad Money) कहते हैं। M3 मुद्रा पूर्ति की माप का सबसे साधारण मौद्रिक संसाधन (Aggregate Money Resources) भी कहते हैं।
- एक व्यवस्था में मुद्रा दो प्रकार की संस्थाओं द्वारा निर्मित किए जाते हैं- अर्थव्यवस्था का केंद्रीय बैंक (Central Bank) तथा व्यावसायिक बैंक (Commercial Bank)।
- केंद्रीय बैंक (Central Bank): आधुनिक अर्थव्यवस्था में केंद्रीय बैंक एक अति महत्वपूर्ण संस्था है। लगभग प्रत्येक देश का अपना केंद्रीय बैंक है। भारत को अपना केंद्रीय बैंक सन् 1935 में मिला। इसका नाम 'रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया' है। केंद्रीय बैंक के अनेक महत्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं:-
- नोट जारी करना;
- सरकार के बैंक के रूप में सरकारी विभागों के खातों की व्यवस्था करना;
- वाणिज्य बैंकों से जमाएँ स्वीकार करना और उन्हें ऋण प्रदान करना;
- विदेशी कोषों के संरक्षक के रूप में कार्य करना;
- व्यावसायिक बैंकों के लिए अंतिम ऋणदाता की भूमिका निभाना;
- साख का नियंत्रण करना।
- व्यावसायिक बैंक (Commercial Bank) : व्यावसायिक बैंक जनता से जमा स्वीकार करते हैं और इस रकम का कुछ भाग उन लोगों को देते हैं जो उधार लेना चाहते हैं। दिये जाने वाली ब्याज दर, उधार लेने वालों से वसूली जाने वाली ब्याज दर से कम होती है। इन दो प्रकार की ब्याज दरों का अंतर जिसे 'स्प्रेड' कहते हैं, बैंक का लाभ होता है। वाणिज्यिक बैंकों के आधारभूत कार्य :-
- जमा स्वीकार करना (Accepting Deposits) और
- ऋण देना (Advancing Loans)|
- बैंकिंग व्यवस्था द्वारा साख सृजन :
वाणिज्यिक बैंक ऋणियों (Borrower) को दी गई साख के रूप में मुद्रा का सृजन (निर्माण) करते हैं। अतः वाणिज्यिक बैंकों द्वारा किए मुद्रा सृजन (Money Creation) को वाणिज्यिक बैंकों द्वारा किया 'साख सृजन' (Credit Creation) भी कहा जाता है। वाणिज्यिक बैंक नकद कोषों के आधार पर मुद्रा/साख का निर्माण करते हैं।
यह समझने के लिए कि वाणिज्यिक बैंकों के नकद कोष मुद्रा के निर्माण का आधार कैसे होते निम्नलिखित अवलोकनों को ध्यानपूर्वक नोट करें:-
- मान लीजिए कि एक देश में केवल एक बैंक है हम इस बैंक का वित्तीय चिट्ठा बनाते हैं। चिट्ठा, एक फर्म की समस्त आस्तियों तथा देनदारियों का लेखा होता है। पारंपरिक रूप से, फर्म की आस्तियों को बाएँ तरफ तथा देनदारियों को दाएँ तरफ दिखाया जाता है।
- आस्तियाँ वे मे होती हैं जिनकी एक फर्म स्वामी होती है अथवा जिनका फर्म दूसरों पर हक रखती है। बैंक के संदर्भ में, भवन, फर्नीचर आदि के अतिरिक्त जनता को दिये गये ऋण भी इसकी आस्तियाँ हैं।
- दूसरी आस्तियाँ बैंक की इसके कोष हैं। व्यावसायिक बैंक जैसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अपनी जमाओं को रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पास रखती हैं। इनको कोष कहा जाता है।
आस्तियाँ = कोश + ऋण
- देनदारियाँ कर्म के ऋण होते हैं अथवा जो उसे अन्यों को देना है। एक बैंक के लिये मुख्य देनदारी इसकी जमाएँ हैं जो लोगों ने इसके पास रखी हैं।
देनदारियाँ = जमाएँ
- लेखांकन के नियम के अनुसार, खाते के दोनों पक्ष बराबर होने चाहिए। इसलिए यदि आस्तियाँ, देनदारियों से अधिक हैं, उनको सीधी तरफ 'नेट वर्थ' (Net worth) के नाम से लिखा जाता है।
नेट वर्थ = आस्तियाँ - देनदारियाँ
- मान लीजिए इस काल्पनिक बैंक में 100 रूपये के बराबर जमाएँ (देनदारियों) हैं। अब यह बैंक इस जमा राशि को केंद्रीय बैंक में कोष (आस्तियाँ) के रूप में जमा करेगी। यदि हम, यह मान लें कि चलन में कोई करेंसी नहीं है, तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा की कुल पूर्ति 100 रुपये होगी।
बैंक का चिट्ठा

M1 = करेंसी + जमाएँ = 0+ 100 = 100
- साख सृजन की सीमाएँ (Limits to Credit Creation):
- नकद कोष अनुपात (Cash Reserve Ratio):- रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया जमाओं के एक निश्चित प्रतिशत को तय कर देता है जो प्रत्येक बैंक को रखना अनिवार्य होता है। यह इसलिए किया जाता है ताकि कोई बैंक अत्याधिक ऋण न दे सके। यह एक वैधानिक अनिवार्यता है और बैंकों पर बाध्य है। इसे 'आवश्यक कोष अनुपात' अथवा 'नकद कोष अनुपात' (CRR) कहा जाता है।
- वैधानिक तरलता अनुपात (Statutory Liquid Ratio) :- बैंकों को अल्पकाल में कुछ कोष तरल रूप में रखना अनिवार्य होता है। इसे 'वैधानिक तरलता अनुपात' अथवा SLR कहते हैं।
- मुद्रा-गुणक (Money Multiplier):

उदाहरण:- यदि नकद कोष अनुपात 20% है तब मुद्रा गुणांक:-

इस प्रकार 100 रु. का कोष 500 रु. की जमाओं का सृजन कर सकता है यदि नकद कोष अनुपात 20% है।
- मुद्रा पूर्ति के नियंत्रण के नीतिगत उपकरण (Policy tools to control Money Supply):-
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया अर्थव्यवस्था में मुद्रा पूर्ति का विभिन्न तरीकों से नियंत्रण करती है। मुद्रा पूर्ति के लिये प्रयुक्त उपकरण परिमाणात्मक (Quantitative) अथवा गुणात्मक (Qualitative) हो सकते हैं।
- परिमाणात्मक उपकरण (Qualitative Instruments):
- CRR में परिवर्तन (Change in CRR):-
- यदि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया कोष अनुपात बढ़ा देता है तो बढ़ी हुई कोष आवश्कताओं को पूरा करने के लिए बैंकों को कुछ ऋणों को वापिस मँगाना होगा। अत: मुद्रा पूर्ति गिर जाएगी।
- यदि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कोष अनुपात घटा देता है तो बैंक अब अधिक ऋण दे पाएँगे। अतः मुद्रा पूर्ति बढ़ जाएगी।
- खुले बाजार की क्रिया (Open Market Operations):- खुले बाज़ार की क्रियाओं से अभिप्राय सरकार द्वारा निगर्मित बाँड्स का खुले बाज़ार में खरीदने और बेचने से है।
- जब रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया खुले बाज़ार में सरकारी बाँड खरीदता है वह इसके लिए चैक द्वारा भुगतान करता है। यह चैक अर्थव्यवस्था मे कोषों की मात्रा में वृद्धि कर देता है और इस प्रकार मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है।
- रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया का निजी व्यक्तियों अथवा संस्थाओं को बाँड बेचने से कोषों की मात्रा में कमी होती है और इसलिये मुद्रा की पूर्ति गिर जाती है।
- बैंक दर में परिवर्तन (Change in Bank Rate):- रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया व्यावसायिक बैंकों को जिस दर पर ऋण प्रदान करती है उसे बैंक दर (Bank Rate) कहा जाता है।
- बैंक दर में वृद्धि से व्यावसायिक बैंकों द्वारा दिये गये ऋण पहले की तुलना में अधिक खर्चीले हो जाते हैं जिससे व्यावसायिक बैंकों के कोषों में कमी आ जाती है और इस प्रकार मुद्रा पूर्ति कम हो जाती है।
- बैंक दर में कमी से व्यावसायिक बैंक द्वारा दिए गए ऋण पहले की तुलना में अधिक सस्ते हो जाते हैं और इस प्रकार मुद्रा पूर्ति में वृद्धि हो जाती है।
- रेपो दर में परिवर्तन (Change in Repo Rate): वह ब्याज दर जिस पर केन्द्रीय बैंक व्यावसायिक बैंकों को अल्पकाल के लिए ऋण प्रदान करता है रेपो दर कहलाता है।
- रेपो दर में वृद्धि से व्यावसायिक बैंकों द्वारा दिये गये ऋण पहले की तुलना में अधिक खर्चीले हो जाते हैं जिससे व्यावसायिक बैंकों के कोषों में कमी आ जाती है और इस प्रकार मुद्रा पूर्ति कम हो जाती है।
- बैंक दर में कमी से व्यावसायिक बैंक द्वारा दिए गए ऋण पहले की तुलना में अधिक सस्ते हो जाते हैं और इस प्रकार मुद्रा पूर्ति में वृद्धि हो जाती है।
- उलट रेपो दर में परिवर्तन (Change in Reverse Repo Rate): वह दर जिस पर व्यवसायिक बैंक केंद्रीय बैंक को पास अपना अतिरिक्त फंड जमा करते हैं।
- रिवर्स रेपो दर में वृद्धि से बैंकों को अपने अधिशेष निधियों को अल्पकालिक आधार पर केंद्रीय बैंक के पास जमा करने का प्रोत्साहन मिलता है, जिससे बैंकिंग प्रणाली में तरलता कम हो जाती है और मुद्रा पूर्ति में कमी आती है।
- रिवर्स रेपो दर में गिरावट से बैंकों को अपने अधिशेष निधियों को अल्पकालिक आधार पर केंद्रीय बैंक के पास जमा करने की जगह अधिक ऋण देना चाहेंगे जिससे मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होगी ।
- गुणात्मक उपकरण (Qualitative Instruments): गुणात्मक उपकरण में केंद्रीय बैंक द्वारा द्बैंकों को ऋण देने के लिये हतोत्साहित अथवा प्रोत्साहित किया जाता है। यह नैतिक दबाव अथवा सीमा अनिवार्यता द्वारा किया जाता है।
- नैतिक दबाव (Moral Suasion):- नैतिक दबाव से तात्पर्य RBI द्वारा वाणिज्यिक बैंकों से अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति के अनुसार कुछ उपाय करने के अनुरोध से है। उदाहरण के लिए, RBI बैंकों से कुछ ऋणों को न देने के लिए कह सकता है।
- सीमांत आवश्यकता (Marginal Requirements): सीमांत आवश्यकता से अभिप्राय बैंक द्वारा दिए गए ऋण तथा जमानत वाली वस्तु के वर्तमान मूल्य के अंतर से है। मान लीजिए एक व्यक्ति ने ₹ 80 लाख के ऋण के लिए 1 करोड़ मूल्य का अपना मकान बैंक के पास जमानत के रूप में रखा है। इस स्थिति में सीमांत आवश्यकता 20 लाख होगी। सीमांत आवश्यकता को बढ़ा दिया जाता है जब साख की पूर्ति को कम करने की आवश्यकता होती है। सीमांत आवश्यकता को कम कर दिया जाता है जब साख की पूर्ति का विस्तार करना होता है।