Class 12th प्रारंभिक व्यष्टि अर्थशास्त्र (Introductory Microeconomics)
Chapter 4
पूर्ण प्रतिस्पर्धा की स्थिति में फर्म का सिद्धांत
(Theory of Firm under Perfect Competition)
- पूर्ण प्रतिस्पर्धा (Perfect Competition): इस प्रकार की बाज़ार संरचना में किसी वस्तु के विक्रेताओं तथा क्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है और किसी भी व्यक्तिगत क्रेता या विक्रेता का वस्तु की कीमत पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। वस्तु समरूप (Homogenous) होती है और उसकी कीमत बाज़ार पूर्ति तथा बाज़ार माँग की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है। एक पूर्णतया प्रतिस्पर्धात्मक बाज़ार में निम्न पारिभाषिक लक्षण होते हैंः
- बाज़ार में बड़ी संख्या में क्रेता एवं विक्रेता होते हैं (Large number of Buyers and Sellers): बड़ी संख्या में क्रेताओं एवं विक्रेताओं की उपस्थिति का अर्थ है कि प्रत्येक क्रेता एवं विक्रेता बाज़ार के आकार की तुलना में बहुत छोटा होता है। इसका यह अर्थ है कि कोई भी व्यक्तिगत क्रेता अथवा विक्रेता अपने आकार से बाज़ार को प्रभावित नहीं कर सकता।
- प्रत्येक फर्म एकरूप वस्तु का उत्पादन एवं विक्रय करती है (Each firm produces and sells a homogeneous product): इस बाजार संरचना के अंतर्गत एक फर्म के उत्पाद तथा किसी अन्य फर्म के उत्पाद में भेद नहीं किया जा सकता। अतः बाज़ार में एक क्रेता किसी भी फर्म से खरीद करने का चुनाव कर सकता है।
- फर्मों का बाज़ार में स्वतंत्र प्रवेश एवं बहिर्गमन होता है (Free Entry and Exit): स्वतंत्र प्रवेश एवं बहिर्गमन का अर्थ है कि फर्मों का बाज़ार में प्रवेश करना और साथ ही छोड़ना सरल होता है।
- जानकारी पूर्ण होती है (Information is Perfect): पूर्ण जानकारी से अभिप्राय है कि सभी क्रेता और विक्रेता उत्पाद की कीमत, गुणवत्ता एवं अन्य संबंधित विवरण से तथा बाज़ार के बारे में पूर्ण रूप से सूचित रहते हैं।
उपर्युक्त शर्तों से बने बाजार में क्रेता और विक्रेता दोनों में ही कीमत-स्वीकारक व्यवहार (Price-Taking Behaviour) देखा जाता है| एक फर्म यदि बाज़ार कीमत से ऊपर एक कीमत निर्धारित करती है तो कुछ भी विक्रय नहीं कर पाएगी, क्योंकि सभी क्रेताओं को पता है कि बाकी सब विक्रेता कम कीमत पर ही वस्तु बेच रहे हैं। दूसरी ओर, यदि निर्धारित कीमत, बाज़ार कीमत के समान अथवा उसकी तुलना में कम हो, तो फर्म जितनी इकाइयाँ विक्रय करने को इच्छुक है, उतना विक्रय कर सकती है| क्रेता भी बाजार द्वारा निर्धारित दाम स्वीकार कर लेता है क्योंकि बाजार कीमत से कम कीमत में सामान खरीदने की कोशिश करने पर कोई भी विक्रेता उसे सामान नहीं देगा क्योंकि विक्रेता को पता है कि वह उपभोक्ता द्वारा offer दिए जा रहे दाम से अधिक बाजार कीमत पर पूर्ण सामान बेच सकता है|
- संप्राप्ति (Revenue): एक फर्म अपने द्वारा उत्पादित वस्तु का बाज़ार में विक्रय करके संप्राप्ति अर्जित करती है।
- मान लीजिए वस्तु की एक इकाई की बाज़ार कीमत ‘p’ है। इसी प्रकार ‘q’ फर्म की उत्पादित तथा ‘p’ कीमत पर बेची जाने वाली वस्तु की मात्रा है। तब फर्म की कुल संप्राप्ति वस्तु के बाज़ार मूल्य ‘p’ तथा फर्म के निर्गत ‘q’ के गुणनपफल के रूप में परिभाषित की जाती है। अतः
कुल संप्राप्ति (TR) = p × q
- मान लीजिए कि मोमबत्तियों का बाज़ार पूर्ण रूप से प्रतिस्पर्धात्मक है तथा मोमबत्तियों के एक डिब्बे की बाज़ार कीमत 10 रुपये है। जब किसी भी डिब्बे का उत्पादन नहीं होता है, तो कुल संप्राप्ति शून्य के बराबर होती है | यदि मोमबत्तियों के एक डिब्बे का उत्पादन होता है, तो कुल संप्राप्ति 1×10 रुपये =10 रुपये के बराबर होती है। यदि मोमबत्तियों के दो डिब्बों का उत्पादन होता है, तो कुल संप्राप्ति 2×10 रुपये=20 रुपये के बराबर होती है तथा इसी प्रकार आगे भी।

- कुल संप्राप्ति (TR) वक्र : एक फर्म का कुल संप्राप्ति वक्र एक फर्म द्वारा अर्जित कुल संप्राप्ति तथा फर्म के निर्गत स्तर के बीच संबंध दर्शाती है। सामान्यतः कुल संप्राप्ति वक्र अंकित करने में बेची गई मात्रा अथवा निर्गत को X- अक्ष पर और प्राप्त संप्राप्ति को Y- अक्ष पर दिखाते हैं।

उपरोक्त चित्र एक फर्म की कुल संप्राप्ति वक्र दर्शाती है। इस चित्र में हम निम्नलिखित बातों को देख सकते हैं:-
- जब निर्गत शून्य हो, फर्म की कुल संप्राप्ति भी शून्य होती है। अतः कुल संप्राप्ति वक्र बिन्दु O से गुजरती है।
- जैसे-जैसे निर्गत बढ़ता है कुल संप्राप्ति में वृद्धि होती है।
- समीकरण कुल संप्राप्ति= p×q एक सीधी रेखा दर्शाती है, क्योंकि ‘p’ स्थिर है। इससे अभिप्राय है कि कुल संप्राप्ति वक्र एक ऊपर की ओर जाती हुई सीधी रेखा है।
- औसत संप्राप्ति (AR): एक फर्म की औसत संप्राप्ति को किसी फर्म की प्रति इकाई निर्गत संप्राप्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है।

कुल संप्राप्ति= कीमत × मात्रा (ii)
(i) और (ii) से,

अतः दूसरे शब्दों में, एक कीमत-स्वीकारक फर्म के लिए औसत संप्राप्ति बाज़ार कीमत के बराबर है।

- उपरोक्त चित्र में एक फर्म के विभिन्न मूल्यों वाले निर्गत (X-अक्ष) के लिए बाज़ार कीमत (Y-अक्ष) दर्शायी गई है। चूँकि बाज़ार कीमत p पर स्थिर है, हमें एक समस्तरीय सीधी रेखा (Horizontal Straight Line) प्राप्त होती है जो Y-अक्ष को p के बराबर ऊँचाई पर काटती है। यह समस्तरीय सीधी रेखा कीमत रेखा (Price Line) कहलाती है।
- यह पूर्ण प्रतिस्पर्धा के अंतर्गत फर्म का औसत संप्राप्ति वक्र भी होता है।
- कीमत रेखा फर्म के माँग वक्र को भी प्रदर्शित करती है। यह माँग वक्र पूर्णतया लोचदार (Perfectly Elastic) होता है। इसका अर्थ है कि एक फर्म p कीमत पर वस्तु की जितनी मात्रा चाहे बेच सकती है, लेकिन p से थोड़ा भी ऊपर किसी भी कीमत पर एक भी वस्तु नहीं बेच पाएगी।
- सीमांत संप्राप्ति (MR): एक फर्म की सीमांत संप्राप्ति, फर्म के निर्गत में प्रति इकाई वृद्धि के लिए कुल संप्राप्ति में परिवर्तन के रूप में परिभाषित की जाती है।
पूर्ण स्पर्धा वाली फर्म के लिये AR=MR=p | दूसरे शब्दों में, एक कीमत-स्वीकारक फर्म के लिए सीमांत संप्राप्ति तथा औसत सम्प्राप्ति बाज़ार कीमत के बराबर होती है। जब एक फर्म अपना निर्गत एक इकाई बढाती है, तो यह अतिरिक्त इकाई बाज़ार कीमत पर विक्रय की जाती है। अतः फर्म के द्वारा एक इकाई निर्गत को बढ़ाने से कुल संप्राप्ति में जो वृद्धि होती है, उसे सीमांत संप्राप्ति कहा जाता है| पूर्ण प्रतिस्पर्धा बाजार में यह बाज़ार कीमत के बराबर होती है।
- लाभ अधिकतमीकरण (Profit Maximisation) : फर्म का लाभ जिसे π द्वारा दर्शाया जाता है|
π = कुल संप्राप्ति - कुल लागत
लाभ अधिकतम होने के लिए फर्म की अधिकतम उत्पादन मात्रा (q0) पर तीन शर्तें पूर्ण होनी चाहिएः
- कीमत P सीमांत लागत के बराबर हो (P=MC) ; ( सामान्यतः MR = MC, लेकिन यहाँ p = MC )
- q0 पर सीमांत लागत ह्रासमान नहीं हो (MC should be non-decreasing at q0);
- अल्पकाल में कीमत औसत परिवर्तनीय लागत से अधिक अथवा समान हो (P ≥ AVC)और दीर्घकाल में कीमत औसत लागत से अधिक अथवा समान हो P ≥ AC |
- कीमत P सीमांत लागत के बराबर हो (P=MC) :-
- लाभ, कुल संप्राप्ति तथा कुल लागत का अंतर होता है। जैसे निर्गत में वृद्धि होती है, कुल संप्राप्ति तथा कुल लागत में भी वृद्धि होती है।
- जब तक कुल संप्राप्ति में वृद्धि कुल लागत में परिवर्तन से अधिक है, लाभ में लगातार वृद्धि होगी।
- निर्गत में प्रति इकाई वृद्धि के कारण कुल संप्राप्ति में परिवर्तन सीमांत सम्प्राप्ति के बराबर होती है। इसीलिए जब तक सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत से अधिक है (MR > MC), लाभ बढ़ते हैं। इसी तर्क के आधार पर, जब तक सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत से कम है, लाभ कम होते जाएँगे| इसका अर्थ यह है कि लाभों को अधिकतम होने के लिए सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत के बराबर (MR=MC) होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, लाभ, उत्पादन के उस स्तर पर अधिकतम होते हैं जिस पर MR=MC होता है।
- जैसा कि हम जानते हैं कि पूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक फर्म के लिए MR=P, इसलिए फर्म का लाभ-अधिकतमीकरण निर्गत-स्तर वह निर्गत है जिस पर P=MC हो।
- q0 पर सीमांत लागत ह्रासमान नहीं हो (MC should be non-decreasing at q0):-

- ऊपर दिए गए चित्र में q1 तथा q4 निर्गत स्तरों पर बाज़ार कीमत सीमांत लागत के बराबर है।
- परंतु q1 निर्गत स्तर पर सीमांत लागत वक्र नीचे की ओर प्रवण है। q1 से थोड़ी-सी दायीं ओर सभी निर्गत स्तरों के लिए बाज़ार कीमत सीमांत लागत की तुलना में अधिक है (p>MC)। q1 से थोड़े-से अधिक निर्गत स्तर पर फर्म का लाभ समवर्ती निर्गत स्तर पर q1 से अधिक होता है। यह स्थिति होते हुए q1 निर्गत स्तर लाभ अधिकतमीकरण का स्तर नहीं हो सकता। इस स्तर पर अपना उत्पादन रोकने की बजाय उत्पादन बढ़ाना फर्म के लिए लाभकारी होगा।
- अल्पकाल में कीमत औसत परिवर्तनीय लागत से अधिक अथवा समान हो P ≥ AVC और दीर्घकाल में कीमत औसत लागत से अधिक अथवा समान हो P ≥ AC:-
- अल्पकाल में कीमत औसत परिवर्तनीय लागत से अधिक अथवा समान हो P ≥ AVC :-

- अल्पकालीन स्थिति में एक लाभ-अधिकतमीकरण करने वाली फर्म किसी ऐसे निर्गत स्तर पर उत्पादन नहीं करेगी जहाँ बाज़ार कीमत औसत परिवर्ती लागत की तुलना में कम हो।
- उपरोक्त चित्र में निर्गत स्तर q1 पर बाज़ार कीमत p औसत परिवर्ती लागत की तुलना में कम है।
- यदि फर्म शून्य निर्गत का उत्पादन करती है तो कुल संप्राप्ति तथा कुल परिवर्ती लागत भी शून्य होंगे । अतः शून्य निर्गत पर फर्म की हानि (ऋणात्मक लाभ) ऋणात्मक कुल स्थिर लागत के समान होगी ।
π= TR-TVC-TFC
= 0-0-TFC
= -TFC
- q1 पर फर्म की कुल संप्राप्ति फर्म की कुल परिवर्त्ती लागत से स्पष्ट रूप से कम है। q1 पर फर्म की कुल हानि
π = TR-TVC-TFC
क्योंकि q1 पर फर्म की कुल संप्राप्ति फर्म की कुल परिवर्त्ती लागत से स्पष्ट रूप से कम है। q1 पर फर्म की हानि उससे अधिक है जो फर्म को कुछ भी उत्पादन न करने पर होती। अतः फर्म कुछ भी उत्पादन नहीं करेगी और बाज़ार से बहिर्गमन कर जाएगी।
- दीर्घकाल में कीमत औसत लागत से अधिक अथवा समान हो P ≥ AC :-

- दीर्घकाल में एक लाभ-अधिकतमीकरण करने वाली फर्म किसी ऐसे निर्गत स्तर पर उत्पादन नहीं करेगी, जहाँ बाज़ार कीमत औसत लागत की तुलना में कम हो।
- उपरोक्त चित्र में निर्गत स्तर q1 पर बाज़ार कीमत p (दीर्घकालीन) औसत लागत की तुलना में कम है।
- q1 स्तर पर फर्म की कुल संप्राप्ति आयत OpAq1 के क्षेत्रफल के बराबर है और फर्म की कुल लागत आयत OEBq1 के क्षेत्रफल के बराबर है।
- चूंकि आयत OEBq1 का क्षेत्रफल आयत OpAq1 के क्षेत्रफल से अधिक है, निर्गत स्तर q1 पर फर्म हानि उठाती है। दीर्घकालीन स्थिति में एक फर्म यदि उत्पादन बंद कर देती है, तब शून्य लाभ प्राप्त करती है। इस स्थिति में फर्म पुनः बहिर्गमन करना पसंद करती है।
- लाभ अधिकतमीकरण : आरेख द्वारा प्रदर्शन (Profit Maximisation : Graphical Representation)

- ऊपर दिए गए चित्र में बाज़ार कीमत p है। बाज़ार कीमत को (अल्पकाल) सीमांत लागत के बराबर करके हमें q0 निर्गत स्तर प्राप्त होता है।
- q0 पर अल्पकालीन सीमांत लागत की प्रवणता ऊपर की ओर जा रही है तथा p औसत परिवर्ती लागत से अधिक है।
- q0 पर p=SMC और P ≥ AC लाभ अधिकतमीकरण की दोनों शर्तें पूरी हो रही है।
- q0 पर फर्म की कुल संप्राप्ति आयत OpAq0 का क्षेत्रफल (कीमत तथा मात्रा का उत्पाद) है जबकि q0 पर कुल लागत आयत OEBq0 का क्षेत्रफल (अल्पकालीन औसत लागत तथा मात्रा का उत्पाद) है जोकि OpAq0 की तुलना में कम है। अतः q0 पर, फर्म आयत EpAB के क्षेत्रफल के बराबर लाभ अर्जित करती है।
- अल्पकाल में एक फर्म का पूर्ति वक्र (Short Run Supply Curve):-

ऊपर दिए गए चित्र को देखते हैं तथा फर्म का अल्पकालीन पूर्ति वक्र व्युत्पन्न करते हैं। इसे हम दो भागों में विभाजित करेंगे।
स्थिति 1ः कीमत न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से अधिक अथवा उसके बराबर:-
- मान लीजिए कि बाज़ार कीमत p1 है जो न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से अधिक है। हम p1 को अल्पकालीन सीमांत लागत के बराबर करके हमें निर्गत स्तर q1 प्राप्त होता है। इस स्तर पर लाभ अधिकतमीकरण की तीनों शर्तें (P=MC, MC ह्रासमान न हो और P ≥ AVC ) पूरी हो रही है।
- अतः जब बाज़ार कीमत p1 है तो फर्म का अल्पकाल में निर्गत स्तर q1 के बराबर है।
स्थिति 2 : कीमत न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से कम :-
- मान लीजिए बाज़ार कीमत p2 है जो कि न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से कम है।
- हम जानते हैं कि यदि एक लाभ-अधिकतमीकरण फर्म अल्पकाल में एक सकारात्मक निर्गत का उत्पादन करती है तो उस निर्गत स्तर पर बाज़ार कीमत p2 औसत परिवर्ती लागत से अधिक अथवा बराबर होनी चाहिए।
- किंतु ऊपरोक्त चित्र में हम देखते हैं कि सभी सकारात्मक निर्गत स्तरों पर औसत परिवर्ती लागत स्पष्ट रूप से p2 से अधिक है। दूसरे शब्दों में इस स्थिति में यह संभव नहीं है कि फर्म एक सकारात्मक निर्गत की पूर्ति करे। अतः यदि बाज़ार कीमत p2 है, तो फर्म शून्य निर्गत का उत्पादन करेगी।
स्थिति 1 तथा 2 को मिलाकर हम एक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। एक फर्म का अल्पकालीन पूर्ति वक्र न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से ऊपर अल्पकालीन सीमांत लागत वक्र का बढ़ता हुआ भाग होता है तथा न्यूनतम औसत परिवर्ती लागत से कम सभी कीमतों पर निर्गत शून्य होता है। नीचे दिए गए चित्र में फर्म के अल्पकालीन पूर्ति वक्र को मोटी रेखा से दर्शाया गया है।

- दीर्घकाल में एक फर्म का पूर्ति वक्र (Long Run Supply Curve): अल्पकालीन स्थिति की भाँति, हम इस व्युत्पत्ति को दो भागों में विभाजित करते हैं।
स्थिति 1ः कीमत न्यूनतम दीर्घकालीन औसत लागत से अधिक अथवा बराबर है:-
- मान लीजिए बाज़ार कीमत p1 है जो न्यूनतम दीर्घकालीन औसत लागत से अधिक है। p1 को दीर्घकालीन सीमांत लागत के बराबर करके हमें निर्गत स्तर q1 प्राप्त होता है।

- इस स्तर पर लाभ अधिकतमीकरण की तीनों शर्तें (P=MC, MC ह्रासमान न हो और P ≥ AVC (दीर्घकाल में)) पूरी हो रही है। अतः जब बाज़ार कीमत p1 है, तो फर्म दीर्घकाल में q1 के बराबर निर्गत की पूर्ति करती है।
स्थिति 2 : कीमत न्यूनतम दीर्घकालीन औसत लागत से कम:-
- मान लीजिए, बाज़ार कीमत p2 है जो न्यूनतम दीर्घकालीन औसत लागत से कम है।
- यदि एक लाभ-अधिकतमीकरण फर्म दीर्घकालीन स्थिति में एक सकारात्मक निर्गत का उत्पादन करती है, तो बाज़ार कीमत p2 उस निर्गत स्तर पर दीर्घकालीन औसत लागत से अधिक अथवा उसके बराबर होती है।
- परंतु ऊपर दिए गए चित्र में देखिए कि सभी सकारात्मक निर्गत स्तरों के लिए दीर्घकालीन औसत लागत p2 से स्पष्ट अधिक है। दूसरे शब्दों में, यह स्थिति संभव नहीं है कि फर्म एक सकारात्मक निर्गत की पूर्ति करे। अतः जब बाज़ार कीमत p2 है, तो फर्म शून्य निर्गत का उत्पादन करती है।
स्थिति 1 तथा 2 को मिलाकर हम एक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। एक फर्म का दीर्घकालीन पूर्ति वक्र दीर्घकालीन औसत लागत के बराबर अथवा उससे ऊपर दीर्घकालीन सीमांत लागत वक्र का बढ़ता हुआ भाग है, लेकिन न्यूनतम दीर्घकालीन औसत लागत से कम सभी कीमतों पर निर्गत शून्य है। नीचे दिए गए चित्र में दीर्घकालीन पूर्ति वक्र को मोटी रेखा से दर्शाया गया है।

- सामान्य लाभ (Normal Profit) तथा लाभ-अलाभ बिंदु (Break Even Point):
- सामान्य लाभ (Normal Profit) : लाभ के न्यूनतम स्तर को जो एक फर्म को इसके वर्तमान व्यापार में बनाए रखने के लिए आवश्यक है सामान्य लाभ कहलाती हैं। एक फर्म जो सामान्य लाभ अर्जित नहीं करती वह व्यापार में नहीं रह सकती।
- अधिसमान्य लाभ (Super Normal Profits): वह लाभ जो एक फर्म सामान्य लाभ से ऊपर अर्जित करती है, अधिसमान्य लाभ कहलाता है। दीर्घकालीन स्थिति में यदि फर्म सामान्य लाभ से कुछ भी कम अर्जित करती है, तो वह उत्पादन नहीं करती है। किंतु अल्पकाल में फर्म का लाभ यदि इस स्तर से कम है, तो भी उत्पादन कर सकती है।
- लाभ-अलाभ बिंदु (Break Even Point) : पूर्ति वक्र के जिस बिंदु पर एक फर्म केवल साधारण लाभ अर्जित करती है, वह फर्म का लाभ-अलाभ बिंदु कहलाता है। अतः न्यूनतम औसत लागत का वह बिंदु जिस पर पूर्ति वक्र दीर्घकालीन औसत वक्र (अल्पकाल में अल्पकालीन औसत लागत वक्र) को काटता है, फर्म का लाभ-अलाभ बिंदु है।
- पूर्ति (Supply) : किसी वस्तु की पूर्ति से अभिप्राय वस्तु की उन मात्राओं से है जिन्हें एक विक्रेता विभिन्न संभव कीमतों पर एक निश्चित समय में बेचने को तैयार रहता है ।
- वस्तु की पूर्ति के निर्धारक घटक (Factors Affecting Supply of a Commodity) :
- वस्तु की कीमत (Price of the Commodity): किसी वस्तु की पूर्ति तथा कीमत में धनात्मक सम्बन्ध होता है । सामान्य दशाओं में कीमत बढ़ने से वस्तु की पूर्ति बढ़ती है तथा कीमत कम होने से वस्तु की पूर्ति घटती है।
- सम्बन्धित वस्तुओं की कीमतें (Price of Related Goods): किसी वस्तु विशेष की पूर्ति और अन्य सम्बन्धित वस्तुओं की कीमतों में ऋणात्मक संबंध होता है। जैसे चावल की कीमत में वृद्धि होने से गेहूँ की पूर्ति गिर जाती है। इसका कारण यह है कि चावल की कीमत में वृद्धि निर्माताओं को चावल के अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करती है। इसलिए गेहूँ उत्पादन कम होगा एवं उसकी पूर्ति घट जायेगी।
- आगत कीमतें (Input Prices): उत्पादन के कारकों की कीमत बढ़ने पर उत्पादन लागत में भी वृद्धि हो जाती है जिसके कारण उत्पादकों का लाभ कम होता है और वे उत्पादन कम कर देते हैं। इसके विपरीत उत्पादन कारकों की कीमत में कमी के कारण उत्पादन लागत में कमी होती है जिसके कारण उत्पादकों का लाभ बढ़ता है। अतः फर्म पूर्ति में वृद्धि करती है।
- प्रौद्योगिकीय प्रगति (Technological Progress): तकनीकी स्तर में परिवर्तन से नवीन एवं कम लागत वाली उत्पादन तकनीकों का आविष्कार होता है जिससे उत्पादन लागत में कमी तथा वस्तु की पूर्ति में वृद्धि होती है।
- फर्मों की संख्या (Number of Firms): किसी वस्तु की बाज़ार पूर्ति फर्मों की संख्या पर भी निर्भर करती है। फर्मों की संख्या अधिक होने पर पूर्ति अधिक होती है। इसके विपरीत फर्मों की संख्या कम होने पर पूर्ति कम हो जाती है।
- फर्म के उद्देश्य (Goal of the Firm): यदि फर्म का उद्देश्य लाभ को अधिकतम करना है तो केवल अधिक कीमत पर ही अधिक पूर्ति की जायेगी । इसके विपरीत यदि फर्म का उद्देश्य बिक्री या उत्पादन या रोज़गार को अधिकतम करना है तो वर्तमान कीमत पर भी अधिक पूर्ति की जायेगी।
- भविष्य में संभावित कीमत (Expected Future Price): भविष्य में वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन की संभावना भी पूर्ति को प्रभावित करती है। यदि भविष्य में वस्तु की कीमत बढ़ने की संभावना हो तो वर्तमान में पूर्ति घट जाती है। इसके विपरीत यदि भविष्य में कीमत घटने की संभावना हो तो वर्तमान में पूर्ति बढ़ जाती है।
- सरकारी नीति (Government Policy): सरकार की कर (Taxes) तथा अनुदान (Subsidies) सम्बन्धी नीतियों का वस्तु की बाज़ार पूर्ति पर प्रभाव पड़ता है। अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि होने के फलस्वरूप सामान्यतः पूर्ति कम होती है। इसके विपरीत अनुदानों के कारण पूर्ति में वृद्धि होती है क्योंकि उत्पादक अधिक उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं।
- बाज़ार पूर्ति वक्र (Market Supply Curve) :
बाज़ार की सभी फर्में अथवा विक्रेता मिलकर विभिन्न कीमतों पर बाज़ार में कुल कितनी मात्रा बेचने को तैयार हैं इसका ग्राफीय चित्रण बाज़ार पूर्ति वक्र कहलाती है । इस प्रकार बाज़ार पूर्ति वक्र से अभिप्राय बाज़ार में किसी विशेष वस्तु का उत्पादन या पूर्ति करने वाली सभी फर्मों की पूर्ति के जोड़ से है ।
उदाहरण के लिए, एक ऐसे बाज़ार की कल्पना करते हैं जहाँ केवल दो फर्म हैं और इन दोनों के पूर्ति वक्र निम्नलिखित हैं-


चित्र 'a' फर्म-1 का पूर्ति वक्र दर्शाती है। चित्र 'b' फर्म-2 का पूर्ति वक्र दर्शाती है। चित्र 'c' बाज़ार पूर्ति वक्र दर्शाती है, जो कि दोनों फर्मों के पूर्ति वक्रों का समस्तरीय योग द्वारा प्राप्त की गई है।
- पूर्ति की कीमत लोच (Elasticity of Supply) : एक वस्तु की पूर्ति की कीमत लोच, वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण वस्तु की पूर्ति की मात्रा की अनुक्रियाशीलता को मापती है। अधिक स्पष्ट रूप में पूर्ति की कीमत लोच जिसे es से दर्शाया गया है, निम्न प्रकार परिभाषित की जाती है:-


जहाँ ∆Q बाज़ार में आपूर्ति तो वस्तुओं की मात्रा है जब बाज़ार में कीमत में ∆P के बराबर परिवर्तन है।